वेद-रामायण-महाभारत के भारतीय परम्पराओं वाले उत्तर-पूर्व को अंग्रेजों ने कैसे बनाया बर्बर और क्रूर

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भारत विश्व का सबसे विविधतापूर्ण राष्ट्र है जो भाषा, वेशभूषा, भोजन, पर्व, परंपरा आदि अनेक सांस्कृतिक एवं भौगोलिक विविधताओं का अद्भुत मिश्रण है। विविधता किसी भी राष्ट्र की समृद्धि व गौरवपूर्ण समावेशी इतिहास का सूचक है l फिर क्यों इस देश की विविधताओं पर प्रश्न उठा कर उनमें अलगाववाद का बीजारोपण किया जाता है? जिसमें मुख्य रूप से पूर्वोत्तर भारत को ही लक्षित किया जाता है। भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र (सम्प्रति असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा राज्यों का समूह) भौगोलिक, पौराणिक, ऐतिहासिक एवं सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।

प्राचीन ग्रंथों में पूर्व की पर्वत घाटियों एवं कन्दराओं के निवासी को “किरात” संज्ञा दी गई है। किरात शब्द संस्कृत की “कृ विक्षेपे” धातु से बना है जिसका अर्थ है विक्षिप्त अर्थात् टेड़ी मेडी गति वाला। पर्वत पहाड़ों के घुमावदार होने के कारण वहाँ के निवासियों की मैदानी भाग की भाँति सीधी गति न होकर विक्षिप्त गति होती है इसलिए पर्वत-कन्दरा के निवासी को किरात कहा गया। सर्वप्रथम यजुर्वेद में ‘किरात’ शब्द का प्रयोग मिलता है। सरोभ्यो धैवरम्उ पस्थावराभ्यो…..गुहाभ्य: किरातं सानुभ्यो जम्बकं पर्वतेभ्य: किम्पूरुषम्{यजु. (30.16)}। प्रस्तुत मन्त्र में बताया गया है कि देश की उत्तम व्यवस्था के लिए क्षेत्र-विशेषज्ञ के अनुसार ही व्यक्ति की नियुक्ति करनी चाहिए। ऋषि कहता है कि (गुहाभ्य:) पर्वत कंदराओं के लिए (किरातं) किरात को नियुक्त करें। इस प्रसंग में पर्वत-कंदराओं में नियुक्त व्यक्ति को किरात कहा गया है।

इसी प्रकार अथर्वेद {कैरातिका कुमारिका सका खनति भेषजम् — अथर्वेद (10/414)} में भी पर्वत के शिखरों पर औषधि का खनन करने वाली कन्या को भी कैरातिका (किरात की पुत्री) कहा है। इसके उपरांत शतपथ ब्राह्मण {11.4.14} और पंचविंश ब्राह्मण {13.1.2.3} में किरातों के विशिष्ट परिवारों के कुल के संकेत मिलते हैं, जिसके अनुसार वे इस क्षेत्र के मूल निवासी हैं। मनुस्मृति के अनुसार भी सरस्वती और दृषद्वती (ब्रह्मपुत्र) नदी के मध्य का भूभाग आर्यावर्त कहलाता है {सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदंतरम् ।- मनु. (2/17)} और इसके पूर्व में रहने वाला जनसमुदाय किरात कहलाता है जो गुण और कर्म के अनुसार क्षत्रिय है {शनकैस्तु क्रियालोपादिका: क्षत्रियजातय: । – मनु. (10/43)}

रामायण के किष्किन्धा काण्ड में जब राम सीता को खोज रहे हैं तब वे किरातों से भी मिलते हैं। इस प्रसंग में वाल्मीकि किरात जनसमुदाय के वैशिष्ट्य का वर्णन करते हैं कि किरात स्वर्ण वर्ण के, प्रियदर्शी हैं तथा अपने क्षात्र धर्म में तीक्ष्ण हैं {किराता: तीक्ष्ण चुडा: च हेमाभा: प्रियदर्शिना: । (4/40/27)}। महाभारत के सभा पर्व के अनुसार उस समय किरात वासुदेव पौंड्रक राजा के अधीन थे {वङ्ग पुण्ड्र किरातेषु राजा बलसमन्वितः, पौण्ड्रकॊ वासुदेवेति यॊ ऽसौ लॊकेअभिविश्रुतः । (14.20)}। विष्णु पुराण के अनुसार भी समुद्र के उत्तर से लेकर तथा हिमालय के दक्षिण तक का समग्र भूभाग भारत कहलाता था {उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् । वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः ।।}

विष्णु पुराण में प्राग्ज्योतिषपुर के राजा नरकासुर और श्री कृष्ण के युद्ध का वर्णन है । इस युद्ध में नरकासुर द्वारा नगर की रक्षार्थ तीक्ष्ण धार वाले पाशों के प्रयोग का उल्लेख किया गया है- ‘प्राग्ज्योतिषपुरस्यापि समन्ताच्छशतयोजनं, आचिता मौरवैः पाशैः क्षुरान्तैर्भूर्द्विजोत्तम:’ {विष्णु पुराण (5.29.16)}। ब्रह्म पुराण के अनुसार भी भारत के पूर्व में किरातों का निवास है {पूर्वे किराता यस्यान्ते पश्चिमे यवनस्थिताः}। कालिका पुराण में तो विस्तार से किरात और उनके निवास का वर्णन किया गया है। कालिकापुराण के अनुसार ब्रह्मा ने प्राचीन काल में यहाँ स्थित होकर नक्षत्रों की सृष्टि की थी। इसलिए इंद्रपुरी के समान यह नगरी प्राग् (पूर्व या प्राचीन) + ज्योतिष (नक्षत्र) कहलायी– ‘अत्रैव हि स्थितो ब्रह्मां प्राङ् नक्षत्रं समार्ज ह, ततः प्राग्ज्योतिषाख्येयं पुरी शक्रपुरी समा’

शास्त्रीय प्रमाणों के अनुसार इन किरात जनसमुदाय द्वारा शासित प्रदेश प्राग्ज्योतिष और कालान्तर में कामरूप कहलाता था जिसका वर्णन शतपथ ब्राह्मण, रामायण तथा महाभारत में उपलब्ध होता है। रामायण में किष्किन्धाकाण्ड में राम जब सीता को खोज रहे हैं तब उस प्रसंग में प्राग्ज्योतिष का उल्लेख मिलता है। सुग्रीव कहता है कि समुद्र के मध्य वराह नाम का 64 योजन का पर्वत है जिसके उत्तर में नरक राजा द्वारा शासित प्राग्ज्योतिष प्रदेश है, वहाँ की प्रत्येक गुहा में सीता को खोजना है {योजनानि चतु:षष्टि: वराहो नाम पर्वत: ।……रावण: सह वैदह्या मार्गितव्यस्तत्स्तत: । ।- किष्किन्धा. (4/42/30-32)}

महाभारत काल से पूर्वोत्तर का गहरा संबंध है। महाभारत के विख्यात योद्धा राजा भगदत्त पूर्वोत्तर भारत के थे {प्राग्ज्योतिषधिपो शूरो म्लेच्छानामधिपो बली}। पांडवों ने अपना अज्ञातवास इसी क्षेत्र में व्यतित किया था। महाभारत के सभापर्व में अर्जुन और किरात वेशधारी के मध्य युद्ध का उल्लेख है। इस प्रसंग के आधार पर ही संस्कृत के यशस्वी कवि भारवि ने अपने काव्य “किरातार्जुनीयम्” की रचना की है। महाभारत में विभिन्न प्रसंगों में प्राग्ज्योतिष का 20 से अधिक बार उल्लेख हुआ है। कामरूप-नरेश भगदत्त ने महाभारत के युद्ध में कौरवों की ओर से भाग लिया था।

महाभारत में भगदत्त को प्राग्ज्योतिष-नरेश भी कहा गया है– ‘तत: प्राग्ज्योतिषः क्रुद्धस्तोमरान् वै चतुर्दश, प्राणिहोततस्य नागस्य प्रमुखे नृपसत्तम {भीष्म पर्व (95.46)}। कालिदास ने रघुवंश में रघु द्वारा प्राग्ज्योतिष नरेश की पराजय का काव्यमय वर्णन किया है {चकम्पे तीर्णलौहित्येतस्मिन् प्राग्ज्योतिषेश्वर: तद्गजालानतां प्राप्तैः सहकालागुरुद्रुभैः। (4.81)}। दिग्विजय यात्रा के लिए निकले हुए रघु के लौहित्य या ब्रह्मपुत्र को पार करने पर प्राग्ज्योतिषपुर नरेश उसी प्रकार भयभीत होकर कांपने लगा जैसे उस देश के कालागुरु के वृक्ष जो रघु के हाथियों से बंधे थे।

ऐतिहासिक तथ्यों के अतिरिक्त आज भी पूर्वोत्तर का समाज अपने को रामायण-महाभारत के पात्रों का वंशज मानती हैं । अरुणाचल प्रदेश का मिश्मी समुदाय खुद को भगवान कृष्ण की पटरानी रुक्मिणी का वंशज मानता है। रुक्मिणी अद्यतन अरुणाचल के भीष्मकनगर की राजकुमारी थीं। इस प्रदेश के सियांग जिले में स्थित मालिनीथान और ताम्रेश्वरी मंदिर का संबंध श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणी से है। लोहित जिले में अवस्थित परशुराम कुंड एक प्रमुख तीर्थस्थल है जो भगवान परशुराम से संबंधित है। अरुणाचल में शिव मंदिर का वर्णन शिव पुराण के 17वें अध्याय के रुद्र खंड में आता है। आज अरुणाचल प्रदेश स्थित जीरो घाटी की करडा पहाड़ी पर सबसे बड़ा शिवलिंग है इतना विशाल शिवलिंग अभी तक कहीं और नहीं देखा गया है। धरती के ऊपर इसकी ऊंचाई 20 फीट है, जबकि इसका चार फीट हिस्सा धरती के नीचे है। कुल मिलाकर 24 फीट ऊंचा यह शिवलिंग आस्था का एक बड़ा केंद्र बन चुका है।

अद्यतन मेघालय की खासी पहाड़ी में रहने वाला जन समुदाय आज भी तीरंदाजी में प्रवीण है और वे तीरंदाजी करते समय यह अंगूठे का प्रयोग नहीं करता। क्योंकि उनका विश्वास है कि उनके पूर्वज ने अपना दाहिना अंगूठा गुरु दक्षिणा में दे दिया था, इसलिए तीर चलाते समय अंगूठे का उपयोग नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार नगालैंड के दीमापुर में रहनेवाली दिमाशा जन समुदाय खुद को भीम की पत्नी हिडिंबा का वंशज मानता है। वहाँ आज भी हिडिंबा का वाड़ा है, जहां राजवाड़ी में स्थित शतरंज की ऊँची-ऊँची गोटियाँ पर्यटकों के आकर्षण के केंद्र मानी जाती हैं। इन गोटियों से हिडिंबा और भीम का बाहुबली पुत्र घटोत्कच शतरंज खेलता था।

बोडो जन समुदाय खुद को सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा का वंशज तथा कार्बी आंगलंग में रहनेवाला कार्बी जन समुदाय स्वयं को सुग्रीव का वंशज मानता है। महाभारत काल में पूर्वोत्तर के राजवंशों के साथ वैवाहिक संबंधों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है । नगालैण्ड में नगा कन्या उलुपी से अर्जुन ने विवाह किया था। अर्जुन की दूसरी पत्नी चित्रांगदा को मणिपुर के ही मैतेयी समाज का माना जाता है। असम का तेजपुर नगर (महाभारतकालीन शोणितपुर) श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध और बाणासुर की पुत्री ऊषा के प्रेम का साक्षी है।

महाभारत के बाद इनका पहला उल्लेख समुद्रगुप्त द्वारा प्रयाग में स्थापित पाषाण स्तम्भ पर उल्लिखित शिलालेख पर मिलता है {समतट-डवाक-कामरूप-नेपाल-कर्त्तृपुरादि-प्रत्यन्त-नृपतिभिर्म्मालवार्जुनायन-यौधेय-माद्रकाभीर-प्रार्जुन-सनकानीक-काक-खरपरिकादिभिश्च5 सर्व्व-कर -दानाज्ञाकरण-प्रणामागमन}। जिसमें कामरूप को गुप्त साम्राज्य के अधीन बताया गया है। महाभारतोत्तर प्राग्ज्योतिष/कामरूप जिसे आज पूर्वोत्तर के नाम से जाना जाता है, में तीन अलग अलग वंशों ने शासन किया- वर्मन वंश, मलेच्छ वंश और पाल (या भौम पाल) वंश। तीनों वंशों के राजा नरकासुर से अपना रिश्ता जोड़ते थे और इसी आधार पर राजा की पदवी पर अधिकार करते थे।

असम में मिले शिलालेखों के अनुसार वर्मन वंश के विभिन्न राजाओं ने बड़ी तीव्रता से कामरूप का विस्तार किया। राजा भूतिवर्मन द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने का भी उल्लेख है। कई वर्षों तक एक सशक्त राज्य के निर्माण और विस्तार के पश्चात् वर्मन वंश पर गौर राजा का आक्रमण हुआ जिसमें वे परास्त हुए और कुछ समय के लिए गौर वंश के अधीन हुए। परन्तु भूतिवर्मन के छोटे बेटे राजा भास्करवर्मन ने थानेसर के राजा हर्षवर्धन से मित्रता की और संयुक्त आक्रमण से गौर राजा शशांक पर विजय पायी।

इतिहासकार विलक्षण महाकवि कल्हण ने महाभारत युद्ध से कश्मीर की क्षात्र-परम्परा को काव्य की विषय वस्तु बनाकर ‘राजतरंगिणी’ में क्रमबद्ध विशद वर्णन किया है। जिसका रचना काल 10 वीं से 12 वीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। कश्मीर का सम्बन्ध उस समय पूर्वोतर भारत से था। कश्मीर के राजकुमार का विवाह कामरुप की राजकन्या के साथ हुआ था। 8 वीं शताब्दी में कश्मीर के राजा ललितादित्य ने स्त्री-राज्य (मेघालय) तथा प्राग्ज्योतिष तक अपने राज्य का विस्तार किया था। उस समय प्राग्ज्योतिषपुर वर्मन वंश के कामरूप राज्य की राजधानी थी जो सम्प्रति गोहाटी (असम) है। मूल्यवान कालागुरु अर्थात् अगुरु या अगर के लिए सर्वोत्तम अनुकूल मौसम उत्तर पूर्व भारत का क्षेत्र है जो असम में प्राकृतिक रूप से बहुलता में उपलब्ध होते हैं। अगुरु का प्रयोग सुगन्धित इत्र, धूपधूम आदि बनाने में किया जाता है। जिसका वर्णन कल्हण ने भी किया है {शून्ये प्राग्ज्योतिषपुरे निर्जिहानं ददर्श सः । धूपधूमं वनप्लुष्टात्कालागुरुवनात्परम् । । (4. 171)}

ललितादित्य उसके बाद ‘स्त्री राज्य’ पहुँचते हैं । स्त्री राज्य से अभिप्राय अद्यतनीय मेघालय है । प्राचीन असम का वर्णन करते हुए Calcutta Review {H. Lyngdoh, Introduction, pp. X-XI.} में भी H. Lyngdoh {Homiwell Lyngdoh, 1877-1958, Khasi physician, political leader, and social activist} लिखते हैं कि असम में Hieun Tsang के भ्रमण के समय कश्मीर के राजा ललितादित्य ने जैन्तिया साम्राज्य पर आक्रमण किया जिसे स्त्री राज्य कहतें हैं तथा पद्म श्री से सम्मानित असम इतिहासकार ‘सूर्य कुमार भुयान’ {Studies in the History of Assam, Laksheswari Bhuyan, 1965 के आधार पर} (1894–1964) के अनुसार अनेक इतिहासकारों का मानना है कि ‘स्त्री राज्य’ का अभिप्राय वर्त्तमान मेघालय के खासी और जयंती के मातृवंशीय समाज से है।

कल्हण तत्कालीन ‘स्त्री-राज्य’ का वर्णन करते हुए कहते हैं कि ललितादित्य की सेना को ‘स्त्री राज्य’ के मतवाले हाथियों के मस्तकों ने नहीं अपितु स्त्री-सौन्दर्य ने ही निष्प्रभ कर दिया, परन्तु स्त्री-राज्य की रानी ने ललितादित्य के प्रताप-भय से कांपते हुए समर्पण कर दिया {तद्योधान्विगलद्धैर्यान्स्त्रीराज्ये स्त्रीजनोऽकरोत् । तुङ्गौ स्तनौ पुरस्कृत्य न तु कुम्भौ कवाटिनाम् । । स्त्रीराज्यदेव्यास्तास्याग्रे वीक्ष्य कम्पादिविक्रियाम् । संत्रासमभिलाषं वा निश्चिकाय न कश्चन । । (4. 173-174) }। ललितादित्य ने अपने शासनकाल में व्यापार, चित्रकला, मूर्तिकला धार्मिक उत्सवों को महत्व दिया। अतः कलाप्रिय ललितादित्य ने विजयोपरांत अपनी विजय के चिह्न के रूप में उस विजित प्रदेश में मंदिर या मूर्ति आदि का निर्माण भी कराया था। स्त्री-राज्य (मेघालय) में भी नृसिंह भगवान की विलक्षण चुम्बकीय निराधार विलक्षण मूर्ति स्थापित की {एकमूर्ध्वं नयद्रत्नमधः कर्षत्तथापरम् । बद्ध्वा व्यधान्निरालम्बं स्त्रीराज्ये नृहरिं च सः । । (4. 185)}

उपरोक्त वैदिक, ऐतिहासिक,पौराणिक आख्यानों, अभिलिखों, शिलालेखों, भग्नावशेषों, लोकमान्यताओं एवं प्रादुर्भूत हुए इन शिवलिंगों को देखकर यह सिद्ध होता है कि पूर्वोत्तर भारत सदियों से भारतवर्ष का ही अभिन्न अंग है। इस क्षेत्र के साथ भारतीय संस्कृति के सूत्र हजारों वर्षों से गूँथे हैं। पूर्वोत्तर भारत इस देश की भौगोलिक तथा सांस्कृतिक विविधता में एकत्व का एक अनुपम उदाहरण है। यह विविधता यहां के प्राकृतिक सौन्दर्य एवं जन-जीवन में सहज रूप से दृष्टिगोचर होती है। यह क्षेत्र 1947 तक मुख्य रूप से असम एवं बंगाल क्षेत्र में विभाजित था। देश-विभाजन के पश्चात् तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के उत्तरी एवं पूर्वी क्षेत्र में असम एवं कुछ अन्य क्षेत्रों से अलग होकर धीरे-धीरे कालान्तर में असम, मेघालय, नागालैण्ड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा तथा अरुणाचल प्रदेश इन सात राज्यों का गठन हुआ।

वर्तमान में भारत का यह क्षेत्र बांग्लादेश, भूटान, चीन, म्यांमार और तिब्बत- इन पांच देशों की अंतरराष्ट्रीय सीमा से संलग्न है। यह क्षेत्र अपने गौरवशाली इतिहास, समृद्ध संस्कृति, भाषा, परंपरा, रहन-सहन, पर्व-त्योहार आदि की दृष्टि से इतना वैविध्यपूर्ण है कि इस क्षेत्र को भारत की सांस्कृतिक प्रयोगशाला कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा। असंख्य भाषाएं व बोलियाँ, भिन्न-भिन्न प्रकार के रहन-सहन, खान-पान और परिधान, आध्यात्मिकता तथा नैसर्गिक सौन्दर्य के कारण यह क्षेत्र अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। जैव-विविधता, सांस्कृतिक कौमार्य, सामुहिकता-बोध, प्रकृति-प्रेम, अपनी परंपरा के प्रति सम्मान भाव पूर्वोत्तर भारत की अद्वितीय विशेषताएँ हैं।

पौराणिक और सांस्कृतिक दृष्टि से पूर्वोत्तर भारत का शेष भारत से गहरा संबंध है परंतु शेष भारतवासी अल्प संपर्क होने के कारण इस क्षेत्र की विशिष्टताओं से अनभिज्ञ हैं अथवा वे भ्रांत धारणाओं से ग्रस्त हैं। अंग्रेजों की औपनिवेशिक, विभाजनकारी तथा जनजातीय नीतियों और ईसाई शिक्षा ने पूर्वोत्तर क्षेत्र में अलगाववाद और उग्रता का बीजारोपण किया तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त उसको निरंतर उपेक्षित किया गया। आज भी अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो नीति’ को मजबूत करने वाली मैकॉले की शिक्षा पद्धति में अलगाववादी शिक्षा दी जाती है कि इस क्षेत्र की सभी जनजातियां मंगोल हैं, वे क्रूर जंगली तथा हिंसक हैं। परन्तु उनमें प्रचलित अनेक रीतियाँ, लोक-मान्यताएँ, जीवन-मूल्य तथा परम्पराएँ शेष भारत की परम्पराओं से लेशमात्र भी अलग नहीं हैं।

अंततः इन सब तुच्छ नीतियों ने पूर्वोत्तर के अधिकांश क्षेत्र को अलगाव की आग में झोंक दिया और उग्र रूप धारण किए इस अलगाववाद की जड़ें बहुत गहराई तक फैल गई हैं। सौभाग्य से इस समय भारत सरकार की ‘एक्ट ईस्ट नीति’ के क्रियान्वयन से आशा बढ़ी है। जिससे सांस्कृतिक आधार पर भारत के सुदूर प्रांतों-पूर्वोत्तर में समरसता, आत्मीयता बढ़ेगी। भारत के पड़ोसी देशों के साथ सुदृढ़ सम्बंधों का आधार भी यही होगा। इतना ही नहीं, भारत विश्व में न केवल आर्थिक या सामरिक बल्कि विश्व बन्धुत्व तथा विश्व कल्याण की उच्चतम सांस्कृतिक भावना को सशक्त, सुदृढ़ तथा सुसंगठित करेगा।

लेखिका: डॉ सोनिया (सहायकाचार्या, संस्कृत विभाग), हिन्दू महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय

डॉ. सोनिया अनसूया: Studied Sanskrit Grammar & Ved from traditional gurukul (Gurukul Chotipura). Assistant professor, Sanskrit Department, Hindu College, DU. Researcher, Centre for North East Studies.