दिल्ली की शिक्षा व्यस्वस्था का सच: विज्ञापनों के चक्कर में छात्रों के भविष्य से खेल रहे हैं केजरीवाल

केजरीवाल-सिसोदिया ने किया दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था का बेड़ा गर्क

अरविन्द केजरीवाल जब से दिल्ली के मुख्यमंत्री बने हैं, तब से वह लगातार दावा करते रहे हैं कि उन्होंने दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन किया है। इस बारे में शुरुआत में तो लोगों को ज्यादा कुछ नहीं पता चला लेकिन पासिंग प्रतिशत ने केजरीवाल के इस दावे की पोल खोल कर रख दी। केजरीवाल की अब कोई विश्वसनीयता रही नहीं है और उनके द्वारा लगातार कॉन्ग्रेस को गठबंधन के लिए निवेदन करना उस विश्वसनीयता को और कम करता है।

ये वही कॉन्ग्रेस है, जिसके ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ कर केजरीवाल ने प्रसिद्धि पाई थी, जिसे विश्व की सबसे भ्रष्ट पार्टी बताया करते उनके करियर के साथ खेल रही है। उनके पास पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के ख़िलाफ़ सैकड़ों सबूत हुआ करते थे लेकिन आज वह उन्ही शीला दीक्षित के पीछे भाग रहे हैं, सिर्फ़ गठबंधन के लिए। उनके कई यू-टर्न देखने के बाद कोई भी यह सोचने को विवश हो जाए कि क्या सचमुच दिल्ली की व्यवस्था में कोई बदलाव हुआ है? इसकी पड़ताल जरूरी हैं।

दरअसल, वास्तविकता तो यह है कि दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था और ख़राब ही हुई है। लम्बे-चौड़े विज्ञापनों के पीछे दिल्ली में पासिंग प्रतिशत को छिपाने की कोशिश की जा रही है। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली में 9वीं से 12वीं तक के 66% छात्र जो 2017 में अनुत्तीर्ण रह गए थे, अब औपचारिक शिक्षा प्रणाली से बाहर हो गए हैं। आधिकारिक दस्तावेजों के अनुसार, 1,55,436 अनुत्तीर्ण छात्रों में से 52,582 छात्रों को ही फिर से कक्षा में प्रवेश दिया गया।

दिल्ली के कई स्कूलों में दाख़िल छात्रों के माता-पिता से बातचीत करने पर पता चलता है कि 11वीं में स्ट्रीम के चयन को लेकर एक अनौपचारिक प्रचलन आम हो चुका है जिसमे छात्रों को विज्ञान या गणित लेने की अनुमति नहीं देने का निर्णय लिया गया। सरकारी स्कूलों में अधिकतर विद्यार्थी गणित या विज्ञान में ही अनुत्तीर्ण होते हैं, अतः अनौपचारिक रूप से उनके चयन पर प्रतिबन्ध लगाकर सरकार उनके करियर के साथ खेल रही है ताकि पासिंग प्रतिशत को ज्यादा दिखाया जा सके।

आँकड़ों के अनुसार, दिल्ली सरकार ने केवल 25 स्कूलों का निर्माण किया है। तथ्य यह भी है कि दिल्ली में केजरीवाल सरकार के गठन के बाद एक भी डिग्री कॉलेज का निर्माण नहीं किया गया है। अगर उनकी घोषणाओं की बात कारण तो उन्होंने 500 स्कूलों और 20 कॉलेजों के निर्माण का वादा किया था। आँकड़े उनकी पोल खोलते हैं। उन्होंने जो वादा किया था, उस पर वह अमल करने में विफल रहे।

चुनाव पूर्व अरविन्द केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी ने लम्बे-लम्बे दावे करते हुए कहा था कि गेस्ट शिक्षकों को स्थायी किया जाएगा और रिक्त पड़ी सभी सीटों को भरा जाएगा। स्थिति यह है कि अभी भी हज़ारों पद रिक्त पड़े हैं और जिन पदों पर बहाली की भी गई है, उसमें भी 17,000 अतिथि शिक्षक शामिल हैं। चूँकि वे दावा करते हैं कि उन्होंने शिक्षा व्यवथा में सुधार के लिए ज़रूरी आधारभूत संरचना का निर्माण किया है, इंफ़्रास्ट्रक्चर मज़बूत किया है लेकिन शिक्षकों की बहाली के बिना ये सब अधूरा है। भवन और कक्षा रहें लेकिन पढ़ाने के लिए शिक्षक ही न रहें तो शिक्षा व्यवस्था में सुधार कैसे आएगा?

वास्तव में दिल्ली में स्कूलों की स्थिति और गिरती ही जा रही है। दिल्ली की सरकार बस देश भर में विज्ञापन देने में व्यस्त ही ताकि यह दिखाया जा सके कि उसने दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था को बदल कर रख दिया है। इसके लिए छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। उसके शिक्षा मॉडल की पोल इसी बात से खुल जाती है कि पिछले साल (2017-18) 10वीं के छात्रों का औसत उत्तीर्ण प्रतिशत पिछले एक दशक के सबसे निचले स्तर (68.9%) पर आ गया। अगर 12वीं के छात्रों के औसत उत्तीर्ण प्रतिशत की बात करें तो उसमे भी ज्यादा बदलाव या सुधार नहीं आया है। जब दिल्ली सरकार शिक्षा क्षेत्र में एक बड़ी राशि ख़र्च करने का दावा कर रही है, हमें केजरीवाल और सिसोदिया से यह सवाल पूछना चाहिए कि अगर धन ख़र्च किया जा रहा है तो उसके प्रभाव क्यों नहीं दिख रहे?

दिल्ली सरकार से पूछा जाना चाहिए कि अगर शिक्षा व्यवस्था पर ख़र्च किए गए रुपयों से शिक्षा व्यवस्था में सुधार नहीं आ रहा, शिक्षकों की भर्तियाँ नहीं हो रही, तो फिर ये रुपए जा कहाँ रहे हैं? यह शिक्षा मॉडल इतना दोषपूर्ण है, बावजूद इसके इस से जुड़े विज्ञापन कर्नाटक और तमिलनाडु से लेकर बंगाल तक के समाचारपत्रों में छपवाए जा रहे हैं। वो तो अच्छा है कि अभी मंगल गृह पर जीवन नहीं बसाया गया है वर्ण अगर वहाँ मनुष्यों की एक छोटी सी कॉलोनी भी होती तो उन्हें दिल्ली के शिक्षा व्यवस्था के सम्बन्ध में विज्ञापन पढ़ने को मिलते। उस शिक्षा व्यवस्था के बारे में, जो दोषपूर्ण है। लेकिन, यह मुद्दा मज़ाक से परे है।

अगर वे वास्तव में शिक्षा को लेकर गंभीर हैं तो बजट में आवंटित 15,133 करोड़ रुपयों में से सिर्फ़ 11,201 करोड़ ही क्यों ख़र्च किए जा सके हैं? ये उनकी शिक्षा के प्रति प्रतिबद्धता के दावों की पोल खोलता है। दिल्ली सरकार को सिर्फ़ अपने स्कूलों को जगमगाने के लिए छात्रों के भविष्य से खेलने का कोई हक़ नहीं है। शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करने की बजाए दिल्ली सरकार विज्ञापनों में व्यस्त है और इस सबके बीच में दिल्ली के छात्र क्या चाहते हैं, इस विषय में उनकी राय ली ही नहीं गई। आप सरकार ने न सिर्फ़ दिल्ली की जनता बल्कि छात्रों का भी शोषण किया है।

दिल्ली की जनता के दिलों में स्थित भ्रष्टाचार विरोधी भावना का फ़ायदा उठा कर सत्ता के सिंहासन पर चढ़ने वाले अरविन्द केजरीवाल दिल्ली के बाहर भले ही जितने विज्ञापन छपवा लें, यहाँ पर सब उनकी परिस्थिति से परिचित हैं। यहाँ जनता को केजरीवाल की अवसरवादी राजनीति, कई यू-टर्न के बारे में पता है। तभी जनता ने उन्हें एमसीडी में अस्वीकार कर दिया। दिल्ली शासन की अक्षमता का भार छात्रों को उठाना पड़ रहा है।

सुमित भसीन के मूल अंग्रेजी लेख का अनुवाद अनुपम कुमार सिंह ने किया है।