शिकारा रिव्यू: 90 में इस्लाम ने रौंदा, 2020 में बॉलीवुड कश्मीरी हिंदुओं पर रगड़ रहा नमक

शिकारा टिपकल बॉलीवुड फिल्म है - नाच, गाना और कमाई पर फोकस

कश्मीर से मूल निवासी पंडितों की बेदखली के 30 साल बाद विधु विनोद चोपड़ा जैसे नामी फिल्म निर्माता की ताजा रिलीज “शिकारा’ बेहद सस्ती, उबाऊ और सतही फिल्म है। कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को ढंग से उभारने में पूरी तरह नाकाम शिकारा में आजादी के बाद हिंदुओं के सबसे बड़े अमानवीय विस्थापन के मूल कारणों पर भी परदा किया गया। रात के अंधेरे में घर से निकालने आए कुछ भटके हुए से नौजवान, जिन्हें एक हाजी साहब एक आवाज देकर भगा देते हैं। समझ के परे है कि चोपड़ा साब को इस वक्त ऐसी फिल्म बनाने की जरूरत अचानक क्यों आन पड़ी?

फिल्म को देखकर ऐसा लगता है जैसे “कश्मीर की कली’ टाइप कोई फिल्म की योजना थी। शूटिंग चल रही थी कि अचानक कुछ सिरफिरे लोगों ने खूबसूरत घाटी का माहौल खराब कर दिया। तो कैमरे बटोरकर फिल्म यूनिट घाटी की बजाए जम्मू के विस्थापितों के शिविरों में आ गई। फिर शूटिंग वहीं चलती रही। 30 साल बाद एक दिन अधबूढ़ा हीरो अपनी मृत पत्नी की राख उसी मकान में लेकर पहुँचता है, जहाँ शादी के बाद वे पहली बार मिले थे। तब तक मकान उजड़ चुका है। कहानी खत्म।

ताज्जुब है कि कश्मीर के कुछ जागरूक मुस्लिम इस बेदम फिल्म पर भी रोक लगाने के लिए चार दिन पहले हाईकोर्ट जा पहुँचे। कल रिलीज होने के बाद अगर उन ईमान के पक्के याचिकाकर्ताओं ने यह फिल्म देखी होगी तो हाईकोर्ट में याचिका पर हुए खर्चे पर अफसोस किया होगा। उन्होंने जरूर अल्लाह का शुक्रिया अदा किया होगा, क्योंकि आखिरी सीन तक इस्लाम खतरे में नजर आया ही नहीं! यह सिनेमा का एक चमत्कारी प्रयोग है कि शोले भी बन जाए और अपने गिरोह के साथ खूंखार गब्बर भी नजर न आए! वीरू और बसंती तांगे में टहलकदमी करते बूढ़े हो गए!

कश्मीर में इस्लामी आतंक और पाँच लाख निर्दोष पंडितों को घरों से निकालने जैसे गंभीर और भारत की आत्मा को छलनी करने वाले विषय पर ऐसी दोयम दर्जे की फिल्म कम से कम विधु विनोद चोपड़ा से कतई अपेक्षित नहीं थी। वो भी 370 का हैलोजन फ्यूज होने के बाद। हर विषय में प्रेम के तत्व को ढूंढना, गाना-बजाना-नाच हिंदी फिल्म उद्योग का एक घिसा-पिटा कारोबारी शिगूफा है। जनवरी 1990 के बाद कश्मीर की कहानी में इस तत्व की कोई गुंजाइश नहीं थी और अगस्त 2019 के बाद तो क्लाइमेक्स उल्टा ही है!

किसी झोला छाप मजनू टाइप डॉक्टर ने ही कहा हो तो प्रेम का तत्व सुबह-शाम की दो गोलियों जैसा दो-एक दृश्य में प्रतीकात्मक हो सकता था। पूरी फिल्म झोला छाप डॉक्टर की दी हुई दवाई की इस पुड़िया पर कैसे बन सकती थी? कश्मीर के नाम पर शिकारा एक बेहद उबाऊ और निराशाजनक फिल्म है। शुरू से आखिर तक। उसमें कश्मीर कहीं नहीं है। पंडितों की पीड़ा नदारद है। 30 साल से बिखरे दर्द का नामोनिशान नहीं है। 70 साल की गाजरघास के दर्शन दूर-दूर तक नहीं हैं। सदियों के घाव तो कहाँ होंगे?

मुझे लगता है यह विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म ही नहीं है। शायद उनकी कमाऊ कंपनी ने किसी नौसिखिए डिप्टी डायरेक्टर को ठेके पर देकर फिल्म बनाई है। प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि चोपड़ा साहब ने तो इसका शूट किया हुआ कन्टेंट भी यूरोप में अपनी व्यस्त छुटि्टयों के समय फोन पर ही फाइनल किया होगा। सरकारी दफ्तर में दूसरे अहम प्रोजेक्ट की फाइलों में व्यस्त नौकरशाह की तरह सरसरी नजर से ही इस फिल्म की फाइल को ओके कर दिया होगा!

कश्मीर पर 2020 में कोई फिल्म रिलीज हो और उसमें “डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के महान रचयिता चचा नेहरू न हों, जिन्होंने ऐसा इंडिया डिस्कवर करके हमें कश्मीर सहित दिया, पंडित नेहरू के परमप्रिय अब्दुल्ला न हों, शेख-चिल्लियों को दिया 370 का भस्मासुरी वरदान न हो, सरहद पार इस्लामी मुल्क से आता रहा आतंक का धमाकेदार महाप्रसाद न हो, विदेशी मदद पर पलने वाले हिज्बुल-हुर्रियत के परजीवी न हों, बम धमाके न हों, कत्लेआम न हों, मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से गूँजी डरावनी धमकियाँ न हों, पंडितों के मातम पर घाटी में सत्ता के मलाईदार मृत्युभोज में बैठे अब्दुल्ला-मुफ्ती-आजाद न हों, भारत के माथे पर पत्थर बरसाने वाले “भटके हुए युवा’ न हों, अफजलों को प्रात:स्मरणीय गुरु तुल्य मानने वाले जेएनयू के आहत विद्यार्थी वंशज न हों और इन सबके प्रति गहरी सहानुभूति रखने वाले सेक्युलर मीडिया के ड्रामाई मैगसेसे मुखमंडल न हों तो कोई फिल्म बनेगी कैसी? वैसी ही प्राणहीन है शिकारा! जबकि अब सब बेनकाब हैं। चोपड़ा ही बताएँगे कि कश्मीर के गुनाहों और गुनहगारों से ऐसा परदा क्यों किया? हटी हुई चिलमन को दूर सरकाया क्यों नहीं?

कश्मीर आखिर है क्या? क्या सिर्फ एक हरी-भरी घाटी, जिसका खुशनुमा परिचय शम्मी कपूर और शर्मिला टेगौर के जरिए दुनिया को हुआ? कश्मीर की दर्दनाक कहानी में क्या है? क्या सिर्फ एक प्रेमी युगल, जिसे 1990 में बेदखल होना पड़ा? फिल्म के मुख्य पात्रों के नाम शिव और शांति हैं। यह गौरतलब है। शिव के कश्मीर की उजड़ी शांति को परदे पर लाने की एक नाकाम कोशिश है शिकारा।

अतीत में कभी शैव मत के अनुयायियों और फिर बौद्ध मत का सक्रिय नॉलेज सेंटर रहा कश्मीर भारत की ज्ञान परंपरा का गर्व करने लायक अध्याय है, जहां बुद्ध के वचनों का दस्तावेजीकरण किया गया और एक समय आदि शंकराचार्य भी वहाँ गए बिना नहीं रहे। फिर सुलतानों के कब्जे हैं। धोखे हैं। बारूद की महक है। खून है। दूर तक फैला अंधेरा है। राख है। धुआँ है। पाकिस्तान है। दहशत है। सेक्युलरिज्म है। गंगा-जमना है। पंडितों पर हुए जुल्म तो सबसे ताजा हैं। सेक्युलर क्लाइमेट में अंतहीन हो रही सियासी कहानी का पटाक्षेप करने के लिए 5 अगस्त 2019 का एक दिन भी इतिहास में दर्ज है। लेकिन शिकारा में यह सब साफ है!

कश्मीर लाल किले के पहले भाषण में रेखांकित “भारत की नियति’ का एक दाग है, जिससे साक्षात्कार नहीं किया गया। वह शानदार शेरवानी में खुँसे गुलाब की सुर्खी में घुला पंडितों का लहू है, जिसकी सिर्फ खुशबू पर ही ध्यान रखा गया। कश्मीर गंगा-जमनी राग का पर्दाफाश करने वाली एक पीड़ाजनक चीत्कार है, जिसे अनसुना किया गया। कश्मीर पंडितों की पीड़ा का एक पड़ाव है, जहाँ ठहरना भी मुनासिब नहीं समझा गया। मुस्लिमपरस्ती के सेक्युलरिज्म का नशा लोकतंत्र के सिर से कभी तो उतरना ही था। एक दिन मौसम बदल गया। हालाँकि बेघर और बेबस पंडितों के दरवाजों पर बदलाव की आहट आना अभी बाकी है!

1990 में पाँच-सात साल के बेदखल बच्चे को आज अपनी आधी उम्र में कश्मीर की कोई स्मृति नहीं होगी। सब सुना ही होगा। ठीक वैसे ही जैसे 1947 में सिंध से बेदखल हुए परिवारों की तीसरी-चौथी पीढ़ी को बटवारे का कोई जख्म याद नहीं है। कश्मीर से निकले लोगों की याददाश्त में काफी-कुछ है। इबादतगाहों से उन्हें अपना घर और औरतें छोड़ने की धमकियाँ लाउड स्पीकरों से दी गईं। घरों में घुसकर औरतों-बच्चों को उठाया गया। बलात्कार हुए। बेरहमी से घेरकर कत्ल करने के बाद लाशें सड़कों-चौराहों पर छोड़ दी गईं। रातों-रात लोग अपने घर, दुकान, खेत, बागीचों को छोड़कर हमेशा के लिए भगा दिए गए। पड़ोसियों ने मरवाया, दोस्तों ने मारा, टीचर को मारने स्टुडेंट आ गए। जन्नत का ख्वाब था, सबने सवाब कमाया। कभी सिंध में, कभी कश्मीर में। शिकारा में कश्मीर के इस रक्तरंजित स्याह पहलू का कोई टुकड़ा तक नहीं है।

विधु विनोद चोपड़ा तो क्या, मुंबई के किसी माई के लाल फिल्म मेकर में दम नहीं है जो इस समस्या को सही और सघन रूप में परदे पर ला पाए। पद्मावती और शिवाजी पर बनने वाली फिल्मों को लेकर भी एक तबके के कान खड़े हो जाते हैं कि पता नहीं क्या दिखाया जाए, कहीं इस्लाम का गलत चित्रण (?) न हो जाए। भारत का असल इतिहास ऐसे धोखेबाज लुटेरों, अवैध कब्जों, नृशंस कारनामों और बेवजह कत्लेआमों से भरा हुआ है कि एक मामूली सा दृश्य भी उस “विशेष प्रकार के वर्ग’ की भावनाएँ आहत कर सकता है, जो सात-आठ सौ साल के इसी हिंसक फैलारे में अलग-अलग कारणों से उपजा है। पूरे उपमहाद्वीप में उसे अपना ही असल इतिहास नहीं पता। जबकि कश्मीर के उपनामों में वह बहुत साफ है-सलीम पंडित, मकबूल बट, लतीफ डार, रहमान मट्‌टू… ये पंडित, भट, धर (डार) और मट्‌टू नाम के आगे क्यों चिपके रह गए? ये किन बदकिस्मत पुरखों की तरफ इशारे हैं?

कश्मीर भारत पर थोपे गए आतंकी राज का एक छोटा सा कोना है। हरे-भरे दरख्त की एक शाख, जिस पर बैठे चंद सियासी परिंदे 70 साल से अपनी गर्दनें घुमा रहे थे और नुकीली चोंचें चमका रहे थे। 5 अगस्त 2019 को सारे मनहूस मुफ्ती, शेखचिल्ली के साहबजादे और साहबजादे के भी शहजादे आराम करने भेज दिए गए। विधु विनोद चोपड़ा अब तो हिम्मत कर सकते थे कि सच को सच की तरह दिखाते। मगर फिल्म फ्लॉप है। पहले दिन के तीसरे शो में कुलजमा बीस दर्शक थे!

सिनेमा से नहीं, संसद से ही उम्मीद है कि वह असल कहानी को अच्छे से आगे बढ़ाए। सारी असलियत सामने लाए। सारे गुनहगारों को ठिकाने लगाए। पंडितों को उनका हक दिलाए। कश्मीर पर कोई क्या कहानी लिखेगा, कोई क्या फिल्म बनाएगा! असली फिल्म और असली फिल्म निर्माता-निर्देशक मुंबई में नहीं, दिल्ली में हैं!

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लेखक: विजय मनोहर तिवारी

भारत के कोने-कोने की 8 से ज्यादा परिक्रमाएँ करने वाले सक्रिय लेखक। 6 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। कई पुरस्कार मिले हैं। भारत में इस्लाम के फैलाव पर 20 साल से रिसर्च। इस साल इसी विषय पर किताब आने वाली है।