कॉन्ग्रेस के लिए देश है प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी: ‘मालिक’ चाहेगा तो ‘मैनेजर’ हट जाएगा, संतान आ जाएगी

कॉन्ग्रेस के कार्यकर्ता नहीं बल्कि ‘बाउंसर’ होते हैं- सोनिया गांधी के, राहुल गांधी के, प्रियंका वाड्रा के।

इन दिनों क्योंकि चुनावी सीजन चल रहा है, और राजनीति में मेरी मामूली सी दिलचस्पी भी है, तो अक्सर लेखन में राजनीति या राजनीति के किसी प्रसंग का पुट आ ही जाता है। और ऐसा ही एक प्रसंग मुझे फिलहाल याद आ रहा है, जिसे मैं कॉन्ग्रेसियों को समर्पित करना चाहूँगा।

2006-07 की बात है। मैं दिल्ली में कॉन्ग्रेस के एक सीनियर नेता का पी.ए. हुआ करता था। उनकी सीनियरटी का अंदाज इससे लगा लीजिए कि वे इंदिरा गाँधी की कैबिनेट में भी कैबिनेट मंत्री हुआ करते थे। एक बार वह बीमार पड़ गए, और कुछ दिनों के लिए उन्हें हॉस्पिटल में एडमिट करना पड़ा। उनकी गैर मौजूदगी में अक्सर उनके दामाद उनके चैम्बर में बैठने आया करते थे। उनको ‘भला’ तो नहीं कहूँगा पर लगभग ‘सज्जन’ ही थे।

एक बार वे साहब के चैम्बर में बैठे हुए थे, और उन्होंने मुझे बजर देकर बुलाया। मैं जब उनके पास पहुँचा तो वे फोन पर किसी से बात करते हुए कह रहे थे, “अभी तो हम हॉस्पिटल में एडमिट हैं।” बात खत्म होने के बाद उन्होंने कुछ काम बताया और मैं बाहर आ गया। लेकिन उनके यह शब्द मेरे दिमाग में खटक रहे थे कि यह तो भले चंगे हैं, ये कहाँ एडमिट हैं, तो क्यों कह रहे हैं कि एडमिट हैं?

फितरतन जरूरी चीजों में बेशक दिमाग काम नहीं करता है, लेकिन ऐसी मिस्ट्री सुलझाने में दिमाग एकदम फ्रंट-फुट पर खेलने लगता है। और मैं बाद में, तमाम चिन्तन के बाद, इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इसके दो मायने हैं- एक पर्सनल है, और दूसरा कॉन्ग्रेसी कल्चर का हिस्सा।

जैसे साहब के दामाद के कथन से यह अभिप्राय था कि उनका अपना कोई वजूद नहीं है, वे जो कुछ भी हैं साहब की वजह से हैं, जो कि सच भी था। और इसलिए अगर ‘साहब’ को बुखार है तो वे भी ‘क्रोसिन’ खाना शुरू कर देते हैं, साहब को अगर मलेरिया है तो वे भी अपना ब्लड टेस्ट करवा लेते हैं, साहब अगर खुश हैं तो वे नाचने लगते हैं, साहब अगर दुखी हैं तो वे रुदाली बन जाते हैं। क्योंकि उनका अपना कुछ भी नहीं है, वे जो कुछ भी हैं साहब की वजह से हैं।

यही हाल हूबहू कॉन्ग्रेसियों का है। उनका अपना कुछ भी नहीं है। वे जो कुछ भी हैं नेहरू-गाँधी परिवार की वजह से हैं और इसलिए वे जो कुछ भी करते हैं, वह इस परिवार विशेष को ही समर्पित होता है।

आपको याद होगा कि 2014 के चुनावों में, मोदी जी के पीएम पद का प्रत्याशी घोषित होने के बाद भी, मीडिया और विपक्ष के कई नेता इस अफवाह को हवा देते थे कि भाजपा के कुछ सीनियर नेता, मसलन आडवाणी, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार, वेंकैया नायडू, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी इत्यादि, ‘मिशन 180’ पर काम कर रहे हैं- ताकि भाजपा 200 सीटों के भीतर सिमट जाए और मोदी की बजाय उनमें से ही कोई एक पीएम बन जाए। यह थ्योरी कुछ लोग अभी भी चला रहे हैं।

एकबारगी इस थ्योरी और अफवाह पर यकीन भी कर लिया जाए तो हमें भाजपा की इस बात के लिए दाद तो देनी पड़ेगी कि यहाँ कोई भी छोटा-बड़ा, साधारण और विशिष्ट नेता पीएम बनने की सोच सकता है।

पर क्या कॉन्ग्रेस में ऐसा मुमकिन हो सकता है? क्या कॉन्ग्रेस में किसी की मजाल है कि वे वह अपने माई-बाप यानि दस जनपथ परिवार की मर्जी के बिना एक पार्षद बनने तक का ख्वाब देख सके? ऐसा नहीं है कि सारी योग्यता और टैलेंट बीजेपी के ही नेताओं में है; मैं मानता हूँ कि कॉन्ग्रेस में भी योग्य नेताओं की कमी नहीं है।

लेकिन उनकी तमाम योग्यता तब धरी रह जाती है, जब वे किसी मजबूरी, स्वार्थ, अथवा सस्ती चालाकी के चक्कर में गाँधी परिवार की गुलामी का वरण कर लेते हैं और इसे सहर्ष स्वीकार भी करते हैं- जैसा कि आज राजस्थान के सीएम ने अपने बयान में कहा है कि कॉन्ग्रेस के लिए गाँधी परिवार का नेतृत्व इसलिए जरूरी है कि इसकी वजह से पार्टी में एका है। अगर कॉन्ग्रेसियों के सिर से गाँधी परिवार का ‘हाथ’ हट जाए तो यहाँ भगदड़ मच जाएगी।

जैसा कि नरसिंह राव के दौर में हुआ था। जब राजीव गांधी रहे नहीं थे। सोनिया गाँधी सक्रिय राजनीति में उतरी नहीं थीं। तब देश की सबसे पुरानी पार्टी होने और आजादी की लड़ाई लड़ने का दंभ भरने वाले कॉन्ग्रेसियों ने तिवारी कॉन्ग्रेस, सिंधिया कॉन्ग्रेस, अर्जुन कॉन्ग्रेस, तमिल मनीला कॉन्ग्रेस, इसकी कॉन्ग्रेस, उसकी कॉन्ग्रेस जैसे तमाम दल बना लिए थे। फिर सोनिया जी ने कॉन्ग्रेस की बागडोर संभाली और सबको पुचकार के बुलाया तो सब फिर से दस जनपथ के वफादार बन गए।

भाजपा दूध की धुली नहीं है। दूध का धुला मैं भी नहीं हूँ। और दुनियादारी को दूध में धुले होने वाले मानकों से नापना भी नहीं चाहिए- खासकर राजनीति को तो कतई नहीं। पर इसके बाद जो पैमाने बच जाते हैं, उन सभी पैमानों पर भाजपा एक श्रेष्ठ पार्टी है, पार्टी विथ डिफ़रेंस है। और इसे कई प्रकार से समझा जा सकता है।

सितम्बर 2013, तब केंद्र में यूपीए की सरकार थी। राहुल गाँधी अपनी ही पार्टी के नेता अजय माकन की प्रेस कॉन्फ्रेंस में पहुँचते हैं। वहाँ अपनी ही सरकार के एक अध्यादेश को फाड़ कर फेंक देते हैं। अध्यादेश जो एक क़ानून होता है, जिसे प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली कैबिनेट पास करती है। पर राहुल गाँधी ऐसा कर देते हैं और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह न केवल गोंद पीकर रह जाते हैं, बल्कि जब उनका मुँह खुलता है तब वे कहते हैं कि राहुल जी जब चाहेंगे, तब वे अपने पद से हटने को तैयार हैं।

क्यों भई? यह लोकतांत्रिक देश है या कोई प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी, कि ‘मालिक’ जब चाहेगा तब ‘मैनेजर’ को हटा देगा और अपनी संतान को कम्पनी सौंप देगा?

आज भाजपा में कोई नेता सरकार के किसी अध्यादेश को फाड़ कर दिखाने की हिम्मत कर सकता है; अगर कर भी दे तो क्या पार्टी में राहुल गाँधी सरीखे रुतबे के साथ राजनीति कर सकता है? आडवाणी जी पार्टी लाइन से इतर जिन्ना की मजार पर सेक्यूलरीज्म के फूल चढ़ा आए थे, जिसका हश्र यह हुआ कि उनकी बाकी राजनीति जिन्ना के भूत से पीछा छुड़ाने में गुजर गई। यही हश्र भाजपा के एक और कद्दावर नेता जसवंत सिंह के साथ हुआ। उन्होंने किताब लिखकर जिन्ना को सेकुलर होने का तमगा दिया और उनकी जीवन भर की राजनीति जिन्ना के वास्ते होम हो गई। यह सब एक राष्ट्रवादी और जीवंत संगठन में ही सम्भव हो सकता है।

यह अगर संभव नहीं हो सकता है तो कॉन्ग्रेस में, क्योंकि कॉन्ग्रेस कोई पार्टी-वार्टी नहीं है बल्कि एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी है।

और इसीलिए यहाँ जो लोग अपने आपको नेता, कार्यकर्ता, पदाधिकारी कहते हैं, मुझे उन पर भी बड़ा तरस आता है, क्योंकि जहाँ कार्यकर्ता हो सकते हैं वह एकमात्र पार्टी सिर्फ भाजपा है, वरना कॉन्ग्रेस सहित जितने भी दल हैं, वहाँ कार्यकर्ता नहीं बल्कि ‘बाउंसर’ होते हैं। वे बाउंसर हैं सोनिया गांधी के, वे बाउंसर हैं राहुल गांधी के, और वे बाउंसर हैं मिसेज प्रियंका वाड्रा के।

खैर, फिलहाल इस चर्चा को यहीं विराम देना चाहिए। लिखने का उद्देश्य सिर्फ लेखक बनना नहीं होता बल्कि अपनी उन भावनाओं को भी अभिव्यक्ति देना होता है, जिनके बारे में आपको लगता है कि अब कह ही देना चाहिए। सही-गलत के सबके अपने-अपने पैमाने हो सकते हैं, पर कुछ मौके ऐसे आते हैं जहाँ ‘खामोश’ और ‘निष्पक्ष’ नहीं रहना चाहिए।