महात्मा गाँधी की हत्या के लिए सजा क्यों नहीं? गोडसे ने कोर्ट को क्या तर्क दिए? मुकदमे से संबंधित दस्तावेज पढ़ने पर रोक क्यों?

गोडसे के बयान पर सरकार ने रोक लगा दी थी

मानवता के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो हत्या को समाज में सबसे घिनौना अपराध माना जाता रहा है। किसी की हत्या का अर्थ न केवल उसके जीवन का अंत होता है बल्कि वह समाज में औरों के जीवन को भी प्रभावित करती है। इतिहास में झाँके तो पाएँगे कि अपराध, न्याय, न्यायिक प्रक्रिया और न्यायालय के परिप्रेक्ष्य में तमाम मुकदमों में हत्या के मुकदमे सबसे अधिक चर्चित रहने के साथ-साथ कौतूहल भी जगाते रहे हैं। आम व्यक्तियों की हत्या के मामले में भी यह कौतूहल इस बात का मोहताज नहीं रहता कि जिसके मन में जगा है, उसका मारने या मरने वाले से सम्बन्ध है या नहीं। पर यदि बात किसी आम व्यक्ति के बारे में न होकर महात्मा गाँधी के बारे में हो तो स्वाभाविक है कि यह कौतूहल कई गुना बढ़ जाएगा। आखिर महात्मा गाँधी हमारे राष्ट्रपिता थे। 

आज 27 मई है। आज के ही दिन महात्मा गाँधी की हत्या का ट्रायल 1948 में शुरू हुआ था। 73 वर्ष बीत गए हैं पर महात्मा की हत्या के मुकदमे की प्रक्रिया को लेकर लोगों के बीच आज भी किसी न किसी तरह का कौतूहल बना हुआ है। प्रश्न उठते रहते हैं। कितने लोग हत्या के षड्यंत्र में शामिल थे? जितने लोग शामिल थे क्या सब को सजा मिली? क्या महात्मा की हत्या के पीछे किसी संस्था का भी हाथ था? जिन्हें फाँसी दी गई, क्या केवल उन्हीं को फाँसी दी जानी चाहिए थी? क्या अपराध के इस मामले में कुछ ऐसे लोग शामिल थे जिनके बारे में उतनी बात नहीं हुई जितनी गोडसे के बारे में हुई? गोडसे को यदि लगता था कि उसे सजा नहीं मिलनी चाहिए तो उसे ऐसा क्यों लगता था? गोडसे ने अपने बचाव में क्या कहा होगा जिसे आज तक हम नहीं जान पाए? गोडसे को 15 नवम्बर, 1949 के दिन फाँसी पर चढ़ाया गया था। क्या ऐसी संभावना थी कि 26 जनवरी, 1950 को सुप्रीम कोर्ट के अस्तित्व में आने से उसकी फाँसी रुक जाती और उसकी अपील को सुप्रीम कोर्ट स्वीकार कर लेता? क्या महात्मा की हत्या का मुकदमा अपने अंतिम पड़ाव पर सुप्रीम कोर्ट में पहुँच सकता था?

ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो समय-समय पर पूछे जाते हैं और सामाजिक और राजनीतिक बहस का हिस्सा बनते हैं। समय-समय पर सरकार के पास आरटीआई के तहत आवेदन भी किए जाते रहे हैं जिनमें न्यायिक प्रक्रिया के दस्तावेजों से लेकर जाँच से संबंधित दस्तावेजों को जारी करने की माँग होती है। इस विषय पर केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा 2017 में दिया गया एक महत्वपूर्ण फैसला है, जिसमें केंद्र सरकार से कहा गया था कि वह महात्मा गाँधी की हत्या से मुक़दमे से सम्बंधित दस्तावेजों को डी-क्लासिफाई कर उन्हें सार्वजनिक करे ताकि आरटीआई के तहत समय-समय पर आने वाले आवेदन की आवश्यकता न पड़े और लोगों को भी ऐसे ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण मुक़दमे के सम्बन्ध में पता चले। यह और बात है कि सरकार की ओर से इसे लेकर कोई कदम नहीं उठाया जा सका है। हाल में महात्मा की हत्या से जुड़े बिंदुओं की चर्चा इसलिए भी बढ़ गई है क्योंकि नेताजी सुभाष चंद्र बोस से सम्बंधित कुछ दस्तावेजों को प्रधानमंत्री मोदी ने डी-क्लासिफाई करवाया था। 

नेताओं और उनके जीवन या मृत्यु को लेकर हर देश और समाज के लोगों में उत्सुकता रहती है पर यदि बात महात्मा गाँधी, अब्राहम लिंकन या जॉन कैनेडी के जीवन या मृत्यु/हत्या की हो यो यह उत्सुकता अलग ही स्तर पर पहुँच जाती है। यदि पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों, खासकर अमेरिका से तुलना करें तो पाएँगे कि अमेरिकी सरकार अपने बनाए प्रोटोकॉल के तहत समय-समय पर सरकारी दस्तावेजों को डी-क्लासिफाई करती रही है। ऐसे में यह माँग स्वाभाविक हो जाती है कि हमारी सरकार भी ऐसे राजनीतिक और ऐतिहासिक दस्तावेजों को समय-समय पर डी-क्लासिफाई करे। यह आधुनिक लोकतंत्र में पारदर्शिता के लिए आवश्यक भी है और तर्क सम्मत भी। वैसे भी देखा जाए तो हमारे नेताओं के जीवन से संबंधित बहुत सारे तथ्य हैं जो हाल के वर्षों में सरकारी दस्तावेजों के रूप में नहीं तो किसी न किसी और रूप में देश के राजनीतिक और सामाजिक जीवन का हिस्सा बने हैं और उन पर एक बहस भी होने लगी है।      

पिछले सत्तर वर्षों के राजनीतिक और सामाजिक संवादों में नाथूराम गोडसे को भारत का सबसे घृणित व्यक्ति बताया जाता रहा है। इन संवादों का चरित्र ऐसा रहा है कि महात्मा का नाम आते ही गोडसे का नाम अपने आप आ जाता है। खुद गोडसे पर बहुत कुछ लिखा गया है। कुछ लोग उसके समर्थन में उतरने लगे हैं। ख़बरों की मानें तो कुछ अति उत्साही लोगों ने तो उसके लिए मंदिर भी बनवा रखा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से उसके संबंधों की चर्चा तथ्यों को अलग रखकर की जाती रही है। सुविधानुसार हिन्दू महासभा से उसके संबंधों को पीछे फेंकते हुए उसे संघ से जानबूझकर बार-बार जोड़ा जाता रहा है। राहुल गाँधी जबसे नेता बने हैं, आए दिन तथ्यों को परे रख कर कहते रहते हैं कि महात्मा गाँधी की हत्या संघ के लोगों ने की है। यह बात अलग है कि ऐसा कहने के लिए उनके ऊपर मुकदमा चल रहा है, जिसकी तारीखों से वे भागते रहते हैं।

पिछले तीन-चार वर्षों में राजनीतिक बहस पर नजर डालें तो ऐसे भी उदाहरण देखने को मिलते हैं जब गोडसे को तथाकथित हिन्दू आतंकवाद से जोड़ने की कोशिश भी की गई। उसे भारत का पहला आतंकवादी बताते हुए कहा गया कि भारत का पहला आतंकवादी हिन्दू था। गोडसे के नाम का इस्तेमाल लोग अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए बिना किसी हिचक के करते रहे हैं।

नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे को भी महात्मा की हत्या की साज़िश के आरोप में गिरफ्तार किया गया था पर 1964 में उन्हें रिहा कर दिया गया। उन्होंने भी अपने भाई पर लिखा। देश के इतिहास और समाज में महात्मा गाँधी का जो स्थान रहा है उसके कारण गोडसे का पूरा परिवार अपने माथे पर एक कलंक लिए जीता होगा। ऐसे में क्या यह आवश्यक नहीं हो जाता कि हत्या के इस मुक़दमे से सम्बंधित दस्तावेज जनता के लिए उपलब्ध कराए जाएँ? लोग देखें तो कि अपने बचाव में गोडसे ने क्या कहा? किन कारणों से उसे लगता था कि उसे सजा नहीं मिलनी चाहिए? जब उसे और उसके साथियों को पूर्वी पंजाब हाईकोर्ट से सजा मिली तो फिर उसे अपने खिलाफ मुक़दमे और दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील का अधिकार क्यों नहीं दिया गया? हत्या के तीन और आरोपियों के विरुद्ध किसी तहकीकात के सबूत नेशनल आर्काइव में क्यों नहीं मिलते? महात्मा की हत्या के बाद देश में, खासकर महाराष्ट्र में उत्पन्न हुई परिस्थितियों के बारे में लोगों को पता चले। पता चले कि जो महात्मा गाँधी जीवन भर अहिंसा का पाठ पढ़ाते रहे उनकी हत्या के बाद महाराष्ट्र में क्यों ब्राह्मणों को क्या केवल इसलिए मारा गया क्योंकि गोडसे ब्राह्मण था?                 

केंद्रीय सूचना आयोग के 2017 के फैसले के बाद सरकार को चाहिए कि ऐसे दस्तावेजों को डी-क्लासिफाई करे ताकि पिछले सत्तर वर्षों से उठते रहने वाले ऐसे प्रश्नों का उत्तर मिले। ऐसे कदम हमारे लोकतंत्र को पारदर्शी ही बनाते हैं। वैसे ही हमारे इतिहास और इतिहासकारों की प्रामाणिकता को लेकर आए दिन प्रश्न और विवाद उठते रहते हैं जिसकी वजह से सामाजिक और राजनीतिक विवादों में तमाम स्थापित मान्यताओं को शंका की दृष्टि से देखा जाता है। इसका असर यह होता है कि सहज संवाद भी विवाद का कारण बनते हैं। ऐसे में ऐतिहासिक दस्तावेजों तथ्यों का डी-क्लासिफिकेशन संवादों से उत्पन्न होने वाले विवाद को रोकने में सहायक ही होगा। बस देखना यह है कि ऐसा हो पाता है क्या, और यदि हो पाता है तो कब?