सिंह चला गया लेकिन ‘माँ’ को सिंहगढ़ दे गया: बेटे की शादी छोड़ छत्रपति के लिए युद्ध करने वाले तानाजी

मराठा योद्धा तानाजी का किरदार फ़िल्म में देवगन निभा रहे हैं

उमराठे के सूबेदार अपने बेटे की शादी की तैयारी में लगे हुए थे। आसपास के लोग और सूबे की जनता उत्साहित थी। पूरा परिवार उत्साहित था और माहौल ख़ुशनुमा था। तभी एक संदेशवाहक वहाँ पहुँचा। सन्देश था कि महाराज ने 12,000 लोगों के साथ आपको बुलाया है। आपको राजगढ़ पहुँचना है, जितनी जल्दी हो सके। बेटे की शादी को टाल दिया गया। सूबेदार ने तुरंत 12,000 लोगों को जुटाया और युद्ध के लिए निकल पड़े। हँसिया और लाठियों से लैस सेना लेकर चल पड़े राजगढ़। भारत के इतिहास में देश और मातृभूमि के प्रति ऐसा समर्पण दिखाने वाले काफ़ी कम लोग रहे हैं। यही सूबेदार थे- तानाजी। वही तानाजी, जिन्होंने छत्रपति शिवाजी के आदेश के अनुसरण के लिए अपने बेटे की शादी को टाल दिया।

दरअसल, शिवाजी जब सोच रहे थे कि सिंहगढ़ के किले को कैसे जीता जाए, तब उन्हें अपने पुराने विश्वस्त तानाजी का ख़्याल आया। तानाजी के नाम मन में आते ही उन्होंने तुरंत बुलावा दे भेजा। और तानाजी, देश के लिए बिना कुछ सोचे-समझे निकल पड़े, छत्रपति का जो आदेश था। जब वो अपनी सेना लेकर राजगढ़ जा रहे थे, तब रास्ते में ताम्बट पक्षी भी उनके ऊपर से उड़ रहा था। लोगों ने इसे एक अपशकुन माना। उनके चाचा शेलार ने उन्हें आगाह किया कि इस पक्षी का दिखना सही नहीं है और ये एक अपशकुन की निशानी है। हालाँकि, तानाजी ने हँसते हुए उनकी बात को टाल दिया।

जब हज़ारों सैनिकों का जत्था राजगढ़ पहुँचा तो वहाँ के लोगों को लगा कि मुग़ल फ़ौज़ आ गई। ख़ुद महारानी जीजाबाई को भी ऐसा ही लगा और उन्होंने शिवाजी से कहा कि युद्ध की तैयारी करनी चाहिए। हालाँकि, शिवाजी ने जैसे ही अपना ध्वज देखा, उन्होंने भाँप लिया कि तानाजी पहुँच गए हैं। तानाजी ने आते ही शिवाजी से शिकायत करने के अंदाज़ में कहा कि उन्हें अपने बेटे की शादी टाल कर यहाँ आना पड़ा, ऐसी भी क्या बात हो गई अचानक से। छत्रपति ने जीजाबाई की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि ये मेरा बुलावा नहीं था, महारानी का था। तानाजी उनके पुराने दोस्त थे, कभी-कभी छत्रपति को कठोर बातें भी कह दिया करते थे।

महारानी जीजाबाई ने तो सबसे पहले भवानी का आशीर्वाद लिया। उन्होंने माता को धन्यवाद दिया, जिनकी कृपा से तानाजी वहाँ पर पहुँचे। जीजाबाई ने प्यार से तानाजी को आशीर्वाद दिया और उन्हें अपने बच्चे की तरह पुचकारा। तानाजी हतप्रभ रह गए। उन्होंने तुरंत अपनी पगड़ी निकाल कर जीजाबाई के क़दमों में रख दिया और कहा कि माँ, आपको जो भी चाहिए वो बोलो क्योंकि आपका ये बेटा उसे लाकर देगा। जीजाबाई ने कहा कि उन्हें बस सिंहगढ़ पर विजय चाहिए। जीजाबाई ने तानाजी को अपना दूसरा बेटा और शिवाजी का छोटा भाई तक बता दिया। तानाजी भावुक हो उठे।

अजय देवगन अभिनीत फ़िल्म ‘तानाजी’ का ट्रेलर

महारानी जीजाबाई एक माँ थीं और उन्हें लगता था कि कहीं सिंहगढ़ में युद्ध के चक्कर में उनके बच्चे, तानाजी और उनकी सेना, कहीं भूखे न रह जाएँ। उन्होंने रास्ते के लिए भोजन दिया, जिसमें से वो सभी खाते। कहते हैं, जब वो खाते थे तो ख़ुद माँ भवानी उन्हें परोसने हेतु आती थीं। जीजाबाई ने हथियार और कपड़े देकर तानाजी और पूरी सेना को सिंहगढ़ के लिए विदा किया। तानाजी भी पक्के रणनीतिकार थे। उन्होंने गाँव के किसी धनवान व्यक्ति जैसी वेशभूषा बनाई और घने जंगलों से होते हुए दुश्मन के इलाक़े में पहुँचे। वहाँ कोली समुदाय के कुछ लोगों ने उन्हें बँधक बना लिया।

तानाजी ने उन्हें विश्वास दिलाया कि वो जंगल में एक शेर के आक्रमण से बच कर वहाँ शरण लेने आए हैं। कुछ ही देर बाद उन्होंने अपने साथ लाई सुपारी की खेप व अन्य वस्तुओं से उन लोगों का दिल जीत लिया। उन्होंने कोलियों को बताया कि वो छत्रपति शिवाजी की सेना के योद्धा हैं और उनसे किले के बारे में जानकारियाँ माँगीं। कोलियों का दिल जीतने के लिए उन्होंने उनमें आभूषण भी बाँटे। कोलियों ने उन्हें सब कुछ बताया। सिंहगढ़ वहाँ से 6 मील की दूरी पर था। सिंहगढ़ को जीतना इतना आसान नहीं था।

सिंहगढ़ की रखवाली करता था- उदयभान। वो ख़ुद एक बड़ा लड़ाका था। उसके अलावा 1800 पठान लगातार निगरानी में लगे रहते थे। अरबों की एक सेना भी वहाँ मौजूद रहती थी। ऐसे में, सिंहगढ़ को जीतना कोई आसान कार्य नहीं था। एचएस सरदेसाई अपनी पुस्तक ‘Shivaji, the Great Maratha‘ में लिखते हैं कि उदयभान भोजन में गाय और भेंड़ का माँस खाता था। उसकी 18 बीवियाँ थीं। उसके हाथी का नाम चन्द्रावली था, जो युद्ध के दौरान दुश्मन को रौंदने में हिंचकता भी नहीं था। उदयभान का सेनापति था सीदी हिल्लाल, जो उदयभान की तरह ही गायों और भेंड़ों का माँस खाया करता था। उसकी 9 बीवियाँ थीं। उदयभान के 12 बेटे भी थे, जो अपने पिता से ज़्यादा ताक़तवर थे।

कोलियों ने तानाजी को कुछ रणनीति भी बताई, जिसके बाद तानाजी ने उन्हें वापस लौटने पर इनाम देने का वादा किया। उसी रात तानाजी और उनकी सेना ‘कल्याण गेट’ पर पहुँची, जहाँ से उन्होंने अपने कुछ विश्वस्त सिपाहियों को अंदर जाने को कहा। कुछ ही देर बाद तानाजी के भाई सूर्या हज़ारों सैनिकों के साथ अंदर घुस गए। युद्ध हुआ और तानाजी की विजय हुई। तुरंत ही किले पर से आक्रांताओं का झंडा उखाड़ फेंका गया और वहाँ शिवाजी का भगवा ध्वज लहराने लगा। मराठा साम्राज्य के अधिपति छत्रपति शिवाजी का भगवा महाध्वज। पाँच तोपों की सालामी में साथ घोषित किया गया कि शिवाजी ने सिंहगढ़ के किले को जीत लिया है।

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लेकिन मराठा साम्राज्य ने इस युद्ध की क़ीमत चुकाई थी। वो क़ीमत थी- तानाजी की जान। तानाजी अद्भुत वीरता का प्रदर्शन करने के बाद ज़िंदा नहीं बचे। उन्होंने वीरगति प्राप्त की। लेकिन हाँ, एक माँ को किया हुआ वादा उन्होंने निभाया। शिवाजी ने अपने पुराने दोस्त और एक विश्वस्त योद्धा की मृत्यु का समाचार सुनते ही कहा- “सिंहगढ़ तो आ गया लेकिन सिंह चला गया।” तानाजी के भाई सूर्याजी को उस किले का स्वामी बनाया गया। सूर्याजी ने बाद में अपनी वीरता का प्रदर्शन कर के पुरंदर के किले को भी जीत लिया।

तानाजी, जिन्होंने अपनी माँ की इच्छा पूरी करने के लिए अपनी जान दे दी। लेकिन हाँ, मरते-मरते वो अपनी माँ से किया वादा निभा गए। माँ और मातृभूमि के लिए ऐसे समर्पण को प्रदर्शित कर वो वीरगति को प्राप्त हुए। ये कहानी हर भारतवासी के हृदय में होनी चाहिए।

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अनुपम कुमार सिंह: चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.