‘सिंहगढ़ युद्द’ के 350 साल: जब ‘तानाजी’ के साथ एक छिपकली भी हुई थी वीरगति को प्राप्त

सिंहगढ़ का युद्ध

1600 ई. में कोंढाणा किले पर भगवा ध्वज फहराने के लिए मराठाओं द्वारा लिखी गई ‘सिंहगढ़ युद्ध’ की विजयगाथा को आज पूरे 350 साल हो गए। ये युद्ध 4 फरवरी 1670 को रात के समय पुणे के पास स्थित किले पर लड़ा गया था। इसकी अगुवाई मराठाओं की ओर से छत्रपति शिवाजी के सेनानायक तानाजी मालुसरे ने की थी। जबकि मुगलों की ओर से उदयभान राठौड़ ने अपनी फौज का नेतृत्व किया था। इस युद्ध को जीतने के लिए तानाजी मालुसरे ने अपने जिस साहस और शूरता का परिचय दिया था, वो इतिहास के पन्नों में आज भी दर्ज है। अभी बीते दिनों आज की पीढ़ी को इस महापराक्रमी योद्धा से मुखातिब कराने के लिए ‘तानाजी’ नाम की फिल्म भी बनी। जो पूर्ण रूप से सिंहगढ़ के युद्ध पर आधारित थी। इस फिल्म को देखने के बाद लोगों ने तानाजी का किरदार निभाने वाले अभिनेता अजय देवगन को खूब सराहा और बिना किसी तोड़-मरोड के इतिहास को बड़े पर्दे पर पेश करने के लिए फिल्म निर्देशक को धन्यवाद भी दिया।

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इस किले पर जहाँ आज टूरिस्टों की भीड़ जमा रहती है। लोग जहाँ बरसात और कोहरे का लुत्फ उठाने पहुँचते हैं। उसे आज से 350 साल पहले छत्रपति शिवाजी की खातिर मुगलों से जीतने के लिए तानाजी ने अपनी जान गवाई थी। उनकी मौत के बाद महाराज शिवाजी ने खुद कहा था कि भले ही उन्होंने इस किले को जीत लिया, मगर उन्होंने अपना शेर खो दिया। तानाजी की याद में ही महाराज ने इस किले का नाम कोंढाना से सिंहगढ़ किया था और इसके लिए लड़े गए युद्ध का नाम सिंहगढ़ युद्ध पड़ा था।

बताया जाता है कि छत्रपति शिवाजी महाराज ने जून 1665 में मुगलों से किए गए एक करार के तहत कोंढाणा समेत 22 किले उन्हें लौटा दिए थे। लेकिन इस संधि से वे काफी आहत थे। उनके मन में इसे लेकर एक टीस थी। नतीजतन एक दिन उन्होंने मुगलों के कब्जे से यह किला वापस लेने का निर्णय लिया। अब वैसे तो उनकी सेना में कई शूर सरदार थे, जो कोंढ़ाणा किले को जीतने के लिए जान की बाजी लगाने को तैयार थे। लेकिन इस मुहिम के लिए शिवाजी ने अपने विश्वसनीय तानाजी मालुसरे का चयन किया और अपना संदेश तानाजी तक पहुँचाया।

इस युद्ध को लड़ने के लिए छत्रपति के विश्वसनीय तानाजी मालुसरे ने अपने बेटे की शादी बीच में अधूरी छोड़ दी थी। महाराज के संदेशवाहक से संदेश मिलने के बाद उन्होंने ऊँची आवाज में कहा था, “पहले कोंढाणा दुर्ग का विवाह होगा, बाद में पुत्र का विवाह। यदि मैं जीवित रहा तो युद्ध से लौटकर विवाह का प्रबंध करूँगा। यदि मैं युद्ध में काम आया तो शिवाजी महाराज हमारे पुत्र का विवाह करेंगे।”

दुर्ग के लिए तानाजी ने अपने युद्ध कौशल और पराक्रम के बलबूते एक भीषण युद्ध लड़ा और लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए। महाराज को जब उनकी मृत्यु की खबर मिली और मालूम हुआ कि पुत्र का विवाह छोड़कर तानाजी केवल छत्रपति का आदेश सुनकर रणभूमि में उतरे, तो उन्हें प्रसन्नता के साथ दुख हुआ। इतिहासकारों के अनुसार, उन्होंने ये खबर सुनकर कहा था, “गढ़ आला पण सिंह गेला” अर्थात ‘गढ़ तो हाथ में आया, परंतु मेरा सिंह (तानाजी) चला गया।’ उसी दिन से कोंढाणा दुर्ग का नाम ‘सिंहगढ़’ हो गया।

इस युद्ध के 350 साल पूरे होने पर हमें ध्यान रखने की आवश्यकता है कि तानाजी द्वारा लड़ा गया ये युद्ध आम युद्ध नहीं था। क्योंकि ये किला लगभग 4,304 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। जिस तक पहुँचने के लिए तानाजी ने यशवंती नामक गोह प्रजाति की छिपकली का प्रयोग किया था।

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बताया जाता है देर रात किले पर चढ़ाई करने के लिए तानाजी ने अपने बक्से से यशवंती को निकालकर, उसे कुमकुम और अक्षत से तिलक किया था और किले की दीवार की तरफ उछाल दिया किन्तु यशवंती किले की दीवार पर पकड़ न बना पाई। फिर दूसरा प्रयास किया गया लेकिन यशवंती दुबारा नीचे आ गई। जिसके बाद तानाजी के भाई सूर्याजी व शेलार मामा ने इसे अपशकुन समझा। मगर, तब तानाजी ने कहा कि अगर यशवंती इस बार भी लौट आई, तो उसका वध कर देंगे और यह कहकर दुबारा उसे दुर्ग की तरफ उछाल दिया, इस बार यशवंती ने जबरदस्त पकड़ बनाई और उससे बंधी रस्सी से एक टुकड़ी दुर्ग पर चढ़ गई। अंत मे जब यशवंती को मुक्त करना चाहा तो पता चला कि यशवंती भी भारी वजन के कारण वीरगति को प्राप्त हो चुकी थी, किन्तु उसने अपनी पकड़ नही छोड़ी थी।

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इस दौरान तानाजी ने लगभग 2,300 फुट चढ़ाई की थी और मात्र 342 सैनिकों के साथ अंधेरी रात में किले पर धावा बोला था। बाद में उनके भाई सूर्याजी ने भी उनका साथ दिया था। किले को जीतने के लिए तानाजी और उनकी सेना ने उदयभान सिंह के लगभग 5,000 मुगल सैनिकों के साथ भयंकर युद्ध लड़ा था। मगर लंबे समय तक युद्ध चलने के पश्चात तानाजी को उदय भान ने मार दिया था और कुछ समय बाद मराठा सैनिक ने उदयभान को मारकर सिंहगढ़ के युद्ध की विजयगाथा को अमर किया था।