‘वन नेशन, वन इलेक्शन’: बार-बार चुनावों से अर्थव्यवस्था पर वित्तीय बोझ; जानिए क्यों जरूरी है चुनाव सुधार, लोगों को भी मिलेगी राहत

मतदाता (साभार: जागरण)

भारत का सार्वजनिक ऋण-से-जीडीपी अनुपात वित्त वर्ष 2005-06 में 81% से थोड़ा बढ़कर 2021-22 में 84% हो गया है। इसके बाद वित्त वर्ष 2022-23 में फिर वापस 81 प्रतिशत हो गया। मार्च 2023 के अंत में केंद्र सरकार का कर्ज 155.6 लाख करोड़ रुपए या सकल घरेलू उत्पाद का 57.1% था। राज्य सरकारों ने कुल ऋण बोझ में सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 28% जोड़ा।

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहाँ चुनाव लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था से नियंत्रित राजनीति का सबसे खास हिस्सा है। कोई भी लोकतंत्र इस आस्था पर काम करता है कि चुनाव स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होंगे। इसमें हेरफेर और धाँधली नहीं होगी। वहीं, निरंतर चुनावों का आयोजन और लागत देश की अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य को बिगाड़ रहे हैं।

दरअसल, चुनावों का आयोजन करने के लिए बहुत बड़ी राशि निवेश की जाती है। इसमें विभिन्न धार्मिक दलों, राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को धन एवं संसाधनों का इस्तेमाल करने की जरूरत होती है। निरंतर चुनाव की वजह से देश की आर्थिक स्थिति पर भी बोझ बनता है। चुनावों की तैयारी के लिए अधिक समय और उम्मीदवारों का ध्यान केंद्रित करने के लिए जनता का भी ध्यान विचलित होता है।

निरंतर चुनाव का चक्र राजनीतिक और आर्थिक प्रक्रिया को प्रभावित करता है और सरकार के कामकाज को भी बाधित करता है। चुनावों के चलते रहने से शासकीय स्थिरता की कमी होती है, जो लंबे समय तक निरंतर नीतियों को लागू करने की क्षमता को प्रभावित करती है। इससे देश में अस्थिरता की स्थिति बनी रहती है, जिससे निवेशकों का भरोसा कम होता है और आर्थिक विकास पर भी असर पड़ता है।

इन समस्याओं के बावजूद, चुनाव एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है और उसका महत्व भी है। हालाँकि, समय-समय पर इसे सुधारने की आवश्यकता होती है, ताकि देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचाने से बचाया जा सके। डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर का उपयोग करके चुनावी प्रक्रिया को सुगम बनाने और लागत को कम करने में मदद मिल सकती है।

वर्तमान में निरंतर चुनावों की सीमा को स्थापित करने की आवश्यकता है, ताकि स्थिरता एवं समर्थन को बढ़ावा मिल सके। चुनावों के लगातार चक्र को कम करने के लिए लंबे समय में और विभिन्न चुनावों को एक साथ चुनाव करने की प्रणाली स्थापित की जा सकती है। चुनावी लागत को सँभालने के लिए सार्वजनिक उद्यमों को भी सहायता प्रदान की जा सकती है। प्रत्येक चुनाव में भारी मात्रा में धन जुटाना पड़ता है।

एक साथ चुनाव कराने पर राजनीतिक दलों का चुनावी खर्च बहुत कम हो सकता है। इससे धन उगाही का दोहराव नहीं होगा। इससे जनता और व्यापारिक समुदाय को चुनावी चंदे के बारंबार दबाव से भी मुक्ति मिलेगी। एक रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में 60,000 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। यदि एक साथ चुनाव कराए जाते हैं तो निर्वाचन आयोग के खर्च को भी कम किया जा सकता है।

‘एक देश, एक चुनाव’ अवधारणा पर चुनाव आयोजित कराने हेतु आवश्यक बुनियादी ढाँचा स्थापित करने के लिए चुनाव आयोग को आरंभ में व्यापक धनराशि का निवेश करना होगा। इसके साथ ही सभी चुनावों के लिए एक ही मतदाता सूची का उपयोग किया जा सकता है। इससे मतदाता सूची को अपडेट करने में लगने वाले समय और धन की भारी बचत होगी।

इससे नागरिकों के लिए भी आसानी होगी, क्योंकि उन्हें एक बार सूचीबद्ध हो जाने के बाद मतदाता सूची से अपना नाम गायब होने की चिंता से मुक्ति मिलेगी। इन कदमों का अभिवादन करते हुए संवेदनशीलता और प्रायोजनशीलता के साथ चुनाव प्रक्रिया को सुधारा जा सकता है, ताकि यह देश की अर्थव्यवस्था पर अधिक असर न डाले। राजनीतिक भ्रष्टाचार का एक मुख्य कारण बार-बार होने वाला चुनाव भी है।

(लेखिका सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं।)

Reena Singh: Advocate, Supreme Court. Specialises in Finance, Taxation & Corporate Matters. Interested in Religious & Social issues.