पिस्तौल वाले साधु, जिन्होंने चीनी सेना की जानकारी भारत को दी: 15 साल अकेले हिमालय में भटके, पाकिस्तानियों पर भी रखी नजर

पिस्तौल वाले साधु, जिन्होंने भारत के लिए की जासूसी (प्रतीकात्मक फोटो, साभार: thepaperclip)

आप फिल्मों या वेब सीरीज में जासूसों के किरदार देख बहुत रोमांचित होते होंगे! कारण भी बड़ा सिंपल है – जासूसों को काफी स्टाइलिश और तेज तर्रार दिखाया जाता है। दूरदर्शन पर हालाँकि ब्योमकेश बख्शी जैसे सीधे-साधे जासूस के किरदार ने भी काफी शोहरत हासिल की थी। आज की कहानी लेकिन फिल्मी या टीवी सीरियल से एकदम अलग है। हम आपको आज जिस जासूस के बारे मेंं बताने जा रहे हैं, वो इन फेमस किरदारों से काफी अलग थे। नाम है – स्वामी प्रणवानंद (Swami Pranavananda)

स्वामी प्रणवानंद ने अपने कौशल से देश को हिमालयी सीमा के पास चीन और पाकिस्तान से जुड़ी गतिविधियों के बारे में जानकारी दी। इसके साथ ही हिमालय क्षेत्र की कई अबूझ पहेलियों को सुलझाया और वहाँ किए गए उनके प्रमाणिक शोध को भारतीय पुरातात्विक विभाग ने भी स्वीकार किया, उसे मान्यता दी।

महानायक स्वामी प्रणवानंद को भारतीय इतिहास में वो जगह नहीं मिली, जिसके वे हकदार थे। स्वामी प्रणवानंद का जन्म 1896 में आंध्र प्रदेश के पश्चिमी गोदावरी जिले के एक छोटे से गाँव में हुआ था। उनके बचपन का नाम कनकदंडी वेंकट सोमयाजुलु (Kanakadandi Venkata Somayajulu) था। अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद, उन्होंने लाहौर में दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज में दाखिला लिया। अब इसे सरकारी इस्लामिया कॉलेज के रूप में जाना जाता है। कॉलेज में पढ़ाई पूरी करने के बाद वह लाहौर में ही रेलवे के अकाउंटेंट ऑफिस में काम करने लगे।

कनकदंडी वेंकट सोमयाजुलु बाद में 1920 में महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। वह 1926 तक आंध्र प्रदेश के अपने जिले पश्चिम गोदावरी में कॉन्ग्रेस पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता बने रहे। उनके जीवन में महत्वपूर्ण बदलाव तब आया, जब वह स्वामी ज्ञानानंद से मिले। स्वामी ज्ञानानंद उस दौर में भारत के प्रमुख परमाणु भौतिक शास्त्रियों में से एक थे। स्वामी ज्ञानानंद से ही उन्हें हिमालय के बारे में जानकारी मिली और उनका रुझान उस क्षेत्र को जानने को हुआ। ऋषिकेश में उन्हें नया नाम मिला और वह स्वामी प्रणवानंद कहलाए।

प्रणवानंद ने अपनी पहली हिमालय यात्रा 1928 में की। इस दौरान वह कश्मीर और कैलाश मानसरोवर क्षेत्र गए। इसके बाद वह 1935 से 1950 तक हर साल वहाँ जाते रहे। अपनी यात्राओं के दौरान उन्होंने खनिज विज्ञान, भूविज्ञान, जलवायु, पक्षीविज्ञान जैसी विविध विषयों के बारे में जानकारी इकट्ठी की। उन्होंने इस क्षेत्र की हाइड्रोग्राफी में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्रणवानंद ने ही बताया था कि सिंधु, ब्रह्मपुत्र, सतलुज और करनाल नदियों के अलग-अलग उद्गम स्थल हैं। इससे पहले लोगों का मानना था कि ये सभी कैलाश पर्वत के पास मानसरोवर झील से उत्पन्न होती हैं। उनके निष्कर्षों को 1941 के बाद से सर्वे ऑफ इंडिया ने अपने सभी मानचित्रों में शामिल किया।

स्वामी प्रणवानंद द्वारा इस्तेमाल की गई वस्तुएं (फोटो साभार-द पेपर क्लिप)

असहयोग आंदोलन के दौरान प्रणवानंद की सक्रियता और ऊपरी हिमालयी क्षेत्रों में उनके मौलिक शोध को भारत सरकार ने मान्यता दी और भारत की आजादी के बाद उन्हें स्वतंत्रता सेनानी पेंशन मिलने लगा। स्वामी प्रणवानंद ने 1950 और 1954 के बीच कैलाश मानसरोवर क्षेत्र का दौरा जारी रखा, जबकि यह क्षेत्र माओ के नेतृत्व वाले कम्युनिस्ट चीन की सेना के कब्जे में आ गया था। माना जाता है कि वह एक गुप्त एजेंट के रूप में भारत के लिए काम कर रहे थे। इस दूरस्थ क्षेत्र में चीनी सैन्य उपस्थिति के बारे में मूल्यवान डेटा प्रदान करने के अलावा स्वामी प्रणवानंद ने पाकिस्तान की जासूसी गतिविधियों और पश्चिमी देशों से संबद्ध ईसाई मिशनरी एजेंटों के बारे में लगभग 4000 पृष्ठों की जानकारी भी एकत्र की थी।

कैलाश पर्वत के आसपास का क्षेत्र लुटेरों के लिए कुख्यात था। उन्हें डराने के लिए स्वामी प्रणवानंद हमेशा अपने पास 0.25 बोर की रिवॉल्वर रखते थे। बाद में उन्होंने 0.30 माउजर पिस्तौल रखना शुरू कर दिया था। इसे हालाँकि उन्होंने चीन के साथ 1962 के युद्ध के दौरान रक्षा कोष में दान कर दिया था। माना जाता है कि चीनी ख़ुफ़िया एजेंटों को उनके बारे में पता चल गया था, जिसके बाद वह 1955 में उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिला आ गए थे।

स्वामी प्रणवानंद (Swami Pranavananda) को 1976 में भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म श्री से सम्मानित किया गया था। 1980 में वे अपने राज्य आंध्र प्रदेश वापस चले गए और अपने गाँव में एक छोटा सा मंदिर बनाया। 1989 में हैदराबाद में 93 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया