प्रिय मुस्लिम औरतो, आप हलाला, पोलिगेमी और तलाक़ के ही लायक हो! क्योंकि आप चुप हो!

ख़बर पढ़िए, और सोचिए: एक महिला है, शादी हुई, दो साल बच्चे नहीं हुए। ससुराल वालों ने मारा, भूखा छोड़ा और पति ने कहा, “तलाक़, तलाक़, तलाक़!” हो गया तलाक़। घरवालों ने बेटे से कहा कि अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करे। पति की शर्त आई कि पहले लड़की को उसके पिता के साथ हलाला करना होगा। प्रेशर बनाया गया कि अपने ससुर के साथ ‘हलाला’ कर ले। हलाला यानी ससुर के साथ शारीरिक संबंध बनाना। 

लड़की ने मना किया। उसे इंजेक्शन दिया गया और दस दिनों तक ससुर हलाला के नाम पर उसका बलात्कार करता रहा। उसके बाद ससुर ने अपनी बहू को तलाक़ दिया ताकि उसके बेटे से उसका निकाह दोबारा हो सके। फिर से पति के साथ निकाह हुआ, और पति ने एक बार फिर 2017 में महिला को तीन तलाक़ दे दिया। फिर से परिवार ने पति से कहा कि एक बार फ़ैसले पर पुनर्विचार करे। 

इस बार पति नई शर्त लेकर आया कि इस बार हलाला उसके भाई के साथ करना होगा। इस तलाक़-हलाला की शर्त से अंततः लड़की परेशान हुई और कोर्ट की शरण में जा पहुँची। अब उस पर सुनवाई हो रही है। 

इस पर जो भी फ़ैसला आए, वो तो बाद की बात है लेकिन ऐसे मामलों में मुस्लिम समाज, और ख़ासकर मुस्लिम लड़कियाँ बिलकुल ही चुप रह जाती हैं। अपने सोशल मीडिया फ़ीड पर इन बातों पर न के बराबर मुस्लिम नाम वाले प्रोफ़ाइलों से इस पर चर्चा या भर्त्सना करते पाता हूँ। संभव है कि ऐसे लोग होंगे, लेकिन ये कभी भी इतना नहीं कर पाते कि एक हैशटैग भी ट्रेंड करा सकें। साथ ही, दुःखद बात तो यह है कि तमाम मुस्लिम नाम वाले लोग इन बातों को ‘हमारी समस्या है, हम निपटेंगे, तुम्हें क्या’ वाले तर्कों से ढकने में लगे रहते हैं।

समस्या तो यही है कि एक पूरी जनसंख्या और उनके नेताओं तक को इन कुरीतियों की सड़ाँध छूती तक नहीं। इनके पर्सनल लॉ बोर्ड और वैसे ही कई संस्थान, जो इस्लामी क़ानूनों की बात करते नज़र आते हैं, वो इन पर चुप्पी साध लेते हैं। और तो और, वो इन कुरीतियों को इस्लामी कानून के नाम पर डिफ़ेंड करने लगते हैं! ओवैसी जैसे पढ़े-लिखे नेता ने तलाक़ वाले बिल पर समुदाय विशेष को एकजुट होकर लड़ने की बात कहते हुए कहा था कि मुस्लिम अपने हिसाब से शादी करेगा और तलाक़ देगा, इसमें किसी और के निर्देशों की कोई सम्भावना नहीं।

और इन सब के बीच जो चुप बैठी रहती है, वो है भारत की दस करोड़ मुस्लिम महिला आबादी। इनके न बोलने के पीछे एक बात समझ में आती है, और वो यह है कि इनकी सामाजिक परवरिश इस तरीके से हुई है कि या तो इन बातों को वो समस्या के तौर पर देखती ही नहीं, या फिर, उन्हें डर लगता है कि अगर वो बोलेंगी तो समाज उन पर क्या प्रतिक्रिया देगा।

पहली बात तो यही है कि एक सेकुलर देश में धार्मिक परम्पराओं को छोड़कर, जिसमें शादी-निकाह जैसे संस्कार शामिल हैं, धार्मिक कानूनों (पर्सनल लॉ) का कोई औचित्य नहीं दिखता। अगर शरीयत ही लागू करना है तो फिर चोरों को कोड़ों से मारने की सजा और चौराहे पर पत्थरों से पीटकर हत्या करने की भी सजा होती रहनी चाहिए। ये क्या कि मर्दों के ईगो को संतुष्ट करने वाली परम्पराओं को धार्मिक कानून का नाम देकर स्त्रियों का शोषण किया जा रहा है?

तुर्की जैसे देश जिस ओर भारत के मुस्लिम इस हद तक देखते थे कि वहाँ चाँद दिखने पर अपना रोज़ा तोड़ते थे, उन्होंने इन सारी प्रथाओं को दरकिनार किया है। वहाँ औरतें चुन सकती हैं कि वो क्या पहने, कहाँ जाएँ, किसके साथ रहें। जबकि एक समय था इस्लाम वही से संचालित होता था। तुर्की ने बेहतर समाज के लिए इन कुरीतियों को हटाया और सामाजिक समानता की बात की। यह भी देखा गया है कि जिन मुस्लिम देशों की आर्थिक स्थिति बेहतर हो, जहाँ लोकतंत्र है, वहाँ की औरतों को ज्यादा अधिकार मिले हुए हैं। 

लगभग 49 देश ऐसे हैं जहाँ मुस्लिम समुदाय के लोग बहुसंख्यक हैं, लेकिन वैसे देश जो युद्ध से जूझ रहे हैं, अशिक्षा है, ग़रीबी है, वहाँ स्त्रियों के अधिकार न के बराबर हैं। भारत में मुस्लिम समुदाय दूसरी बड़ी आबादी हैं, और यहाँ संविधान उनके हितों को अल्पसंख्यक का दर्जा देकर रक्षा करती है। यहाँ तो युद्ध की भी स्थिति नहीं है। फिर यहाँ की महिलाओं को ऐसी नारकीय यातनाएँ क्यों दी जा रही हैं? भारत के मुस्लिमों को ये सोचना चाहिए कि वो अपनी माँ, बहन, बेटी को कैसे अधिकार देने चाहेंगे। जब तक निजी तौर पर इसे न सोचा जाए, समानता की बात मुश्किल है। सरकार कानून भी बना दे तो भी क्या होगा?

एक बेहतर समाज अपने हर अंग को साथ लेकर चलता है। एक स्वस्थ समाज में ऐसी कोढ़ की कोई जगह नहीं होनी चाहिए जो मानवमात्र की इज़्ज़त ना कर सके। एक प्रगतिशील समाज हर नागरिक को आर्थिक, समाजिक, पारिवारिक और वैयक्तिक तौर पर सशक्त करने की कोशिश करता रहता है। 

अगर मुस्लिम महिलाओं ने इस पर मुहीम नहीं छेड़ी तो उनके अधिकार की लड़ाई कोई नहीं लड़ेगा। इस देश और समाज ने तथाकथित मजहबी नेताओं को देख लिया है कि इन क्रूर परम्पराओं को लेकर उनके विचार किसी मौलवी की ही गोद में जा गिरते हैं। इस्लाम की ढाल लेकर, औरतों के शोषण करने वाली इन बातों पर हर मंच से मजहबी नेताओं ने भागने की कोशिश की है।

यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसे असंवैधानिक बनाए जाने के बावजूद महिलाएँ तीन तलाक़ का शिकार होकर घरों से बाहर फेंकी जा रही हैं। जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है उन्हें इस हलाला नाम के धार्मिक बलात्कार की प्रक्रिया से गुज़रना होता है क्योंकि एक महिला अपने बच्चों को लेकर कहाँ जाएगी? अपने पिता का परिवार उसे सामाजिक दबाव में, अपनी ‘बदनामी’ के डर से, नहीं अपनाता, और पति ने तो घर से ही निकाल दिया।

जब तक मुस्लिम महिलाएँ, उनकी पढ़ी-लिखी बेटियाँ, सड़कों पर अपने ही मौलवियों से, नेताओं से अपने अधिकारों की बात नहीं करेंगी, ये मुद्दा राजनैतिक या कानूनी तरीके से नहीं सुलझने वाला। कानून तो चोरी को भी लेकर बने हैं, लेकिन उसे अगर कोई समाज धार्मिक मान्यता प्रदान कर दे, तो फिर कानून अपना काम कभी नहीं कर पाएगा। 

इसीलिए, यहाँ समाज और धर्म को साफ करने का ज़िम्मा भी उसी समाज के लोगों पर है। दुर्भाग्य यह है कि जिन्हें इस कचरे को साफ करना चाहिए, वो उसे गुलदस्ता मानकर उसकी सुगंध ले रहे हैं। भीतर की सड़ाँध को बाहर का झाड़ू साफ़ नहीं कर सकता। अगर मुस्लिम महिलाएँ आगे नहीं आती है, उनके शिक्षित लोग इस पर बात नहीं करना चाहते, तो शायद ये महिलाएँ इसी समाज में रहने लायक हैं। और यह एक दुःखद स्थिति है। 

अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी