अधम जाति मैं बिद्या पाएँ… 3 मुकदमे वाले करोड़पति मंत्री चंद्रशेखर यादव ने कर दिया अर्थ का अनर्थ! ये तुलसीदास के बोल हैं ही नहीं, सनातन में तो ‘काग’ भी ऋषि

बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर को खुद शिक्षा की ज़रूरत है, तुलसीदास को समझने के लिए चाहिए 'बुद्धि'

बिहार के शिक्षा मंत्री प्रोफेसर चंद्रशेखर ने रामचरितमानस के उलटे-पुलटे अर्थ लगाते हुए तुलसीदास रचित इस ग्रन्थ को ‘नफरत फैलाने वाला’ करार दिया। उन्होंने ये बयान ‘नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी’ के दीक्षांत। स्पष्ट है कि एक बड़े समूह पर इसका प्रभाव पड़ा है। आश्चर्य न हो कि मनुस्मृति को जलाने वाली जमात कुछ दिनों बाद रामचरितमानस को भी जलाने लगे और फिर ये सब इतना सामान्य हो जाए कि कल को वेद-पुराण भी जलाए जाने लगे।

ये अलग बात है कि कुरान-हदीस के बारे में एक शब्द भी कह देने पर ‘सर तन से जुदा’ हो जाता है और बाइबिल के किसी शब्द पर मजाक भर कर देने से बिशप के सामने लिखित माफ़ी माँगनी पड़ती है, चाहे आप कितनी भी बड़ी हस्ती क्यों न हों। मधेपुरा से राजद के टिकट पर 3 बार जीत चुके चंद्रशेखर यादव 2015 की महागठबंधन सरकार में आपदा प्रबंधन मंत्री बने थे, अब उनके पास शिक्षा विभाग है। सवा दो करोड़ की उनकी घोषित संपत्ति है और 3 आपराधिक मामले भी उन पर चल रहे हैं।

अब हिन्दू समाज में सबसे बड़ी खामी है कि हम अपने ही धर्मग्रंथों को नहीं पढ़ते हैं। जिसने कभी किसी ग्रन्थ को छुआ तक न हो, वो उसके किसी एक चौपाई को रट कर ये ज़रूर ज्ञान देता फिरता है कि देखो इसमें गलत लिखा है। रामचरितमानस घर-घर में है, लोग पढ़ते भी हैं, लेकिन हमारे आगे की जनरेशन के कितने बच्चों को हमने ये पढ़ाया है? आजकल तो चलन है कि ‘कूल’ बनने के लिए कह दिया जाता है, “अरे, हमारे बच्चे तो अंग्रेजी के अलावा कुछ समझते ही नहीं, पूजा-पाठ थोड़े करेंगे आजकल के बच्चे।

3 मुकदमों वाले करोड़पति मंत्री चंद्रशेखर ने ये भी झूठ बोला कि वो अपना सरनेम नहीं लगाते हैं, क्योंकि 2005 में बतौर निर्दलीय प्रत्याशी जब वो उतरे थे तो उनके पोस्टरों पर उनका सरनेम ‘यादव’ लिखा हुआ था। मतलब, वोट की राजनीति करनी हो तो सरनेम लगाओ और हिन्दू धर्म को गाली देना हो तो हटा लो। सनातन धर्म में इसीलिए गुरु-परंपरा का चलन रहा है, ताकि कोई हमारे ग्रंथों को पढ़ कर अर्थ का अनर्थ न कर डाले।

चौपाइयों का गलत अर्थ लगा कर लोगों को भरमाते बिहार के शिक्षा मंत्री

बिहार के शिक्षा मंत्री ने रामचरितमानस की जिस चौपाइयों का उदाहरण दिया, उनमें से एक ये है – “अधम जाति मैं बिद्या पाएँ। भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ॥” बिहार के प्रोफेसर मंत्री ने इस चौपाई का अर्थ लगाया – “नीच जाति में विद्या पाने का अधिकार नहीं था। अधम मतलब नीच। इसमें कहा गया है कि नीच जाति का व्यक्ति विद्या पाकर ऐसा हो जाता है, जैसे दूध पिलाने से साँप।” हम इस चौपाई का अर्थ बताएँगे, लेकिन उससे पहले एक चीज जाननी आवश्यक है।

जब कोई कहानी कही जाती है, किसी सत्य घटना को बताया जाता है या कोई उपन्यास-नाटक ही लिखा जाता है तो उसमें कई किरदार होते हैं। स्पष्ट है, हर किरदार की अलग-अलग राय होती है और उनके स्वभाव से लेकर हाव-भाव अलग-अलग होते हैं। उनकी बुद्धिमत्ता का स्तर, उनकी आर्थिक स्थिति और उनका रंग-रूप – सब बिलकुल वैसे ही अलग-अलग होता है जैसे कि आम जीवन में लोगों का। अब हर किरदार जब अपनी बात करेगा, उनमें कुछ चर्चा होगी और वो बोलेंगे – तो वो अपने अनुभव बताएँगे और अपनी राय रखेंगे।

ऐसे में, ‘ढोल गँवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥‘ वाली चौपाई को लेकर भी समय-समय पर हंगामा मचाया जा चुका है, जबकि ये चौपाई समुद्र कह रहा होता है। भगवान राम इन्तजार करते-करते थक कर जब समुद्र द्वारा रास्ता न दिए जाने पर उसे दंड देने का निर्णय लेते हैं, तब वो प्रकार होकर क्षमा माँगते हुए ऐसा कहते हैं। ज़रूरी नहीं कि किरदार की सोच लेखक की सोच हो। और यहाँ ‘ताड़ना’ का अर्थ ‘शिक्षा’ है, जिसे बार-बार गलत अर्थ में पेश किया जाता रहा है।

इसी तरह, जिस चौपाई का जिक्र चंद्रशेखर यादव ने किया, उसे काकभुशुण्डि कह रहे होते हैं, एक ऋषि जो काग (कौवा) के रूप में रहा करते थे। उनके बारे में बताया गया है कि उन्हें इच्छानुसार कई जन्म लेने और सदियों तक जीवित रहने का वरदान है और वो बड़े रामभक्त रहे हैं। उन्होंने भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ को रामायण सुनाई थी, वाल्मीकि से काफी पहले। कथा है कि महर्षि लोमस की शिक्षाओं का मजाक उड़ाने के कारण उन्हें कौवे के रूप में प्राप्त होने का श्राप मिला था।

गरुड़ को अपनी पिछली बात बताते हुए काकभुशुण्डि कह रहे हैं कि दुष्ट प्रवृत्ति का मैं विद्या पाकर ऐसा हो गया, जैसे दूध पिलाने से साँप। यहाँ जाति या वर्ण-व्यवस्था का कुछ लेना-देना है ही नहीं, तो फिर इसमें कहा से घुसेड़ दिया गया? ‘अधम’ का अर्थ होता है पापी या नीचतापूर्ण कार्य करने वाला। काकभुशुण्डि इस प्रसंग में ‘खल परिहरिअ स्वान की नाईं‘ भी कहते हैं, अर्थात दुष्ट को त्याग देना चाहिए। वो ये भी कहते हैं – “बुध नहिं करहिं अधम कर संगा” भी कहते हैं, अर्थात बुद्धिमान व्यक्ति दुष्टों की संगत नहीं करते हैं।

यहाँ स्पष्ट है कि एक तरफ बुद्धिमान, अर्थात समझदार व्यक्ति होते हैं और दूसरी तरफ अधम, अर्थात दुष्ट व्यक्ति। इसमें काकभुशुण्डि अपनी ही पुरानी प्रवृत्ति बता रहे हैं कि कैसे उन्होंने बार-बार गुरु की अवहेलना की और उन्हें ‘अधम गति’ में जाने का श्राप मिला। यहाँ अधम का अर्थ है ‘निम्न’। पशु-पक्षियों और कीट-पतंगों का जीवन दुःख भरा होता है और मनुष्य का जीवन सबसे उच्च कोटि का माना गया है, यहाँ अधम का अर्थ इस संदर्भ में भी लगा सकते हैं।

रामचरितमानस का अपमान: तुलसीदास नहीं, निशाना सीधे भगवान श्रीराम हैं

हर लेखक को अपनी सोच प्रदर्शित करने का अधिकार है और दुनिया भर में कवि-उपन्यासकार स्वच्छंद रूप से ऐसा करते आ रहे हैं, फिर तुलसीदास को कैसे वंचित किया जा सकता है? आप देखिए, हमारा धर्म तो ऐसा है कि अच्छा कार्य करने पर एक काग की भी प्रतिष्ठा ऋषि के रूप में हुई। अगर उस समय इतना ही छुआछूत होता तो भला काकभुशुण्डि को कोई गुरु कैसे मिलते? भला उनकी उद्दंडता को बार-बार बर्दाश्त कैसे करते?

जानने वाली बात तो ये भी है कि हमारे धर्मग्रंथों में समय-समय पर छेड़छाड़ की गई है। मुगलों के समय उनमें कई चीजें जोड़ी-हटाई गईं तो अंग्रेजों के समय उनका गलत अनुवाद हुआ। अगर जातिभेद सनातन का अंग होता तो क्या निषाद समाज के नल राजा होते? भगवान श्रीराम शबरी के जूठे बेर खाते और नाविक केवट को गले लगाते? अब अलग-अलग काल में लोगों की अलग-अलग सोच रही है, समाज बदलता रहा है।

खुद तुलसीदास ने खुद को भी कई बार ‘तुच्छ’ कहा है, तो क्या इसका मतलब वो स्वयं से भी नफरत करते थे? उन्होंने वानर-भालू की सेना को भी ‘विप्र’ अर्थात, ब्राह्मण कहा है। इससे सीधा अर्थ निकलता है कि जो भगवान की भक्ति करेगा और अच्छे कार्य करेगा, वो उनकी नज़र में ब्राह्मण था। और हाँ, लोग ये क्यों भूल जाते हैं कि वानर-भालू सेना के साथ श्रीराम ने जिस रावण और उसके खानदान का वध किया, वो ब्राह्मण था?

अनुपम कुमार सिंह: चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.