103 बुद्धिजीवियों ने लिखा CJI को पत्र, प्रशांत भूषण मामले में दबाव बनाने वाले समूहों की भूमिका पर उठाए सवाल

प्रशांत भूषण (साभार: द हिंदू)

देश की सबसे बड़ी अदालत ने प्रशांत भूषण अवमानना के मामले में दोषी करार दिया था। इस मामले पर ‘Campaign for Judicial Accountability and Reforms (CJAR)’ ने टिप्पणी की थी। टिप्पणी में CJAR ने सर्वोच्च न्यायालय को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने की बात कही गई थी। 103 बुद्धिजीवियों ने इस टिप्पणी की कड़ी आलोचना की है और CJAR के इस नज़रिए पर असहमति जताई है। इन 103 लोगों में उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश, पूर्व आईएएस-आईपीएस अधिकारी और सेना के पूर्व अधिकारी भी शामिल हैं।     

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि प्रशांत भूषण के आरोप व्यक्तिगत नहीं, बल्कि देश की एक अहम संस्था पर थे। इस निर्णय पर टिप्पणी करते हुए CJAR ने प्रशांत भूषण का समर्थन किया था। इसके अलावा उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की आलोचना भी की थी। 15 अगस्त को CJAR की तरफ से जारी किए बयान की आलोचना करने वाले बुद्धिजीवी समूह में भी कई दिग्गज नाम शामिल थे।    

इसमें मुंबई उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश केआर व्यास, पूर्व विदेश सचिव अमर सिन्हा, पंजाब के पूर्व मुख्य सचिव सर्वेश कौशल और अन्य शामिल थे। इस 103 लोगों के समूह ने कहा, CJAR के दावे से ऐसा लग रहा है जैसे वह सिविल सोसायटी के इकलौते प्रतिनिधि हैं। उनके अलावा दूसरे किसी को संविधान और लोकतंत्र की चिंता ही नहीं है। इसके अलावा 103 लोगों के समूह ने कहा ऐसा करने के पीछे राजनीतिक एजेंडे के अलावा कोई और वजह नहीं है।    

प्रशांत भूषण के मामले को सिर्फ एक राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे सिर्फ और सिर्फ संसद, चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय जैसे लोकतांत्रिक संस्थाओं की गरिमा को ठेस पहुँचती है।    

103 लोगों के समूह द्वारा लिखी गई चिट्ठी (साभार – टाइम्स ऑफ़ इंडिया)

समूह ने लिखा है यह पहला ऐसा मौक़ा नहीं है जब CJAR ने इस तरह के भड़काऊ और छवि धूमिल करने वाली बातें कही हैं। CJAR कुछ लोगों को छोड़ कर (जैसे अरुं​धति रॉय) प्रशांत भूषण को अपना अहम हिस्सा मानता है। इसका साफ़ मतलब है कि वह एक एजेंडे पर काम कर रहे हैं और अपना पक्ष न्यायिक ढाँचे में रख कर पेश कर रहे हैं। इसके अलावा समूह ने कहा कि न्यायिक व्यवस्था का हिस्सा होने पर कई संवैधानिक और नैतिक ज़िम्मेदारियाँ भी होती हैं। ऐसे में इस पेशे से जुड़े किसी भी तरह के सिद्धांतों की अनदेखी करना दुर्भाग्यपूर्ण और अस्वीकार्य है।  

इसके बाद समूह ने मोरिस वर्सेज़ क्राउन केस का उल्लेख किया। इसके अलावा अपने बात कहने के लिए लार्ड डेनिंग्स के कथन,’न्याय के क्रम किसी भी तरह का दखल या रुकावट नहीं होनी चाहिए। जो इन प्रक्रियाओं पर हमला करते हैं वह एक तरह से समाज की नींव पर हमला कर रहे हैं’ का ज़िक्र किया है। अंत में समूह ने लिखा है, “CJAR और अन्य संगठनों ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की आलोचना करते हुए टिप्पणी की है। यह सरासर गलत और निराशाजनक है। हम इस तरह की दिखावटी जागरूकता का पूरी तरह विरोध करते हैं।”   

103 लोगों के समूह द्वारा लिखी गई चिट्ठी का दूसरा पन्न (साभार – टाइम्स ऑफ़ इंडिया )

इसके पहले 700 अधिवक्ताओं ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने कहा था कि भारत ने ऐसे हमलों की श्रृंखला देखी है जो संस्थाओं को हानि पहुँचाने के उद्देश्य से किए जाते हैं। ऐसे हमले ज़्यादातर न्यायाधीशों के विरोध में किए जाते हैं। इस तरह के हमले करने वाले खुद से एक लकीर खींच लेते हैं और जो उस लकीर से सहमत नहीं होता उन्हें हमले झेलने पड़ते हैं। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब किसी अधिवक्ता के राजनीतिक हित तय नहीं हो पाते हैं, तब वह निचले दर्जे की टिप्पणी करते हैं।    

इसके बाद पत्र में लिखा था कि देश की सबसे बड़ी अदालत और न्यायाधीशों पर अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल, द्वेषपूर्ण हमले और बेबुनियादी आरोप नहीं किए जाने चाहिए। न्यायपालिका को अपने कर्तव्य निभाने होते हैं, दायित्वों का पूरा करना होता है। ऐसे में यह भी उतना ही ज़रूरी है कि अदालतों के सम्मान का भी उतना ही ख़याल रखा जाए। इस तरह के बयान “सर्वोच्च न्यायालय संविधान की ह्त्या कर रहा है।” लोगों में न्यायपालिका की छवि खराब करते हैं और भरोसा भी कम करते हैं।      

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया