हलाल सर्टिफिकेट भी तुष्टिकरण की पैदाइश: जो काम सरकारी, उसमें मजहबी मुहर की घुसपैठ क्यों?

हलाल सर्टिफिकेशन मूल रूप में मजहबी इस्लामिक मामला, कब होगा इसका अंत? आखिर भारत सरकार क्यों दे रही है इसकी अनुमति?

हलाल सर्टिफिकेशन को लेकर काफी चर्चा चल रही है। पिछले कई रिपोर्टों में हमने बताया है कि कैसे हलाल मांस उद्योग गैर-मुस्लिमों के खिलाफ भेदभाव करता है और अंततः हलाल प्रक्रिया की मजहबी आवश्यकताओं को बनाए रखने के लिए गैर-मुस्लिमों को नौकरियों और रोजगार से अलग-थलग कर देता है।

कई कंपनियों, मुस्लिमों और हलाल समर्थकों ने यह स्पष्ट करने की कोशिश किया है कि गैर मांसाहारी खाद्य पदार्थों, सौंदर्य प्रसाधन और अन्य एफएमसीजी सामानों जैसे शाकाहारी उत्पादों के लिए भी हलाल एक प्रमाणपत्र है। कुछ ने यह भी दावा किया कि हलाल प्रमाणन केवल ‘शुद्धता और प्रामाणिकता’ के लिए एक प्रमाणीकरण है, और हलाल प्रमाणीकरण (गैर-मांस उत्पादों पर) का अर्थ केवल यह है कि उत्पाद ‘अच्छा’ है।

बहस में उतरा क्विंट का पत्रकार

फिर भी हमें हलाल सर्टिफिकेट की जरूरत क्यों है? और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि मजहब के अलावा इस प्रमाणन के पीछे क्या औचित्य है?

इस दावे से कई सवाल उठते हैं।

सरकार द्वारा मौजूदा प्रमाणपत्र

अगर हम उत्पादों पर हलाल प्रमाणपत्र स्वीकार करना शुरू करते हैं, तो क्या इसका मतलब यह है कि आईएसआई और एफएसएसएआई जैसे उपभोक्ता उत्पादों पर मौजूदा सरकारी प्रमाणपत्र पर्याप्त नहीं हैं? क्या कोई पारदर्शी, वैज्ञानिक और अच्छी तरह से परिभाषित विधि है जो उत्पादों की तथाकथित शुद्धता, या अच्छाई तय करती है? इसका उत्तर नहीं होगा क्योंकि हलाल प्रमाणन धार्मिक इस्लामी संगठनों द्वारा जारी किया जाता है, उदाहरण के लिए, भारत में जमीयत उलमा-ए-हिंद, जिसकी विशेषता के क्षेत्रों में आतंकवादियों और हत्यारों को कानूनी सहायता प्रदान करना शामिल है।

हलाल प्रमाणन विशुद्ध रूप से इस्लामिक है, मजहबी है, यहाँ तक ​​कि गैर मांसाहारी उत्पादों में भी, क्योंकि यह मानता है कि उक्त उत्पादों में कोई ऐसी सामग्री है जो इस्लाम में निषिद्ध है। यह विचार अपने आप में भेदभावपूर्ण है क्योंकि यहाँ प्रमाणन का आधार एक मजहबी मान्यता है, चाहे इस्लाम में उस व्यक्ति की कोई आस्था, ‘अनुमति’ है या नहीं।

यह कहाँ रुकेगा?

हम पहले बता चुके हैं कि कैसे हलाल प्रमाणन का पूरा विचार अन्य समुदायों के प्रति भेदभावपूर्ण है। यह गैर-मुस्लिमों पर भी एक इस्लामी विश्वास थोपता है। हलाल प्रमाणन इस प्रकार एक समानांतर अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करता है। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में, जहाँ 80% से अधिक आबादी हिंदू है, और जहाँ कई संस्कृतियों के साथ-साथ कई धार्मिक मान्यताएँ पनपती हैं, हलाल का विचार ही भेदभावजनक, अपमानजनक है।

यदि गैर मांसाहार उत्पादों के लिए हलाल प्रमाणपत्र है, और आबादी का एक बड़ा वर्ग सौंदर्य प्रसाधन, गैर मांसाहारी खाद्य पदार्थों और अन्य एफएमसीजी उत्पादों जैसे उत्पादों की एक श्रृंखला पर चाहता है, तो यह कहाँ रुकता है? क्या होगा यदि प्रमाणन की यह आवश्यकता रेलवे स्टेशन भवनों, बसों, कपड़ों, रबर, पेट्रोलियम उत्पादों के रूप में भी बढ़ा दी जाए?

यदि एक समुदाय उत्पादों पर हलाल प्रमाणन की माँग करता है, और सरकार इसकी अनुमति देती है, तो अन्य समुदायों को समान प्रमाणपत्रों की माँग करने से कौन रोकेगा? क्या होगा अगर सिख, जैन और बौद्ध उपभोक्ता वस्तुओं को उपभोग के लिए ‘प्रमाणित’ करने की माँग करते हैं, जब उनके संबंधित अधिकारियों द्वारा उन्हें ठीक करार दिया गया हो? क्या होगा अगर बहुसंख्यक हिंदू भी इसकी माँग करें?

क्या यह जबरन वसूली के समान नहीं है? ‘हफ्ता वसूली’ की ‘प्रमाणित’ प्रणाली?

पहले से ही सरकार द्वारा निर्दिष्ट मानदंड, गुणवत्ता मानदंड और नियामक आवश्यकताएँ मौजूद हैं जिन्हें कंपनियों को अपने उत्पादों को विपणन के लिए प्रमाणित करने के लिए पूरा करना होता है। तो क्यों उन्हें एक विशेष समुदाय के लिए ‘प्रमाणित’ करने की यह समानांतर प्रणाली जारी है? चूँकि, सरकार का इससे कोई लेना-देना नहीं है और इसे जनादेश नहीं दिया गया है? क्या यह सिर्फ एक खास समुदाय की माँगों को पूरा करने के लिए उस प्रमाणपत्र को ‘खरीदने’ के लिए कंपनियों से भारी पैसा बनाने का एक साधन नहीं है? क्या यह “हमें हर महीने 25,000 रुपए का भुगतान करें, या आप हमारे क्षेत्र में अपनी दुकान नहीं खोल सकते” का एक बदला हुआ रूप नहीं है?

सरकार इसकी अनुमति भी क्यों देती है?

FSSAI हलाल सर्टिफिकेट नहीं देता है। भारत में, कई धार्मिक निकाय हैं जो उत्पादों को तथाकथित प्रमाण पत्र जारी करते हैं, इस्लामी विश्वास के अनुसार उनकी ‘शुद्धता’ तय करते हैं। भारत में मुख्य हलाल प्रमाणन निकाय हैं

  • हलाल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड
  • हलाल सर्टिफिकेशन सर्विसेज इंडिया प्राइवेट लिमिटेड
  • जमीयत उलमा-ए-महाराष्ट्र (जमीयत उलमा-ए-हिंद की एक राज्य इकाई)
  • जमीयत उलेमा-ए-हिंद हलाल ट्रस्ट

इसलिए, एक संपूर्ण समानांतर प्रमाणन प्रक्रिया है जो संबंधित राज्य और राष्ट्रीय प्राधिकरणों के दायरे से बाहर चल रही है। भारत सरकार एक विशेष मजहब से संबद्ध निकायों को उपभोक्ता उत्पादों के लिए कथित मजहबी शुद्धता और स्वीकार्यता की गुणवत्ता जारी करने की अनुमति दे रही है।

क्या यह माल की गुणवत्ता और मानक के लिए सरकारी निकाय की प्रमाणन प्रक्रिया होने के पूरे विचार को कमजोर नहीं करता है? और एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य की सरकार, जहाँ हिंदू बहुसंख्यक हैं और ईसाई धर्म, सिख धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म जैसे कई धर्म और मजहबों के लोग महत्वपूर्ण संख्या में मौजूद हैं, एक विशेष धर्म को अपना प्रमाणन व्यवसाय चलाने की अनुमति क्यों दे रहा है?

क्या अकाल तख्त शुल्क के बदले उपभोक्ता वस्तुओं को अपनी मुहर और प्रमाणन देता है? क्या कंपनियों को अपने उत्पादों को ईसाइयों द्वारा उपभोग के लिए मंजूरी देने के लिए वेटिकन को भुगतान करने की आवश्यकता है? क्या तिब्बती बौद्धों द्वारा उपयोग किए जाने वाले उत्पादों पर दलाई लामा अपनी मुहर जारी करते हैं? और हिंदू कहाँ आवेदन करते हैं?

‘धर्मनिरपेक्ष’ भारत में, विशेष रूप से एक समुदाय के लिए, सरकार की नाक के नीचे समानांतर अर्थव्यवस्था की व्यवस्था क्यों है? सिर्फ इसलिए कि वे इसकी माँग करते हैं? आखिर इसे कैसे न्यायसंगत ठहराया जा सकता है?

निष्कर्ष

मुसलमानों के लिए अपने उत्पादों का विक्रय करने के लिए हलाल प्रमाणपत्र की माँग करने वाली निजी कंपनियों को लक्षित करना एक हद तक निरर्थक और यहाँ तक ​​कि अनुचित भी है। इस मुद्दे की जिम्मेदारी सरकार पर है, या तो यह आदेश देना कि किसी भी कंपनी को अपना सामान बेचने के लिए सरकारी प्रमाणन पर्याप्त है या यह समझाना होगा कि उन्होंने एक विशेष समुदाय को एक तथाकथित धर्मनिरपेक्ष देश में समानांतर प्रमाणन तंत्र की माँग और स्थापना करने की अनुमति क्यों दी है?

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