मंदिर के पैसों से चलने वाला 1000+ साल से भी पुराना अस्पताल: जहाँ थे डॉक्टर, सर्जन, नर्स… दीवार पर लिखी उपचार विधियाँ

श्री अप्पन वेंकटेश पेरुमल मंदिर, जहाँ प्राचीन काल में चलता था अस्पताल (फाइल फोटो साभार: Wikimapia)

आज जब पूरी दुनिया कोरोना वायरस संक्रमण की मार झेल रही है और भारत में इस महामारी की दूसरी लहर तबाही मचा रही है, अस्पतालों में बेड्स की किल्लत से मरीज परेशान हैं। ऑक्सीजन, वेंटिलेटर्स और बेड्स की व्यवस्था करने में सरकारों के पसीने छूट रहे हैं। इन सबके बीच हमें किसी और से नहीं, खुद के ही इतिहास से सीखने की ज़रूरत है। इसे समझने के लिए हमें चलना पड़ेगा अप्पन वेंकटेश पेरुमल मंदिर।

ये मंदिर तमिलनाडु से 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कांचीपुरम में स्थित है, जो एक प्राचीन शहर है। इस मंदिर को चोल राजाओं ने बनवाया था। इसकी दीवारों पर अब भी उस अस्पताल के सबूत मौजूद हैं, जो 1000 वर्ष पहले संचालित किए जाते थे। 1100 वर्ष से भी पूर्व संचालित होने वाले 15 बेड्स के इस अस्पताल में कई डॉक्टर और सर्जन हुआ करते थे। दूरद्रष्टा हिन्दू राजाओं ने नागरिकों की स्वास्थ्य सुविधाओं का भी पूरा ख्याल रखा था।

दीवार पर ये भी खुदा हुआ है कि कैसे उस समय विभिन्न मेडिकल प्रक्रियाओं और सर्जरी के जरिए लोगों का इलाज किया जाता था। डॉक्टरों को उनका वेतन अनाज के रूप में दिया जाता था। मरीजों को भोजन किस तरह से और कैसा दिया जाता है, ये भी अंकित है। डॉक्टर को उनके कार्य के हिसाब से वेतन दिया जाता था। साथ ही उन आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों के भी विवरण हैं, जिनसे मरीजों का इलाज किया जाता था।

ग्रेनाइट की दीवार पर ये नक्काशी कमाल की है, जो उस समय की उन्नत तकनीक की ओर इशारा करती है। इस अस्पताल को वीरराजेन्द्र चोल ने बनवाया था, जो दक्षिण भारत के महान राजा राजेंद्र चोल के बेटे थे। वो अपने बड़े भाइयों राजाधिराज चोल और राजेंद्र चोल II के सहयोगी के रूप में शासन करते थे। वेदों, शास्त्रों और व्याकरण के अध्ययन के लिए उन्होंने विद्यालय और छात्रावास भी बनवाया था।

इस अस्पताल को 1069 AD में चेयर, वेगवती और पलर नदी के संगम स्थल पर बनवाया गया था। थिरुमुकुड्डल में स्थित वेंकटेश मंदिर को भगवान विष्णु के भक्त सबसे प्रमुख मंदिरों में से एक मानते हैं। इस अस्पताल में 2 फिजिशियन, 2 डॉक्टर, और एक नाई हुआ करता था जो छोटे-छोटे ऑपरेशन्स करता था। 2 ऐसे कर्मचारी थे, जो आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियाँ जुटाते थे। साथ ही मरीजों की देखभाल के लिए नर्स और अन्य कर्मचारी भी थे।

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55 फ़ीट लम्बा ये अभिलेख 33 पंक्तियों में लिखा गया है। ऊपर से नीचे तक 540 स्क्वायर फ़ीट क्षेत्र में इसे अंकित किया गया है। इसे भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे विस्तृत अभिलेख के रूप में जाना जाता है। इसका 95% हिस्सा तमिल में है, जबकि 5% ग्रन्थ लिपि में अंकित है। बुखार, फेफड़ों की गड़बड़ी और जलशोथ जैसी बीमारियों से लड़ने के उपचार और दवाओं का विवरण इसमें उपलब्ध है। ऐसी 19 दवाओं के बारे में बताया गया है।

इस अस्पताल का इस्तेमाल मुख्यतः मंदिर के कर्मचारियों और छात्रावास के छात्रों के इलाज के लिए किया जाता था। आम जनता को भी यहाँ इलाज की सुविधा दी जाती थी। करीब 100 वर्ष पूर्व इस अभिलेख को डिकोड किया गया था। ये आयुर्वेदिक के साथ साथ ‘सिद्ध तकनीक’ के इलाज की ओर भी इशारा करता है। इस अस्पताल को राजा द्वारा मंदिर को दिए जाने वाले दान से संचालित किया जाता था।

प्राचीन भारत या मध्यकाल में संचालित होने वाला ये अकेला भारतीय अस्पताल नहीं है। इसके अलावा थिरुवक्कम, तंजावुर और श्रीरंगम में भी ऐसे अस्पताल चलाए जाते थे। अस्पतालों को तब ‘अतुलार सलाई’ कहा जाता था। ASI भी योजना बना रहा है कि 9वीं सदी के इस मंदिर के प्रांगण में अभिलेख में वर्णित किए गए आयुर्वेदिक पेड़-पौधे लगाए जाएँ। आज वामपंथी जब ‘मंदिर की जगह अस्पताल’ वाला नैरेटिव फैलाते हैं, तब उन्हें जानना चाहिए कि पहले दोनों अलग नहीं हुआ करते थे।

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया