न अब वे ‘दादी जैसी नाक’ देखने आते हैं, न लड़कियाँ बस लड़ने को कूद सकतीं: 2022 के चुनावों का एक रिजल्ट यह भी

वोटरों को लुभाने में बेअसर रहे प्रियंका गाँधी के तमाम जतन (फोटो साभार: ANI)

“हे लुक मैन देट्स पूअर। हे मैन, टुम इडर कैसे रहता है…”

एक वक्त था जब अंग्रेज भारत में गरीबी देखने आते थे। ऐसा ही एक वर्ग होता है जो वक्त काटने के लिए किटी पार्टी करता है। उनको मैं गलत नहीं मानती। लेकिन जो महिलाएँ दोपहर को किटी के लिए खास तौर पर डिजाइन किए गए कपड़े पहन कर जाती हैं, वही थोड़ा और अपग्रेड होकर चैरिटी के लिए पूअर चिल्ड्रेन या गरीब वर्ग के बीच खिलौने-कपड़े बाँटने जाती हैं। लेकिन अंदर ही अंदर उन्हें अपने नेलपेंट की चिंता ज्यादा सताती रहती है।

इनके फन का शिकार होना भले गरीब तबके की मजबूरी होती है, लेकिन वह समझता सब है। आपका सब एलीट क्लास के हिसाब से चलता रहता है। उसमें से जब आप छाँटकर, ‘चलो कुछ दिन जनता की मौज ले लो’ टाइप में रैली के कपड़े खरीदते हैं, रैली के लिए साड़ियाँ डिजाइन करते हैं, तो जनता भी एक लेवल तक ही बर्दाश्त करती है।
जरा गंगा किनारे के संवाद देखिए;

ये क्या हो रहा है।
मैडम आरती हो रही है।
अच्छा, यहाँ रोज होती है

नेक्स्ट सीन में वही एक कलाकार के घर जाकर बैठ गईं। सामने 10 लोग खड़े थे। किसी ने याद दिलाया तो सामने वाले को बैठने के लिए कहा।

‘पब्लिक से कनेक्ट अच्छा है’, कहकर भले ‘रणनीतिकार’ खुश होते रहें, लेकिन पब्लिक से कनेक्ट सेलिब्रिटी और फैन वाला ही है। और अब तो वो फैन भी नहीं रहे। लोग बेहतर आँकते हैं भाई की तुलना में बहन को। अब बताइए, भला ये भी कोई पैमाना हुआ किसी को चुनने का। लोग अब ‘दादी जैसी नाक’ देखने नहीं आते हैं। यकीन मानिए, छोटे शहरों की लड़कियाँ आपको देखकर कौतूहलवश यही सोचती हैं- ड्राई फ्रूट्स खाती होगी, महँगा वाला फेशियल कराती होगी, कितनी अच्छी स्किन है…

‘लड़की हूँ-लड़ सकती हूँ’, के लिए बैकअप चाहिए होता है। बिना बैकअप लड़कियाँ बस लड़ने के लिए कूद नहीं सकतीं। बस वही बैकअप जहाँ मिलता दिख रहा है, वो उनको चुन रही हैं। जैसे कुछ लोगों के लिए आप एक लाइन में बात खत्म कर देते हैं कि वो दिल का बहुत अच्छा इंसान है। भाई वो शायद एआर रहमान बन सकते थे, लेकिन जीवन भर आपने उन्हें रामानुजम बनने के लिए फोर्स किया। वे रोहित शेट्टी हो सकते थे, लेकिन आप उन्हें नीरज चोपड़ा बनाने पर तुले रहे। जब भाला उठाना ही नहीं जानते तो फेकेंगे कहाँ से? इसलिए लक्ष्य तक ना पहले कभी पहुँच पाए हैं और ना आगे की कोई संभावना है। वो बस अपनी क्यूटनेस और फन फैक्टर पर सर्वाइव करते रहे हैं।

पहले तो वे गरीबी बर्दाश्त करें, फिर आप उनकी गरीबी की नुमाइश कर, सबके सामने रखकर, सबको दिखा-दिखाकर, उनकी बेइज्जती करा-कराकर कमाते रहें। गरीब हैं, मूर्ख नहीं। इसे मोदी-योगी की जीत मानकर उनसे मत कुढ़िए। जिस दिन आप बिना रैली वाला सूट सिलाए, ‘चलो आज लखनऊ की फ्लाइट पकड़ते हैं’ वाला एटीट्यूड त्यागकर, ईश्वर को हमेशा ही हाजिर नाजिर जानकर, स्कूटी का प्रलोभन दिए बिना, एक लड़की का घर से बाहर निकलना और घर से कॉलेज तक का सफर समझ लेंगी तब फर्क समझ में आएगा

खैर अभी भी आपके पास पार्टी अध्यक्ष बनने की असीम संभावनाएँ हैं। सेम टू सेम टीपू भैया पर भी लागू है। जब नेता युवा हो तो लोग उससे शालीनता, संस्कार और सुरक्षा की उम्मीद करते हैं। जिस अकड़ में आप रहते हैं, लोगों के प्रति आपका जो रवैया है, आपकी रैलियों में जो दिखता है, अगर आपके पास अपने पिता की राजनीतिक विरासत की पूँजी ना हो तो यकीन मानिए यदि आप किसी चौराहे पर कड़ी हों, तो लड़कियाँ वहाँ से बच कर ही निकलेंगी। क्योंकि भले ‘लड़के हैं, गलती हो जाती है’, पर बहुएँ समझदारी से समय को भाँप लेती हैं।

प्रमिला दीक्षित: प्रमिला करीब दो दशक से पत्रकारिता से जुड़ी हैं। निर्भया कांड से लेकर केदारनाथ त्रासदी तक को कवर कर चुकी हैं। मातृश्री, यूथ आइकन समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित की जा चुकी हैं।