भाजपाइयों, कॉन्ग्रेसियों या दलितों-ब्राह्मणों का नहीं… यह गुस्सा राष्ट्रवादियों का है

पुलवामा अटैक के बाद आतंकियों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करते भारतीय नागरिक

पुलवामा से इतर फिलहाल कुछ नामचीन पत्रकारों के बीच स्क्रीनशॉट शेयर करने की प्रतिस्पर्धा आरम्भ हो गई है। बाहर से ही सही किन्तु कुछ छुटभैये पत्रकार भी इस प्रतिस्पर्धा में भाग लेते हुए झूठी खबरें फैला कर खुद को नामचीन बनाने की कोशिश में लग गए हैं।

सर्वविदित है कि सोशल मीडिया पर हैं तो आप भले नामचीन न हों, आपको आलोचना और अपशब्द सहने पड़ते ही हैं। इतिहास और वर्तमान गवाह है कि यदि मेरे-आपके जैसा कोई अदना आदमी दिलीप मंडल या रविश कुमार सरीखे किसी नामचीन के पोस्ट पर सवाल करता है तो भी गालियाँ मिलती हैं। सुअर, कुत्ता आदि भी कहा जाता है और देख लेने की धमकी भी दी जाती है। चूँकि हम अदने से आदमी हैं सो न तो हम इसका स्क्रीनशॉट लगाते हैं और न ही रोना रोते हैं। सच मगर यह है कि रक्त का दबाव हमारा भी बढ़ता है, दुःख हमें भी होता है। लेकिन हमारे स्क्रीनशॉट को न तो कोई तवज्जो मिलती है और न ही हमारे अपमान से मानवता शर्मसार होती है।

निजी अनुभव है कि एक नेताजी से सवाल करने पर मुझे पब्लिकली, इनबॉक्स में और फोन पर खूब गालियाँ दी गईं। दुःखी होकर मैंने आप जैसे कई नामचीनों के सामने गुहार लगाई। नतीजा सिफ़र रहा। माना कि आपकी तरह हमारे जानने वाले न तो कोई पुलिस ऑफिसर थे और न ही आका मगर साहब क्या हमारा खून, खून नहीं…?

इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जिस तरह से आप इस सबके पीछे सीधे-सीधे मोदी का हाथ घोषित कर देते हैं, वैसे ही आपके पोस्ट पर गाली खाने पर भी लोग आपको ही दोषी क्यों न मानें? यदि आपको यह लगता है कि आपको दी जाने वाली गाली खुद मोदी लिखवाते हैं तो फिर यह कहाँ से साबित होता है कि आप खुद नहीं लिखवाते ये गालियाँ जो आपके भक्त दूसरों को देते हैं?

देखिए, हम में से कोई भी भगवान नहीं है। कोई आदमी न तो पूर्ण है और न ही शत-प्रतिशत सही। ऐसे कई मौकों पर हम गलत भी होते हैं। ऐसे में हमें या तो गाली स्वीकार लेनी चाहिए या फिर अपनी गलती। हम अदना लोग तो ऐसा करते भी हैं मगर ये नामचीन लोग? कोई इनसे पूछ दे कि भई आप अफजल और कन्हैया पर तो टीवी स्क्रीन काला कर देते हैं मगर पुलवामा के दर्द पर आपको तकलीफ क्यों नहीं होता भला, तो क्या गलत है भाई? क्या पूछने का अधिकार सिर्फ आपको है? जनाब! आपको कोई आतंकी बनता इसलिए दिख जाता है क्योंकि उसको सेना ने पत्थर मारते पकड़ लिया और मारा भी था। लेकिन आए दिन जान बचाने वाली सेना के ही ख़िलाफ़ आतंकियों को प्रश्रय देने वाले पत्थरबाज गलत नहीं दिखते। आतंकियों को प्रोटेक्शन देते और सेना पर पत्थर से वार करते लोग आपको शान्ति-दूत दिखते हैं! आप ऐसा कौन सा चश्मा लगाते हैं कि आपको सेना अत्याचारी और पत्थरबाज भोले-भाले दिखते हैं? कभी सोचा है कि जैसे आपको सेना या पुलिस के टॉर्चर से कुछ लोग आतंकी बनते दिखते हैं, वैसे ही ट्विटर या फेसबुक पर आपके व आपके समर्थकों द्वारा टॉर्चर किए जाने पर भी लोगों ने हथियार उठा लिए तो क्या होगा?

बात मात्र इतनी सी है महोदय कि न तो इस तरह की वीभत्स आलोचना हरदम सही है और न ही आपके विचार। मगर आपको तो टीआरपी के लिए ऐसे ही मौकों की तलाश होती है… आपको बस ये कहने का बहाना मात्र चाहिए होता है कि देखो मोदी ने कितना इनटॉलेरेंस बढ़ा दिया।

वक़्त की मांग है। आप ध्यान से सोच लें। पब्लिक को जब आप देशद्रोही लगेंगे तो वो आपकी नामचीनता या मेरे अदनेपन को भूलकर सबको खदेड़ेगी ही… आप भले ही इस भीड़ को मोदी गैंग और फ़र्ज़ी राष्ट्रवादी कहें, सच ये है कि फिलहाल इस भीड़ में कोई भाजपाई, कॉन्ग्रेसी या फिर ब्राह्मण-दलित नहीं है। यदि आपको यह समझ नहीं आ रहा तो इंशा अल्लाह आपको प्रत्यक्ष रूप से कश्मीर में आजादी का नारा बुलंद करना चाहिए।

नोट : मैं अभद्र, अश्लील जबावों का स्क्रीनशॉट नहीं लगाता, आपको देखना हो तो रविश कुमार जी के किसी भी पोस्ट पर उनके भक्तों की पुष्प वर्षा देख सकते हैं।

Praveen Kumar: बेलौन का मैथिल