न्यूनतम आमदनी योजना: क्या मोदी सरकार बजट में लेगी यह रिस्क?

यूनिवर्सल बेसिक इनकम पूरी दुनिया में चर्चा का विषय है। अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड सहित कई यूरोपीय देशों के साथ-साथ ईरान और इराक़ जैसे मध्य एशिया के देशों में भी लागू है।

हो सकता है कि मोदी सरकार भी इस बजट सत्र में यूनिवर्सल बेसिक इनकम से जुड़ा कोई बड़ा ऐलान कर दे। माहौल भाँपते हुए राहुल गाँधी भी एक रैली में बेसिक इनकम से जुड़ी योजना की घोषणा को हवा दे चुके हैं। अब देखना ये है कि क्या ऐसी कोई योजना निकट भविष्य में लागू होती है, ज़रूरी होने के बावज़ूद संसाधनों के अभाव में टल जाती है या महज़ एक चुनावी घोषणा ही बनकर रह जाती है।

यूनिवर्सल बेसिक स्‍कीम की चर्चा लंबे समय से की जा रही थी। लेकिन मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, कहा जा रहा है कि हाल ही में विभिन्न मंत्रालयों से इस संबंध में राय माँगी गई है। PMO, बेसिक इनकम पर अलग-अलग मंत्रालयों के साथ बैठकें कर उनकी राय के अनुसार इसकी रूप रेखा पर अंदरखाने काम भी कर रहा है। हालाँकि, अभी इस बात की ख़बर नहीं है कि कौन-कौन इसमें शामिल होगा और इसके लिए संसाधन कहाँ से जुटाए जाएँगे।

फिर भी, मीडिया के सूत्रों का ऐसा कहना है कि सरकार यूनिवर्सल बेसिक इनकम के तहत जीरो इनकम वाले सभी नागरिकों के बैंक खातों में एक तयशुदा रकम सीधा ट्रांसफर करेगी। जीरो इनकम वाले नागरिकों का मतलब साफ़ है कि वो नागरिक जिनके पास कमाई का कोई साधन नहीं है। इसमें किसान, छोटे व्यापारी और बेरोज़गार युवा शामिल होंगे। इस योजना के तहत देश के हर साधनहीन नागरिक को 2,000 से 2,500 रुपए तक हर माह दिए जा सकते हैं।

बता दें कि इस स्कीम के तहत क़रीब 10 करोड़ लोग लाभान्वित हो सकते हैं, ऐसा अभी तक अनुमान है। साल 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार को इस योजना को लागू करने की सलाह दी गई थी। उम्‍मीद की जा रही है कि नए साल के बजट में मोदी सरकार इस बड़ी योजना का ऐलान कर सकती है।

UBI पर वैश्विक सोच क्या है

एक तरफ़ जहाँ अर्थशास्त्री आर्थिक असमानता, आय में धीमी वृद्धि के कारण UBI की वकालत कर रहे हैं। उनके हिसाब से आने वाले कई दशक विश्व भर में व्यापक बदलावों से भरे हैं। तकनिकी उन्नयन, ऑटोमेशन, बड़े मशीन, रोबोट, आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस के प्रयोग से नौकरियाँ के न सिर्फ़ भारत में बल्कि यूरोप, मध्य एशिया, रूस तथा अमेरिका में भी तेज़ी से कम होने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। यही कारण है कि हाल के वर्षों में वैश्विक स्तर पर यूनिवर्सल बेसिक इनकम लागू करने की माँग तेज़ हुई है।

भारत में UBI लागू होने की सम्भावना

अगर भारत की बात करें तो यहाँ आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी भी ग़रीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने को मज़बूर है। तमाम रक्षात्मक उपायों के बाद भी ग़रीबों को सब्सिडी एवं सहायता प्रदान करने वाली कई सरकारी योजनाएँ विभिन्न समस्याओं से ग्रस्त हैं। इन योजनाओं में GDP का एक बड़ा हिस्सा ख़र्च होने के बावजूद भी इनके क्रियान्वयन में समस्या आती है।

बता दें कि, वर्तमान में मोदी सरकार की देश की जनता के उत्थान के लिए कुल 950 फ़्लैगशिप योजनाएँ चल रही हैं। इन योजनाओं को चलाने के लिये GDP का करीब 5% ख़र्च होता है। ये योजनाएँ ग़रीबों, वंचितों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों को लाभ पहुँचा रही हैं या नहीं या कितना पहुँच रहा है। इसके भी कुछ योजनाओं को छोड़कर, कोई वास्तविक आँकड़े मौजूद नहीं है।

आर्थिक सर्वेक्षण- 2016-17 में भी इस बात को स्वीकार किया गया है कि इन सभी योजनाओं को यदि बंद कर इनमें ख़र्च होने वाले पैसे को UBI की ओर ले जाया जाए तो ग़रीबों तक डायरेक्ट पैसा पहुँचेगा और उनकी स्थिति में वास्तविक सुधार नज़र आएगा। लाख कोशिशों के बाद भी सिस्टम में अनेक खामियों के चलते जिन लोगों को वास्तव में सरकारी सहायता की ज़रूरत होती है, उन तक कई योजनाओं के लाभ नहीं पहुँच पाते। इसलिये यह तर्क दिया जाता है कि यूनिवर्सल बेसिक इनकम देश के सभी ज़रूरतमंद नागरिकों को बेसिक आय प्रदान कर इन समस्याओं को दूर कर सकती है।

UBI लागू करने की राह में कौन-सी प्रमुख अड़चने हैं

दुनिया भर में उच्च असमानता की स्थिति और ऑटोमेशन के कारण रोज़गार के नुकसान की संभावना ने कई उन्नतशील अर्थव्यवस्थाओं को भी यूनिवर्सल बेसिक इनकम (UBI) पर विचार करने को प्रेरित किया है। ताकि, उनके नागरिकों को न्यूनतम स्तर की ज़रूरी नियमित आय की गारंटी दी जा सके। हालाँकि, कई विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि सबके लिए बेसिक इनकम का बोझ कोई बहुत विकसित अर्थव्यवस्था ही उठा सकती है। जहाँ सरकार का ख़र्च सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के 40% से ज़्यादा हो और सरकार का टैक्स से होने वाली आय का आँकड़ा भी इसके आसपास ही हो।

यदि हम भारत के सन्दर्भ में बात करें तो टैक्स और GDP का यह अनुपात 17% से भी कम बैठता है। समुचित टैक्स संग्रहण न होने के कारण, हम तो बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं और आधारभूत ढाँचे के अलावा बाह्य और आंतरिक सुरक्षा, मुद्रा और बाहरी वैश्विक संबंधों से जुड़ी संप्रभु प्रक्रियाओं का बोझ भी उठाने में कठिनाई महसूस करते हैं।

भारत सहित दुनिया के वो देश जहाँ UBI पायलट प्रोजेक्ट के रूप में लागू है या लागू हो चूका है

बेसिक इनकम की जब भी बात होती है तो उसकी राह में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ‘बेसिक आय’ का स्तर क्या हो? अर्थात वह कौन-सी राशि होगी जो व्यक्ति की न्यूनतम ज़रूरतों को पूरा कर सके? चलिए मान लेते हैं यदि हम ग़रीबी रेखा का पैमाना भी लेते हैं, जो कि औसतन 40 रुपए रोज़ाना है (गाँव में 32 रुपए और शहर में 47 रुपए), तो इस हिसाब से प्रत्येक व्यक्ति को लगभग 14000 रुपए वार्षिक या 1200 रुपए प्रति माह की न्यूनतम आय की गारंटी देनी होगी।

पहली नज़र में यह न्यूनतम राशि व्यावहारिक प्रतीत हो रही है लेकिन यदि हम ग़रीबी रेखा की इन आँकड़ो की नज़र से ही देखें तो अपनी कुल जनसंख्या की 25% शहरी वंचितों को सालाना 14000 रुपए और अन्य 25% ग्रामीण आबादी को वार्षिक 7000 रुपए देने की ज़रूरत पड़े और बाकी आबादी को कुछ भी न दें तो भी योजना की लागत आएगी प्रति वर्ष 6,93,000 करोड़ रुपए। हालाँकि, इस तरह के भेदभाव से शहरों की तरफ़ पलायन बढ़ेगा, जो एक नई समस्या को निमंत्रण देना होगा, कहने का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के भेदभाव को व्यवहारिक नहीं कहा जा सकता।

ग़ौरतलब है कि यह राशि वित्तीय वर्ष 2016-17 में सरकार के भुगतान बज़ट के 35% के बराबर है। इस गणित के हिसाब से वर्तमान परिस्थितियों में यह आवंटन सरकार के लिये संभव नज़र नहीं आ रहा। हो सकता है सरकार इस बोझ को कम करने के लिए पायलट रूप में योजना को कई चरणों में लागू करे या और भी कोई नया प्रावधान कर सकती है। वो क्या होगा? सरकार कौन से क़दम उठाएगी, इस पर अभी कुछ और कहना जल्दबाज़ी होगी। फिर भी मोदी सरकार की कार्यप्रणाली पर पिछले लगभग पाँच सालों तक बारीक़ नज़र रखने के आधार पर अभी ऐसी भविष्यवाणी की जा सकती है।

सम्भावित राह: मोदी सरकार से उम्मीदें

अहम सवाल ये है कि सबको पैसा देने के लिये धन कहाँ से आएगा? मोदी सरकार एक झटके में नोटबंदी की तरह यदि फ़्लैगशिप योजनायें बंद करती है तो विपक्ष को चुनावी साल में फिर से बवाल काटने का हथियार मिल जाएगा। विपक्ष के पिछले प्रदर्शन को देखते हुए शायद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसा कोई क़दम उठाएँ। अब अगर वर्तमान में लागू जन-कल्याणकारी योजनाओं के साथ-साथ UBI को लागू करना हो, तो इसके लिए अनुमानित राशि कहाँ से आएगी, ये सवाल और भी स्वाभाविक और गंभीर रूप में हमारे सामने आता है।

इसीलिये, यह माना जाता है कि भारत जैसे देश में UBI तभी संभव है, जब कर संरचना (Tax Structure) में व्यापक बदलाव कर, उसे प्रगतिशील या रैडिकल बनाया जाए। टैक्स स्ट्रक्चर में परिवर्तन के संकेत मोदी सरकार पहले भी नोटबंदी जैसा बड़ा क़दम उठा के दे चुकी है। आँकड़ों के हिसाब से नोटबंदी के बाद से टैक्स से प्राप्त आय में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। साथ ही GST के लागू होने से भी भारत सरकार का कर संग्रह बढ़ा है।

बता दें कि विकसित देशों में न्यूनतम मानव श्रम के उपयोग के साथ उत्पादन करने वाली मशीनों पर टैक्स लगाने का विचार चर्चित रहा है। और लोग वहाँ स्वतः भी ईमानदारी से टैक्स भरते हैं। हमारे यहाँ सारे जतन कर चोरी के लिए किये जाते हैं। इन बातों से सीख लेते हुए भारत में भी ऑटोमेशन का इस्तेमाल करने वाली कंपनियों पर ज़्यादा टैक्स लगाया जा सकता है तथा कर संरचना में सुधार कर, उस पैसे को UBI में इस्तेमाल किया जा सकता है।

हालाँकि, पूरे भारत में एक साथ UBI लागू करना अभी भी एक बड़ी चुनौती है। फिर भी, कुछ आवश्यक रक्षात्मक क़दम उठाकर इस चुनौती का समाधान किया जा सकता है।

वर्तमान में मोदी के वैश्विक प्रयासों से दक्षिण एशिया में स्थिरता का माहौल है एवं चीन, पाकिस्तान तथा अन्य पड़ोसी देशों के साथ भारत के बेहतर संबंध को देखते हुए, यदि तेल के आयात व रक्षा ख़र्च में कमी कर दी जाए तो शायद इतना पैसा बचाया जा सकता है कि भारत आने वाले समय में UBI पर गंभीरता से विचार कर सकता है। एक गणना के मुताबिक, UBI को यदि वास्तव में यूनिवर्सल रखना है तो उसके लिये जीडीपी का लगभग 10% ख़र्च करना होगा। यदि इसे सीमित दायरे में सिर्फ़ कुछ तबकों के लिये ही लागू किया जाता है, तो फिर इस योजना को ‘यूनिवर्सल’ न कहकर ‘बेसिक इनकम’ कहना ज़्यादा समीचीन होगा।

इसमें दो राय नहीं है कि बेसिक इनकम का विचार भारत की जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य नागरिक सुविधाओं में सुधार के साथ-साथ देश के वंचित, साधनहीन जनसँख्या के जीवन-स्तर को भी ऊपर उठाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास होगा लेकिन सबके लिये एक बेसिक इनकम तब तक संभव नहीं है जब तक कि वर्तमान में सभी योजनाओं के माध्यम से दी जा रही सब्सिडी को ख़त्म न कर दिया जाए। अतः सभी भारतवासियों के लिये एक बेसिक इनकम की व्यवस्था करने की बजाए यदि मोदी सरकार सामाजिक-आर्थिक जनगणना की मदद से समाज के सर्वाधिक वंचित तबके के लिये एक निश्चित न्यूनतम आय की व्यवस्था करती है तो यह कहीं ज़्यादा प्रभावी और व्यावहारिक होगा।

बेसिक इनकम के माध्यम से लोगों के जीवन में प्रत्यक्ष सुधार की उम्मीद की जा सकती है, साथ ही इससे सामाजिक सुधार को भी बल मिलेगा। पिछले पाँच सालों में जिस तेज़ी से मोदी सरकार भारत के बुनियादी विकास की रूप रेखा बना रही है वह आशा कि किरण है। हाल ही में प्रधानमंत्री ने अपने विकसित भारत के सपने को साकार करने के लिए, ‘सबका साथ, सबका विकास’ मूल मंत्र पर चलते हुए सूरत की एक रैली में देश के लोगों से पुनः बहुमत की सरकार चुनने की अपील की। जिस तरह से देश उनके विज़न के प्रति उत्साह दिखा रहा है, वह आने वाले भारत के लिए सुखद उम्मीदों से परिपूर्ण है।

रवि अग्रहरि: अपने बारे में का बताएँ गुरु, बस बनारसी हूँ, इसी में महादेव की कृपा है! बाकी राजनीति, कला, इतिहास, संस्कृति, फ़िल्म, मनोविज्ञान से लेकर ज्ञान-विज्ञान की किसी भी नामचीन परम्परा का विशेषज्ञ नहीं हूँ!