राहुल गाँधी: मिडिल क्लास की जेब में ऐसे हाथ डालूँगा और यूँ ₹72,000 वाला ‘न्याय’ निकाल लूँगा

कॉन्ग्रेस का हाथ मिडिल क्लास की जेब में पैसे तलाशता हुआ

राहुल गाँधी मुझे कई कारणों से प्रिय हैं। वो न सिर्फ भाजपा के स्टार कैम्पेनर हैं, बल्कि राजनीति के सर्कस में लालू जैसे जोकरों की कमी को कुछ हद तक पूरा करते हैं। लालू तो खैर विदूषक था और अपना बोया, जेल में काट रहा है, लेकिन राहुल अभी तक सिर्फ काट ही रहे हैं, वो भी अपनी पार्टी का। 

कई तरह की मशीनों, कई तरह के मेड इन xyz, कई तरह के किसान लुभावन योजनाओं के बाद अब राहुल गाँधी ने ग़रीबों को ‘न्याय’ दिलाने के लिए फटे कुर्ते के नीचे के पाजामे पर बेल्ट कस लिया है। बहन फ्री-यंका ने भी भाई की कलाई पर न्याय बाँधा है, और बाकी चाटुकार मंडली तो बता ही रही है कि कहाँ से, किसका, क्या काटा जाएगा इसके लिए।

राहुल गाँधी और कॉन्ग्रेस दोनों को ही बजट और जीडीपी की समझ नहीं है, या इतनी ज़्यादा समझ है कि वो यह मानकर चलते हैं कि आम आदमी को तो बिलकुल ही नहीं है। इस पर हमने कल एक रिपोर्ट बनाई थी जहाँ कॉन्ग्रेस के घोषणापत्र में शिक्षा और स्वास्थ्य पर जीडीपी का 9% ख़र्च करने की बात कही गई है। आपको लगेगा कि सही बात है, इतना तो होना ही चाहिए। बस, इसी ‘होना ही चाहिए’ का फायदा उठाकर धूर्त नेता लोगों को उल्लू बना जाते हैं। 

भारत की जीडीपी लगभग ₹190 लाख करोड़ है, और इस बार का बजट ₹28 लाख करोड़ के लगभग। सीधा गणित लगाएँ, तो हमारा बजट जीडीपी का कुल 14.7% पर आता है। कॉन्ग्रेस चाहती है कि शिक्षा और स्वास्थ्य पर 9% (₹17 लाख करोड़) ख़र्च होना चाहिए, मतलब बाकी के 5.7% (₹11 लाख करोड़) में रक्षा, कृषि, इन्फ़्रास्ट्रक्चर, सरकारी कर्मचारियों के वेतन, नदियों की सफ़ाई से लेकर जितने भी विभाग हैं, सब आ जाएँगे। मनरेगा, फ़ूड सिक्योरिटी, ग़रीबों के आवास, उनको मिलने वाली सब्सिडी आदि सब इसी 5.7% में। 

जीडीपी और बजट को अगर सीधे तरीके से समझना है तो यह समझिए कि जीडीपी आपके घर, खेत, गाड़ी, गहने, बग़ीचे सबका का पूरा मूल्य है, जो कि एक करोड़ रुपया हो सकता है, लेकिन बजट आपके खेतों से होने वाली आमदनी और आपकी सैलरी ही है। या बग़ीचे के आम बेचने के बाद एडिशनल पैसा। मतलब ये कि आपके घर, कार और खेतों का मूल्य तो है, लेकिन उस स्थिति में जब आप उसे बेच रहे हों। 

अब आपके घर का बजट वह पैसा है जो आप इन एसेट्स से होने वाली आमदनी और अपनी नौकरी से पाते हैं, जिसे आप अपने परिवार की बेहतरी के लिए ख़र्च करते हैं। तो मानिए कि आपके घर में तमाम स्रोतों से पंद्रह लाख रुपए आ रहे हैं। इसी में, कभी आपको बिटिया की पढ़ाई, बच्चे के इलाज या माताजी द्वारा नानी को गिफ्ट देने के लिए कुछ एक्स्ट्रा पैसों की ज़रूरत हो जाती है। फिर आप उधार लेते हैं। 

यही उधार जब सरकार लेती है, तो उसकी आमदनी से ज्यादा होने वाले ख़र्च के कारण फिस्कल डेफिसिट यानी वित्तीय घाटा बढ़ता है। इस उधार पर सरकार को आप ही की तरह ब्याज देना पड़ता है जो अगले साल की आमदनी से कटता है। अगर आमदनी बढ़ेगी नहीं, तो आप अगले साल फिर पीछे रह जाएँगे। साथ ही, आदमी एक बार में कार बेच सकता है, खेत का एक टुकड़ा बेच सकता है, लेकिन वो पूरे जीवन में एक से दो बार ही, क्योंकि उसके बाद आपके पास कुछ होगा नहीं बेचने को। या घर बेचकर आप बेघर हो जाएँगे, परिवार सड़क पर आ जाएगा।

अब इसे भारत के परिप्रेक्ष्य में समझिए। राहुल गाँधी ने बजट की जगह जीडीपी को ख़र्च करने की बात कही है। अब देश के एसेट्स को तो आप एक या दो बार बेच सकते हैं, किसी सरकारी कम्पनी के प्राइवेटाइजेशन के ज़रिए कुछ पैसा पा सकते हैं, या आपको कहीं तेल या सोने का भंडार मिल जाए तो अचानक थोड़ा बूस्ट मिल सकता है, लेकिन जितनी बूस्ट राहुल गाँधी घोषणापत्र में बता रहे हैं, वो माइंड इज़ इक्वल टू ब्लोन टाइप का है। उसके लिए आपको घर बेचना पड़ेगा।

और देश के संदर्भ में घर का मतलब देश ही है। वैसे आम आदमी तो घर बेच लेगा… एक मिनट… तो राहुल गाँधी भी तो देश बेच सकते हैं! ये मैंने बिलकुल भी ख़्याल नहीं किया था। ख़ैर, कहने का मतलब यह है कि आप ख़र्च करने की बात तो खूब कह रहे हैं, चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं, लेकिन उसके लिए आप पैसे कहाँ से लाएँगे इस पर आप या आपके पित्रोदा, बनर्जी और राजन कुछ खास नहीं बता रहे।

एक ने कहा कि मिडिल क्लास को कमर कसनी होगी कि वो टैक्स ज़्यादा दे, एक ने कहा इनकम टैक्स बढ़ा देंगे, अब राहुल ब्रो कह रहे हैं कि ऐसा कुछ नहीं करेंगे। पैसा बैंकिंग सिस्टम के उन लोगों से आएगा जिन्होंने इसे डोमिनेट किया हुआ है। क़ायदे से इस स्टेटमेंट का कोई अर्थ नहीं निकलता क्योंकि राहुल गाँधी ने फिर से एक फर्जी बात कह दी है, लेकिन वो भूल गए कि बैंकिंग सिस्टम स्वयं ही बहुत बेहतर स्थिति में नहीं है, क्योंकि उनके माताजी की सरकार ने नीरव मोदी, विजय माल्या जैसे चोरों को हजारों करोड़ बाँटे। 

ग़रीबों को राहुल गाँधी ‘न्याय’ योजना से पैसे देने की बात कह रहे हैं, लेकिन अभी तक कोई क्रेडिबल सोर्स ऑफ इनकम इन्होंने नहीं बताया। ये बात बिलकुल ही अलग है कि नेहरू जी ने दो-चार सोने की खानें कहीं छुपा रखी हो, जिससे अचानक से जीडीपी तीन गुणा बढ़ जाए, तो न्याय के लिए पैसे निकल आएँगे। लेकिन, इसकी जानकारी मैनिफ़ेस्टो में नहीं है, तो मैं इस पर कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं हूँ। 

फिर से बजट की बात करना चाहूँगा क्योंकि जनसामान्य के लिए ये एक कॉम्प्लेक्स विषय की तरह पेश किया जाता है। मान लीजिए कि देश में टैक्स और अन्य स्रोतों से सौ रुपए आते हैं, तो ख़र्च भी उन्हीं सौ में से होंगे। अब अगर, आपने कोई नई स्कीम लाने की कोशिश की तो उसके ख़र्चे के लिए रुपए तो सौ ही हैं, योजनाएँ पहले दस थीं, अब हो गई ग्यारह। मतलब बाकी की योजना से पैसे काट कर, नई में लगाई जाएगी, या फिर आमदनी बढ़ाने की कोशिश होगी। 

आमदनी बढ़ाने के लिए टैक्स बढ़ाना होगा, चाहे लोगों पर हो, या वस्तुओं पर। दोनों ही स्थिति में भार वापस आम आदमी पर ही पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि बैंकिंग सिस्टम में पैसा रखा हुआ है, और सरकार जब चाहे निकाल लेगी। राहुल गाँधी को यही लगता है कि इतने बैंक हैं, वहाँ से पैसे ले लेंगे। राहुल गाँधी ऐसा सोच सकते हैं, क्योंकि वो राहुल गाँधी हैं। 

बैंक के पास जब आप पैसे जमा करते हैं तो बैंक आपके पैसे को कहीं और लगाती है। वो किसी को ब्याज पर देती है, कहीं अपने व्यवसाय में लगाती है, जिससे उसे आमदनी होती है और आपको बैंक अपनी आमदनी का एक हिस्सा देती है। हमारे या आपके जैसे लोग दस-दस हजार जमा करते हैं, तो सौ लोगों का पैसा दस लाख बनकर बैंक के पास जाता है, जिसे बैंक किसी बड़े उद्योग में लगाती है। फिर उस उद्योग का फायदा, कुछ बैंक अपने पास रखती है, कुछ हमें देती है। 

अब, जैसे कि कॉन्ग्रेस ने लोन माफ़ी की बात कर दी। लोन बैंक ही देती है, और सरकार ने उसके पैसे अब डुबा दिए। अब बैंक उस घाटे को, अगर ब्याज न भी ले, कहाँ से पूरा करेगी? बैंक अपने फायदे से उसे पाटने की कोशिश करेगी, या सरकार उसका घाटा सहेगी। दोनों ही स्थिति में फ़र्क़ किसे पड़ेगा? आम आदमी को। बैंक ने सहा, तो वो घाटे में जाएगी और अपना घाटा हमारी जेब तक कम ब्याज के रूप में पहुँचाएगी। अगर सरकार ने सहा, तो ज़ाहिर है कि किसी और सेक्टर का पैसा कृषि की लोनमाफी पर जाएगा, तो वो सेक्टर इससे प्रभावित होगा। 

राहुल गाँधी को ऐसा नहीं लगता। राहुल गाँधी को लगता है कि बैंक में पैसा होता है, जिसे निकाला जा सकता है। इसलिए उन्होंने ये कह दिया कि न्याय योजना का पैसा बैंकों से आएगा। फिर से, यह भी ध्यान रहे कि भारत के जीडीपी में ये बैंक भी आते हैं। मतलब, जो है, सीमित है। जीडीपी ग्रोथ की जब बात होती है तो वो एक तय तरीके से बढ़ती है क्योंकि भारत के लोग या उद्योग (सरकारी या प्राइवेट) सरकार की नीतियों के दायरे में बढ़ते हैं। 

इसलिए, जीडीपी में अचानक से उछाल नहीं आता। चूँकि, जीडीपी में अचानक से उछाल नहीं आता, तो बजट के लिए सरकार के पास आने वाली आमदनी में भी, अचानक से वृद्धि नहीं हो सकती। दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। एक को छेड़ने के लिए, दूसरे को भी छेड़ना पड़ेगा। राहुल गाँधी या कॉन्ग्रेस के धूर्त नेता जनता की अनभिज्ञता का फायदा उठाकर लोकलुभावन बातें तो कर देते हैं, लेकिन तरीके नहीं बताते।

इसी कारण भ्रम की स्थिति पैदा होती है। लोगों को बजट या जीडीपी की परिभाषा स्कूलों में बता दी जाती है, लेकिन उसके बाद उस विषय की समझ के नाम पर वो कभी आगे नहीं बढ़ता। हम या आप यह भी नहीं जानते कि सरकार पैसे क्यों छापती है, कितना छाप सकती है। इसी का फायदा राहुल गाँधी या कॉन्ग्रेस पार्टी उठाते हैं, जब वो कुछ भी कह कर निकल लेते हैं। 

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अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी