न तेल, न तेल की धार, फिर यूपी की सियासी खेत में कितना दौड़ेगा ‘किसान आंदोलन’ का ट्रैक्टर

यूपी में बीजेपी को हराने के संकल्प में कितना दम (प्रतीकात्मक तस्वीर, साभार: आउटलुक)

किसान आंदोलन के नेताओं ने एक बार फिर से गोल पोस्ट उठाकर दूसरी जगह रख दिया है। उनका कहना है कि छह महीने तक दिल्ली में आंदोलन करने के बाद अब वे 2022 के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (BJP) को हराने के उद्देश्य से उत्तर प्रदेश में आंदोलन करेंगे।

कथित कृषि सुधारों के उद्देश्य से खड़ा किया गया आंदोलन नए कृषि कानूनों को रद्द करने की माँग होते हुए बीजेपी को चुनावों में हराने की ओर मुड़ गया है। वे केवल उत्तर प्रदेश तक ही नहीं रुके। उनका कहना है कि वे अब आने वाले हर चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को हराने के उद्देश्य से पार्टी के खिलाफ प्रचार करेंगे। ऐसा शायद वे इसलिए कह रहे हैं कि उन्हें इस बात का विश्वास है कि उनके आंदोलन की वजह से ही पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी वापस सत्ता में आ सकी और किसान नेता अपने करिश्मा का इस्तेमाल अब और राज्यों में भी करना चाहते हैं।
  
मुझे नहीं लगता कि इन नेताओं की यह घोषणा किसी को आश्चर्यचकित करेगी। जबसे यह आंदोलन शुरू किया गया है, इसके उद्देश्य बदलते रहे हैं। इस तरीके का इस्तेमाल अक्सर वे कंपनियाँ करती हैं जिनकी शुरुआत एक छोटे से उद्देश्य को लेकर होती है, पर जैसे-जैसे वे बड़ी होती जाती हैं उनके उद्देश्य बदलते रहते हैं। आंदोलन के शुरुआती दौर में पहले यह बात फैलाई गई कि सरकार एमएसपी हटाने वाली है। जब सरकार ने कहा कि उसका ऐसा कोई इरादा नहीं है तो कहा गया कि यदि ऐसा है तो सरकार लिख कर दे कि वह एमएसपी नहीं हटाएगी। जब सरकार लिखकर देने के लिए राजी हुई तब उसकी बात की अनदेखी कर कहा गया कि सरकार ने कानूनों में ऐसा प्रावधान कर दिया है कि किसानों की जमीन चली जाएगी।

जब उनसे पूछा गया कि कानून में ऐसा प्रावधान कहाँ है तो उसके जवाब में कहा गया कि कानून रद्द करना पड़ेगा। जब उनसे यह पूछा गया कि कानून की जिन धाराओं या अनुच्छेदों को लेकर उन्हें शिकायत है, सरकार उस पर बातचीत करने के लिए तैयार है तो कहा गया कि कोई बातचीत नहीं होगी। सरकार के पास एक ही रास्ता है और वह है कानूनों को वापस लेना।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा कानूनों को 18 महीनों के लिए रोक देना भी किसी काम न आया और आंदोलन जस का तस चलता रहा। बिना यह परवाह किए कि अपने इस आंदोलन से किसान बाकी लोगों का कितना नुकसान कर रहे हैं। बिना यह सोचे कि किसी कानून के संबंध में बहस हो सकती है, किसी एक तरफ से फैसला नहीं सुनाया जा सकता। बिना यह सोचे कि देश भर की कृषि का अर्थ मात्र पंजाब और हरियाणा की कृषि नहीं है। पर यह बातें कोई पक्ष तब सोचेगा जब आंदोलन का उद्देश्य कृषि कानूनों पर एक आम राय बनाना हो। जब उद्देश्य कुछ और हो तब न तो किसानों का भला होगा और न ही आंदोलन का।

सुप्रीम कोर्ट की कोशिशों को भी तवज्जो न देने में इस आंदोलन का असली चेहरा दिखाई देता है। किसानों की यह सोच उनके और सरकार के बीच किसी तरह के विमर्श या बहस का रास्ता बंद कर देती है। यही कारण है कि पिछले चार महीने में आंदोलन को जीवित रखना किसानों के लिए ख़ासा मेहनत भरा रहा। यही कारण है कि किसान कभी किसी बात की घोषणा करते हैं तो कभी किसी बात की। ऊपर से जब से सरकार ने फसल का मूल्य सीधे किसानों के खाते में ट्रांसफर करना शुरू किया है, नेताओं के लिए इस आंदोलन को बाँधे रखना मुश्किल हो गया है। 

किसान आंदोलन और कृषि कानूनों को लेकर अब तक सार्वजनिक बहस तकनीकी और कानूनी रही है। सरकार की नीतियों और कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली नई सुविधाओं का सरकार के घोषित उद्देश्य, अर्थात किसानों की आय बढ़ाने की योजना पर क्या असर पड़ रहा है या पड़ने वाला है,इन विषयों पर अभी तक सार्वजनिक विमर्श नहीं देखा गया है। आंदोलन भी अभी तक दिल्ली, पंजाब और हरियाणा तक ही सीमित रहा है।

जिस पश्चिम बंगाल में चुनाव परिणाम को प्रभावित करने का गुमान किसान नेताओं को है, वहाँ भी उन्हें किसानों का कोई समर्थन नहीं है। ऐसे में जब सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं का असर किसानों की आय पर दिखाई देगा, इस आंदोलन को और राज्यों में समर्थन मिलना आसान न होगा। लिहाजा किसान नेता अपने आंदोलन के उद्देश्य बार-बार बदलते रहना कब तक अफोर्ड सकेंगे यह देखना दिलचस्प रहेगा। अभी तक किसानों के लिए इस आंदोलन को जारी रखना आसान काम नहीं रहा है। बनावटी उद्देश्यों के साथ किसी भी आंदोलन को लम्बे समय तक जारी रखना वैसे भी आसान नहीं रहता। ऐसे में टिकैत या और नेताओं का बार-बार यह कहना कि वे 2024 आंदोलन जारी रखने की क्षमता रखते हैं, उनकी दृढ़ता को नहीं बल्कि उनकी कमज़ोरी को दर्शाता है। 

किसान नेताओं की मानें तो उनके उत्तर प्रदेश में राजनीति करने के फैसले के पीछे शायद हाल ही में संपन्न हुए पंचायत चुनावों के परिणाम हैं। पर यही एक मात्र कारण है, यह कहना सही न होगा। राकेश टिकैत बीच-बीच में जिस तरह से निराश दिखते हैं, उससे लगता है कि वे जैसा चाहते हैं वैसा हो नहीं रहा है। वे पहले भी आंदोलन खत्म करने की बात कर चुके थे पर जाने किस दबाव में ऐसा कर नहीं पाए।

टिकैत खुद भी चुनावी राजनीति में कूदने की मंशा रखते दिखाई देते हैं। ऐसे में उत्तर प्रदेश में आंदोलन को ले जाना पूरी तरह से आकस्मिक दिखाई नहीं देता। किसान नेता आज चाहे जो सोचें पर उन्हें देखना पड़ेगा कि उनके सामने योगी आदित्यनाथ हैं जिनकी लोकप्रियता और काम पर अभी तक किसी तरह का प्रश्नचिन्ह नहीं लगा है। यह बात और है कि हाल के महीनों में वे विपक्षी इकोसिस्टम के निशाने पर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश की राजनीति को किसान नेता किस तरह से प्रभावित कर पाएँगे, यह प्रदेश में उनकी प्रस्तावित पंचायतों में दिखाई देगा। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश में उनका प्रभावशाली होना आसान न होगा। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कानून के इस्तेमाल को लेकर सतर्क रहते हैं। ऐसे में किसानों की राजनीति उनके धैर्य की परीक्षा भी लेगी।