‘हिंदुत्व=बोको हराम=ISIS’: संयोग नहीं सलमान खुर्शीद का प्रयोग, घूम-फिर कर मुस्लिम तुष्टिकरण की मूल कक्षा में लौटी कॉन्ग्रेस

कॉन्ग्रेस घूम-फिर कर मुस्लिम तुष्टिकरण की मूल कक्षा में लौटी

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव अब दूर नहीं रहे। जाहिर है विवाद भी अब नजदीक ही रहेंगे। आने वाले चुनाव कैसे लड़े जाएँगे, उसकी झलक लगभग चार महीनों से मिल रही थी पर अब सरगर्मियों ने गियर बदल लिया है। सरगर्मियों को दूसरे गियर में ले जाते हुए अखिलेश यादव ने देश की आज़ादी के लिए महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू के साथ जिन्ना को क्रेडिट दिया। बाद में उनके सहयोगी ओम प्रकाश राजभर ने उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए देश के विभाजन के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को जिम्मेदार बताते हुए जिन्ना की क्लीन चिट दे दी।

यह सब करने के बाद अखिलेश यादव ने अपने 400 सीटों वाली जीत पर सौवीं बार ठप्पा लगाया ही था कि कॉन्ग्रेस पार्टी की ओर से सलमान खुर्शीद ने माहौल पर कब्जा करने के चक्कर में हिंदुत्व, बोको हराम और ISIS को एक जैसा बता डाला। 

सलमान खुर्शीद ने जो कहा उस पर आश्चर्य व्यक्त करने का अभिनय तो किया जा सकता है पर आश्चर्य व्यक्त नहीं किया जा सकता। कम से कम वे, जिन्होंने खुर्शीद के राजनीतिक व्यक्तित्व और धार्मिक सोच को लंबे अरसे तक देखा है, उन्हें किसी तरह का आश्चर्य नहीं होना चाहिए। खुर्शीद के पिछले लगभग दस वर्षों के भी सार्वजनिक आचरण को याद किया जाए तो ऐसे कई मौके आए हैं जब उन्होंने अपने ज्ञान, शिक्षा वगैरह का लबादा उतार फेंका और कई बार इस धारणा को पुख्ता किया कि मॉडर्न, मॉडरेट और इंटेलेक्चुअल मुस्लिम नहीं होते। कोई आश्चर्य नहीं कि पिछले लगभग तीन दशकों में वैश्विक स्तर बनी इस धारणा का जो भारतीय स्वरूप है उसे पुख्ता करने में तमाम लोगों के साथ-साथ सलमान खुर्शीद का बड़ा योगदान रहा है।


पहले लिखी गई अपनी किताब में उन्होंने 1984 के सिख नरसंहार के बारे में क्या लिखा है, यह अधिकतर लोग पहले से जानते हैं। सरकार द्वारा प्रतिबंधित सिमी का मुक़दमा लड़ना हो, बाटला हाउस एनकाउंटर को फर्जी बताते हुए अपनी नेता सोनिया गाँधी के रोने की बात हो या कश्मीर से निकाले गए हिंदुओं की, खुर्शीद को कभी अपनी धार्मिक और राजनीतिक सोच के सार्वजनिक प्रदर्शन को लेकर किसी तरह का असमंजस नहीं रहा। ऐसे में उनका हिंदुत्व को बोको हराम या ISIS जैसा न केवल मानना बल्कि उसे सार्वजनिक तौर पर कहना उन्हें और उनकी सोच को पूरी तरह से प्रस्तुत करते हैं। साथ ही अन्य कॉन्ग्रेसी नेताओं द्वारा उनका समर्थन या विरोध न किया जाना भी यह बताता है कि इस तरह की सोच के सार्वजनिक प्रदर्शन का उद्देश्य क्या है।   


वैसे देखा जाए तो हाल के वर्षों में नेताओं की स्थाई सोच और उस सोच के सार्वजनिक प्रदर्शन में पहले से दिखने वाला अंतर लगातार घटता जा रहा है। इसका परिणाम यह है कि पिछले लगभग डेढ़ दशक में इसके कारण आई पारदर्शिता ने भारतीय राजनीति को नए तरह से देखने की सहूलियत दे दी है। लोग सीधे तौर पर देखने और दिखने लगे हैं। अखिलेश यादव या राजभर जिन्ना के बारे में क्या कहते हैं या खुर्शीद हिंदुत्व के बारे में क्या सोचते हैं, वह भारत भर के सामने है। ऐसे में इन नेताओं को इस बात का क्रेडिट मिलना चाहिए। जिस उद्देश्य के लिए वे ऐसा कह रहे हैं या कह रहे हैं, वह पूरा हो या न हो, पर इस प्रयास में ये लोग उस राजनीतिक ध्रुवीकरण को पुख्ता कर रहे हैं जिसका विरोध करने का अभिनय करते रहते हैं। 

भारतीय राजनीति का चरित्र ऐसा रहा है कि नेताओं की बातों और उनके कार्य को अधिकतर चुनावी राजनीति से जोड़ कर देखा जाता रहा है। चूँकि नेताओं द्वारा ये बातें चुनाव के आस-पास कही जा रही हैं इसलिए इन्हें चुनाव के परिप्रेक्ष्य में देखा और समझा जाएगा पर जहाँ तक स्थाई सोच के परिप्रेक्ष्य में देखने की बात है, इसके दीर्घकालिक परिणाम का अनुमान लगाना या समझना आम हिंदू के लिए असंभव नहीं है। पिछले गुजरात विधानसभा चुनाव के समय बनी राहुल गाँधी की नव हिंदू की छवि अब लगभग ख़त्म हो चुकी है। ऐसे में कॉन्ग्रेस घूम-फिर कर अपनी मूल कक्षा में जा पहुँची है। उसे पता चल चुका है कि आम हिंदू के मन में कॉन्ग्रेस की अच्छी छवि स्थापित करना मेहनत का काम है। हाँ, मुस्लिम तुष्टिकरण के अपने पुराने राजनीतिक दर्शन पर वापस जाकर वो जो कुछ करेगी उस पर हिंदू और हिंदू मतदाता की क्या राय है, यह आने वाले समय में पता चल जाएगा।