कुनो नेशनल पार्क में चीतों की मौत असामान्य नहीं: आबादी बढ़ने से पहले घटेगी, 200+ चीतों की मौत का उदाहरण दे एक्सपर्ट्स ने बताई वजह

कुनो नेशनल पार्क में चीता (AI की मदद से तैयार तस्वीर)

नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से भारत लाए गए 20 चीतों में से अब तक 6 की मौत हो चुकी है। इनके अलावा भारत में जन्म लेने वाले 4 शावकों में से तीन की मौत हो चुकी है। इस तरह से भारत में अब तक 9 चीतों की मौत हो चुकी है। ये संख्या अभी और भी बढ़ सकती है, क्योंकि ये ‘असामान्य’ नहीं है। चीतों की मौत ‘असामान्य’ नहीं किसी मीडिया रिपोर्ट के हवाले से नहीं है बल्कि एक्सपर्ट्स की राय है।

भारत की जलवायु में चीतों का सर्वाइव करना उनके लिए गंभीर चुनौती है। ऐसे में जो एक्सपर्ट्स इन चीतों की देखरेख कर रहे हैं, चाहे वो भारत के हों या दक्षिण अफ्रीका के या फिर नामीबिया के, सभी का एक स्वर में कहना है कि अफ्रीकी महाद्वीप से यहाँ तक पहुँचे 20 चीतों में से 5 से 7 भी बच जाएँ तो ये बड़ी सफलता है।

चीतों की आबादी बढ़ने से पहले घटेगी

इस बारे में न्यूज18 के लिए सृष्टि चौधरी ने दक्षिण अफ्रीकी और नामीबियाई एक्सपर्ट्स से बातचीत कर एक रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि जब 1966 में दक्षिण अफ्रीका में चीतों को बसाया जा रहा था, जब भी बड़ी संख्या में चीते मरे थे। इस प्रक्रिया को पूरा करने में 26 साल लगे थे और 200 से ज्यादा चीतों की मौत हो गई थी।

भारत में ये संख्या कम हो सकती है, क्योंकि उसके हिसाब से बेहतर प्लानिंग की गई है, लेकिन दूसरी तरफ दिक्कत जलवायु परिवर्तन और चीतों के जेनेटिक से जुड़ी है। पिछले एक माह में जिन 3 चीतों की मौत हुई हैं, उसमें से 2 की मौत इन्फेक्शन के चलते हुई है। ये इन्फेक्शन संभवत: उनके गले में बंधे कॉलर में होने की वजह से हो सकता है।

चीते की मौत के पीछे जेनेटिक समस्या भी हो सकती है। नामीबिया और दक्षिण अफ्रीकी की जलवायु के हिसाब से वहाँ पले-बढ़े चीतों के जेनेटिक आधार पर बाल बढ़ जाते हैं। वहाँ के हिसाब से अप्रैल-मई का महीना शुष्क होता है और ठंड का मौसम होता है, लेकिन भारत में ये गर्मी का मौसम होता है। ऐसे में उनके बढ़े बालों की वजह से भी दिक्कत आई लगती है।

दक्षिण अफ्रीका-नामीबिया में दुनिया के 40% चीते

दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया में दुनिया के 40 प्रतिशत चीते रहते हैं। अकेले दक्षिण अफ्रीका में 60-70 चीते हर साल बढ़ते हैं। लेकिन भारत में चीतों का असली प्रजनन साल 2024 से शुरू हो सकता है, जिनके बचने की उम्मीद ज्यादा होगी।

अभी मादा चीता यहाँ के मौसम के हिसाब से खुद को ढालने में समय ले रही हैं। जिन चार शावकों का जन्म भारत में हुआ और उनमें से सिर्फ एक ही बचा है, एक्सपर्ट्स का कहना है कि वो बचा शावक खुद को भारत के हिसाब से ढाल लेगा, ये कहना अभी जल्दबाजी है। लेकिन साल 2024 में या उसके बाद जन्म लेने वाले शावकों के बचने की उम्मीद कहीं ज्यादा होगी।

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एक्सपर्ट्स की सलाह

भारत में ‘प्रोजेक्ट चीता’ से जुड़े एक्सपर्ट्स का कहना है कि अब सरकार को कुनो नेशनल पार्क से आगे बढ़कर सोचना होगा। क्योंकि वो इलाका छोटा है। चीतों को आजाद माहौल देने के लिए हमें 8,000-10,000 वर्गमील तक की जगह बनानी होगी। अभी तक खुले पार्क में चीतों की आबादी बढ़ाने में किसी को भी सफलता नहीं मिली है।

कुनो नेशनल पार्क के अलावा भारत सरकार को मध्य प्रदेश के ही गाँधी सागर वाइल्ड लाइफ सैंक्चुअरी और राजस्थान के मुकुंदरा हिल्स नेशनल पार्क की तरफ भी देखना होगा। दोनों ही जगह नियंत्रित हैं। यहाँ बड़ी संख्या में हिरन, चीतल, बारहसिंघा जैसे जानवरों का बसेरा है, जिनकी उपस्थिति बड़े शिकारी जीवों के लिए आदर्श स्थिति की तरह है।

अभी कुनो में कैसे जी रहे चीते?

कुनो नेशनल पार्क अफ्रीका महाद्वीप से लाए गए चीतों के लिए आदर्श साबित हो रहा है। कुछ मौकों को छोड़कर अधिकतर चीते खुद से शिकार करके अपना पेट भर रहे हैं और धीरे-धीरे वो कुनो नेशनल पार्क के अभ्यस्त हो रहे हैं।

कुछ समय पहले हालाँकि धात्री नाम की मादा बाघिन की मौत हो गई थी। उसकी मौत की वजह संबंध बनाते समय नर चीते का हिंसक हो जाना था। ये एक सामान्य प्रक्रिया है। मादा चीते नर चीतों के संपर्क में सिर्फ प्रजनन के लिए ही आती हैं, उस समय नर चीते अक्सर हिंसक भी हो जाते हैं। दुनिया भर में मादा चीतों के मारे जाने की ये बड़ी आम समस्या सी है।

दक्षिण अफ्रीका-नामीबिया से आएँगे करीब 100 चीते?

एबीसी न्यूज के मुताबिक, भारत में अगले 10 सालों तक चीतों को दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया से लाया जाता रहेगा। इनकी संख्या 100 तक हो सकती है। क्योंकि चीतों को जितनी ज्यादा संख्या में लाया जाएगा, उतनी ही तेजी से इन्हें जीने और प्रजनन के लिए तैयार किया जा सकेगा।

जितने चीते भारत आएँगे, इसमें से बड़ी संख्या में मौत भी होंगी, लेकिन भारत में प्रजनन की प्रक्रिया बढ़ने के बाद करीब एक दशक में इनकी संख्या बढ़ने लगेगी। उम्मीद जताई जा रही है कि भारत का ये प्रोजेक्ट पूरी दुनिया में उदाहरण बनेगा।

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया