सिर्फ ‘तीसरे कैंडिडेट’ की भूमिका में है दिल्ली चुनावों में कॉन्ग्रेस, BJP ही लगा सकती है केजरी के झाँसों में सेंध

दिल्ली 2013 और 2015 में हुई ऐतिहासिक चुनावी उठा-पटक के बाद एक बार फिर चुनाव के लिए तैयार है। जंतर-मंतर में ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ जैसे आंदोलन से निकले अरविन्द केजरीवाल में आम आदमी ने अपने चेहरे को देखते हुए 2015 के विधानसभा चुनाव में 70 में से 67 सीटें आम आदमी पार्टी के खाते में डाल दीं।

हालाँकि, एक नाटकीय तरीके से शुरू हुआ यह क्रम जल्द ही जनता के सामने बेनकाब भी होता गया। लेकिन, बावजूद इसके अरविन्द केजरीवाल इन पाँच सालों में कभी राज्यपाल तो कभी दिल्ली सरकार के पास पुलिस और ‘अधिकार’ ना होने का रोना रोकर लगातार राष्ट्रीय चर्चा बने रहने में कामयाब रहे।

इस सबके बीच दिल्ली में आम आदमी की चर्चा में से कॉन्ग्रेस निरंतर गायब ही नजर आई। बात चाहे लोकसभा चुनावों की हो, आम आदमी पार्टी द्वारा किए गए फ्री वाई-फ़ाई और CCTV के अधूरे वादों की हो, या फिर मनोज तिवारी द्वारा दिल्ली में भाजपा को एक चेहरा देने के लिए की गई कोशिशों की हो, कॉन्ग्रेस हर पहलू पर चर्चा से नदारद ही मिली।

सबसे ज्यादा हैरान कर देने वाली बात देश में सबसे लम्बे समय तक इकतरफा सत्ता में रहने वाले कॉन्ग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल का पतन है। यदि मात्र दिल्ली की ही बात करें तो 15 साल सरकार चलाने के बाद 2013 के दिल्ली चुनाव में कॉन्ग्रेस मात्र 8 सीटें जीत सकी। फिर जब 2015 में चुनाव हुए तो यह पार्टी अपना खाता तक खोल पाने में नाकाम रही। हालात यह हैं कि अब 2020 के विधानसभा चुनावों में भी यह पार्टी संघर्ष करती हुई नजर आ रही है।

कैंडिडेट्स की लिस्ट जारी करने में अभी तक सिर्फ आम आदमी पार्टी ही सबसे ज्यादा आत्मविश्वास में नजर आई है। आम आदमी पार्टी ने पहले ही झटके में सभी 70 सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कि, जबकि भाजपा ने भी 57 सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर दी है। हालाँकि, आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविन्द केजरीवाल के विरुद्ध एक चेहरा उतारने में भाजपा ने अभी भी कोई जल्द बाजी नहीं दिखाई है। कॉन्ग्रेस ने अभी तक 54 उम्मीदवारों को नामित कर लिया है लेकिन दिल्ली में पार्टी का चेहरा कौन होगा, इस बात पर अभी भी संशय ही है।

एक समय तक दिल्ली में कॉन्ग्रेस का मुख्य चेहरा माने जा रहे अजय माकन इस चुनाव में बहुत उत्साहित नजर नहीं आ रहे हैं। ऐसे में अरविंदर सिंह लवली, जो कि दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शिला दीक्षित के करीबी माने जाते रहे, पर ही कॉन्ग्रेस अपना विश्वास जता सकती है। यूँ तो भाजपा के पूर्वांचल के मास्टरस्ट्रोक के खिलाफ कॉन्ग्रेस महाबल मिश्र जैसे चेहरे को सामने ला सकती है, लेकिन कॉन्ग्रेस के इस वरिष्ठ नेता के बेटे विनय मिश्र ने हाल ही में आम आदमी पार्टी से नाता जोड़ लिया है और AAP ने उन्हें द्वारका से टिकट भी दे दिया है। ऐसे में महाबल मिश्र अपने बेटे के ख़िलाफ़ कोई कदम उठाएँगे यह संभव नहीं लगता है।

लेकिन कॉन्ग्रेस के लिए पार्टी का एक चेहरा तलाशने से ज्यादा ज़रूरी इस समय दिल्ली चुनाव में खुद को किसी तरह प्रासंगिक बनाए रखना है। दिल्ली में ही होने के बावजूद कॉन्ग्रेस इस चुनाव में पूरी तरह से उदासीन ही नजर आ रही है। आखिरी बार कॉन्ग्रेस जब वाहवाही बटोरती हुई देखी गयी थी, तब उसने 2013 के चुनाव में आम आदमी पार्टी को अपना बाहरी समर्थन देकर और लोकपाल के मुद्दे पर किनारा कर अरविन्द केजरीवाल के एजेंडे को बेनकाब करने (न चाहते हुए भी) का काम किया था।

कॉन्ग्रेस आज देश में इतनी पस्त है कि अक्सर वो भाजपा की हार पर खुश होती देखी जा सकती है। कभी जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी जैसे चेहरों वाले कॉन्ग्रेस दल ने आज अपने लक्ष्य इतने सीमित कर दिए हैं कि उसके लिए अपनी जीत से ज्यादा महत्वपूर्ण भाजपा के हारने की खबरों का इन्तजार रहने लगा है। अक्सर कॉन्ग्रेस के नेता लोगों को भाजपा के खिलाफ एकजुट होने जैसा बयान देते।

हाल ही में पी चिदंबरम ने भी कहा कि लोगों को CAA और NRC के विरोध के जरिए भाजपा के खिलाफ एक मंच पर आना चाहिए। जिसका स्पष्ट अर्थ विरोधी दलों को कॉन्ग्रेस के झंडे के नीचे शरण देने का आह्वाहन था। लेकिन दिल्ली चुनावों में कॉन्ग्रेस किसी और को समर्थन क्या देगी, इस चुनाव में तो अगर कोई सबसे छोटा दल नजर आ रहा है तो वो खुद कॉन्ग्रेस है।

दिल्ली चुनावों में सबसे बेहतरीन बात यह है कि यह आम जनता के मुद्दों पर लड़ा जा रहा है। अरविन्द केजरीवाल ने लोगों को मुफ्त बिजली और पानी देने के बहाने साफ़ पानी, बिजली की निरंतरता, सस्ता इलाज और अच्छी शिक्षा जैसे कई अन्य बुनियादी जरूरतों की ओर ध्यान ही नहीं जाने दिया है। वहीं भाजपा दिल्ली में सरकार बनाने के एक मौके के इन्तजार में है। अरविन्द केजरीवाल जिस तरह के आरोप-प्रत्यारोप और केंद्र सरकार पर बदले की राजनीति करने के आरोप लगाकर पाँच साल काट चुके हों, यह भी हो सकता है कि जनता इसका दीर्घकालीन उपचार कर भाजपा को ही दिल्ली की सत्ता सौंप दे।

अरविन्द केजरीवाल ने अपनी ही पार्टी के कुछ जीते हुए प्रत्याशियों की जगह दल-बदलकर आए हुए नेताओं को प्राथमिकता दी है, जिसका प्रभाव दिल्ली चुनाव परिणामों पर पड़ना तय है। इसके अलावा आम आदमी पार्टी दिल्ली में सिख समुदाय और पूर्वांचल के वोट बैंक को साधने का हर संभव प्रयास करेगी। ऐसे में देखना यह है कि कपिल मिश्रा और मनोज तिवारी आम आदमी पार्टी के साथ अपने एक्सपीरियंस का इस्तेमाल भाजपा के लिए दिल्ली में जगह बनाने के लिए कर पाते हैं या नहीं?

खुद को वोट कटुआ पार्टी कहने वाली कॉन्ग्रेस तब भी कहीं मैदान में नजर नहीं आती है। वैसे भी कॉन्ग्रेस का योगदान इस चुनाव में सिर्फ आम आदमी पार्टी का ‘सेक्युलर’ वोट काटने तक ही सीमित रहने वाला है। आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविन्द केजरीवाल से झगड़ा मोल लेकर उनकी विधायक अलका लंबा ने भी कॉन्ग्रेस की डूबती नाँव का सहारा लिया है। चाँदनी चौक विधानसभा इसी वजह से चर्चा का विषय भी बनी रहेगी।

इसके अलावा कालका जी सीट से आतिशी मार्लेना, मॉडल टाउन से कपिल मिश्रा और नई दिल्ली सीट से अरविन्द केजरीवाल इस चुनाव का हॉट टॉपिक रहने वाले हैं। आमिर खान और सलमान खान की एक मशहूर फिल्म अंदाज अपना-अपना में रवीना जी और करिश्मा जी को पाने रेस में एक समय एक ‘तीसरा’ कैंडिडेट भी नजर आया था, कॉन्ग्रेस की हालात आज उस तीसरे कैंडिडेट से भी बद्तर है।

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