कुंभ से कोरोना, चुनावी रैली स्थगित कर रोना… लेकिन ‘किसानों’ को समर्थन देना: देश के संघर्ष में यह है विपक्षी दलों का चरित्र

देश के संघर्ष में यह है विपक्षी दलों का चरित्र

किसी भी दम तोड़ते आंदोलन के लिए कहीं से भी मिलने वाला समर्थन ऑक्सीजन की तरह होता है। किसान आंदोलन के लिए वही समर्थन खाद-पानी की तरह है। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि दिल्ली के बॉर्डर पर आंदोलनरत किसान उन्हें मिलने वाले देसी, विदेशी, हिन्दुस्तानी या खालिस्तानी, हर तरह के समर्थन को तुरंत स्वीकार कर लेते हैं। उनके साथ जैसे उनकी माँगों के औचित्य पर बात नहीं हो सकती, वैसे ही इस पर बात नहीं हो सकती कि उन्हें मिल रहा समर्थन किस ओर से और किससे आ रहा है। 

समर्थन के लेन-देन में लिप्त लोग इस पर बात करने के लिए तैयार नहीं कि जिन कानूनों को रद्द करने की माँग पर यह आंदोलन खड़ा किया गया है उन माँगों को लेकर पहले उनका मत क्या था। इनके साथ इस विषय पर भी बातचीत संभव नहीं है कि जब कानून को पहले ही अट्ठारह महीनों के लिए स्थागित कर दिया गया है तो फिर महामारी के दिनों में संक्रमण की संभावनाओं को देखते हुए आंदोलन को कुछ दिनों के लिए स्थगित क्यों नहीं किया जा सकता?     

आंदोलन जब से शुरू हुआ है, तब से अब तक, ऐसा नहीं है कि किसानों ने केवल समर्थन लिया है। उन्होंने समर्थन दिया भी है। उनके नेता हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में अपने समर्थक दलों और नेताओं के समर्थन में आंदोलन की जगह से चलकर चुनाव वाले राज्यों में गए और उनके लिए वोट की अपील भी की। समर्थन लेन-देन की यह प्रक्रिया तब से जारी है। इस लेन देन संबंधित ताजा घटनाक्रम में कॉन्ग्रेस सहित बारह प्रमुख विपक्षी दलों ने 26 मई को होने वाले संयुक्त किसान मोर्चा के देशव्यापी विरोध को अपने समर्थन की घोषणा की है।

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किसी को इस बात से मतलब नहीं है कि लगातार हो रहे आंदोलन को क्या व्यावहारिकता की कसौटी पर कसा जा सकता है? प्रश्न यह है कि भारत के लिए चिंतित रहने का दावा करने वाले पहले से ही महामारी के कारण उत्पन्न हुई आर्थिक मंदी के दौर में आंदोलन से होने वाले आर्थिक नुकसान की बात क्यों नहीं करते? टिकरी और गाज़ीपुर बॉर्डर के आस-पास के लोगों को होनेवाली असुविधाओं को लेकर बातचीत क्यों नहीं हो सकती? जब पूरा देश कोरोना से लड़ रहा है तब संक्रमण को रोकने के लिए प्रयासरत सरकारें किसानों के इस जमावड़े को लेकर कुछ बोलती क्यों नहीं?    

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हिन्दुओं के कुंभ को सुपर स्प्रेडर बताने वाली कॉन्ग्रेस, उसके साथी दल, किसानों के समर्थक और मीडिया का मानना है कि किसान यदि दिल्ली बॉर्डर पर धरना देंगे तो कोरोना नहीं फैलेगा पर वही किसान यदि कोरोना रोकने को लेकर पंजाब सरकार की विफलता पर विरोध करने के लिए इकठ्ठा होंगे तब संक्रमण फैलने की संभावना रहेगी।

रिपोर्ट के अनुसार पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने किसानों से अनुरोध किया है कि वे उनकी सरकार की विफलता के विरुद्ध 28 मई से होने वाले अपने तीन दिन के धरने को वापस लें क्योंकि वह धरना सुपर स्प्रेडर हो सकता है। 

यह कैसी राजनीति है? पंजाब की सरकार दिल्ली में किसानों के धरने को पूरा समर्थन देती हैं पर पंजाब में उनके धरने को संक्रमण फैलाने का साधन बताती हैं? दिल्ली में किसानों के धरने को दिल्ली सरकार का पूरा समर्थन है। भारत में कोरोना की तीव्र दूसरी लहर के लिए कई लोग किसान आंदोलन के धरनों को जिम्मेदार मानते हैं। ऐसे लोगों का मानना है कि भारत में कोरोना की दूसरी लहर के लिए जिम्मेदार स्ट्रेन ब्रिटेन से चलकर किसान आंदोलन के रास्ते भारत में पहुँचा। यह बहस का मुद्दा हो सकता है और नहीं भी, पर क्या इस बात से इनकार किया जा सकता है कि ईद के जमावड़े और किसानों के धरने को छोड़ कर भारत में होने वाले लगभग हर जमावड़े को कोरोना के लिए जिम्मेदार बताया जा चुका है?

यदि कुंभ में स्नान के लिए पहुँचने वाले हिन्दुओं की वजह से कुंभ को सुपर स्प्रेडर बताया जा सकता है या पश्चिम बंगाल की राजनीतिक रैलियों में जमा होने वालों को संक्रमण के लिए जिम्मेदार बताया जा सकता है तो किसानों के इतने बड़े धरने को जिम्मेदार क्यों नहीं बताया जा सकता? इन धरनों में लोग पहले से बैठे ही थे, और लोग लगातार आ रहे हैं जिन्हें देखने से ही पता चलता है कि वे संक्रमण रोकने के लिए घोषित नियमों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं पर उनसे कोई प्रश्न नहीं पूछ सकता।  

लॉकडाउन के नियमों का पालन न करने के बावजूद किसानों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं होती। कार्रवाई तो दूर, समर्थन देने वाली सरकार, विपक्षी दल, मीडिया और आन्दोलन जीवियों ने आजतक एक बार अनुरोध भी नहीं किया कि आंदोलन जारी करना है तो किसान संक्रमण रोकने के लिए एक न्यूनतम प्रोटोकॉल का पालन कर प्रयासरत सरकारों की मदद करें। उल्टा कथित तौर पर कमल नाथ किसानों को अपने दल द्वारा दिए जा रहे समर्थन को एक अलग ही स्तर पर ले जाते हुए अपने कार्यकर्ताओं को निर्देश देते हैं कि वे किसानों के समर्थन में आग लगा दें। पर जब वही किसान पंजाब सरकार के खिलाफ धरने पर बैठना चाहते हैं तो कान्ग्रेस के नेता उनके सामने विनती करने लगते हैं। 

किसानों का आचरण शुरू से ऐसा रहा है जैसे उन्हें किसी बात की फिक्र ही नहीं है और उनके लिए उनका यह आंदोलन देश हित के ऊपर है। उनके जो नेता शुरूआती दिनों में राजनीति को लेकर चौकन्ने दिखने की कोशिश भी करते थे, वे भी अब बिना किसी लिहाज के आचरण करने पर उतर आए हैं। उधर महामारी काल में भी विपक्षी दलों का आचरण राजनीतिक रसातल पर दिखाई दे रहा है। संक्रमण रोकने का उनकी सरकारों के प्रयासों में कमी हो या केंद्र सरकार से शिकायत, वैक्सीन को लेकर अफवाहों की बात हो या टीकाकरण पर राजनीति, पी एम केयर्स द्वारा राज्यों को दिए गए उपकरणों का दुरुपयोग हो या केंद्र सरकार के प्रयासों का विरोध, विपक्षी दल और उनके नेता अभी तक गलत जगह खड़े हुए दिखे हैं और उनके द्वारा छेड़ी गई राजनीतिक लड़ाई ने कोरोना के विरुद्ध देश के संघर्ष को पीछे छोड़ दिया है।