झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में कुड़मी समाज के लोग खुद को अनुसूचित जनजाति वर्ग (ST) में शामिल करने की माँग कर रहे हैं। इसके लिए कुड़मी समुदाय के लोग लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल हाईकोर्ट ने 20 सितंबर 2023 को प्रस्तावित रहे ‘रेल रोको अभियान’ को असंवैधानिक बताते हुए प्रदर्शन पर रोक लगा दी थी। वहीं झारखंड-ओडिशा में इस आंदोलन से 150 से ज्यादा ट्रेनें प्रभावित हुईं।
हालाँकि, ओडिशा और झारखंड में ‘रेल टेका, डहर छेका (रेल रोको-रास्ता रोको)’ आंदोलन का असर खूब दिखा। अधिकारियों के साथ बातचीत के बाद आंदोलन को दो घंटे में खत्म कर दिया गया। बातचीत के दौरान इस बात पर भी सहमति बनी कि इसको लेकर सरकार 25 सितंबर को उच्चस्तरीय बैठक होगी, जिसमें आगे का रास्ता निकाला जाएगा।
वहीं, प्रदर्शकारियों ने चेतावनी दी है कि 25 सितंबर को होने वाली बैठक में अगर कोई रास्ता नहीं निकला तो कुड़मी समुदाय पूरे राज्य में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन करेगा। अब सवाल ये उठता है कि आखिर कुड़मी समुदाय ये आंदोलन कर क्यों रहा है? किस आधार पर ये खुद को ST समुदाय में शामिल करने की माँग कर रहे हैं। अब तक सरकारों का इस माँग पर क्या रुख रहा है।
आखिर क्यों आंदोलनरत हैं कुड़मी समुदाय के लोग
झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में कुड़मी समाज की अच्छी खासी आबादी है। कुड़मी समाज का कहना है कि वो झारखंड के मूलनिवासी हैं और यहाँ इनकी आबादी करीब 22 प्रतिशत है। झारखंड में करीब 32 विधानसभा और 6 लोकसभा सीटों पर इनकी आबादी निर्णायक भूमिका में है।
मौजूदा समय में दो लोकसभा सांसद और कम-से-कम 10 विधायक कुड़मी समुदाय से हैं। कुड़मी समुदाय की माँग है कि उनकी अपनी भाषा कुरमाली को आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए। उनका कहना है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय में जो गलतियाँ की गईं, उन्हें जल्द से जल्द सुधारा जाए।
पंडित नेहरू के समय में क्या गलतियाँ हुईं?
देश की आजादी के मिलने के बाद स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना साल 1951 में हुई थी। उस जनगणना में कुड़मी को अनुसूचित जनजाति के दायरे से बाहर रखा गया था। वहीं, झारखंड की 13 में से 12 जातियों को इस वर्ग में शामिल किया गया था।
मीडिया रिपोर्ट्स में कहा जाता है कि जवाहरलाल नेहरू से जब इस बात की शिकायत की गई तो उन्होंने कहा था कि ये महज एक गलती है और इसे आगे सुधार लिया जाएगा। हालाँकि, ऐसा नहीं हो सका। तब से ही कुड़मी समाज के लोग इस भूल को सुधारने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं।
अभी ओबीसी में शामिल, बिहार के कुर्मी-कुनबी से अलग
झारखंड का कुड़मी समाज खुद को अनुसूचित जनजाति वर्ग का मानता है। उसकी परंपरा-बोली सब कुछ बिहार के कुर्मी एवं कोयरी (कुनबी) समाज से अलग है। खुद को द्रविड़ियन बताने वाले कुड़मी कहते हैं कि अंग्रेजों के समय में अंग्रेजी की स्पेलिंग एक KURMI होने की वजह से ये गलफहमी शुरू हुई थी।
झारखंड का ये इलाका छोटा नागपुर के पठारों पर बसा है और अंग्रेजों के समय में ये कोलकाता प्रेसीडेंसी का हिस्सा यानि बंगाल का हिस्सा था, जिसे बाद में बिहार से जोड़ दिया गया। झारखंड का हिस्सा दक्षिणी बिहार हो गया। वहाँ अनुसूचित जनजाति की संस्कृति से जुड़े समुदाय बहुलता में हैं, तो उत्तरी बिहार में आर्यन जातियाँ बहुमत में रहीं।
बिहार का हिस्सा होने की वजह से झारखंड के मूल निवासियों की आवाज दबी ही रही। हालाँकि, अंग्रेजों के बिहार में कुर्मी-कुनबी गंगा के मैदानी इलाकों में रहने वाली खेतिहर जातियाँ थी, तो कुड़मी (महतो, महन्ता, मोहंत उपनाम वाले) खुद को अनुसूचित जनजाति बताते हैं।
अंग्रेजों के समय कभी आदिवासी, कभी गैर आदिवासी
कुड़मी समाज के लोग टोटेमवाद का पालन करते हैं। ऐसे में वो खुद को द्रविड़ कहते हैं। उनका कहना है कि हर्बर्ट होप रिस्ले द्वारा लिखित पुस्तक ‘द ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ बंगाल’ (1891) में भी इस बात का जिक्र है। वहीं, साल 1913 में अंग्रेज सरकार ने कुड़मियों को अनुसूचित जनजाति माना था।
हालाँकि, अंग्रेजों ने इसमें एक वर्गीकरण भी कर दिया था कि कुड़मी समाज पहले से इस लिस्ट में शामिल नहीं था। साल 1931 तक उनकी पहचान अनुसूचित जनजाति से हटा दी गई थी। इसके बाद 1951 की जनगणना में भी जारी रही। इस बात का जिक्र ऊपर किया जा चुका है।
अन्य आदिवासियों के साथ समानता
जनजातीय समुदाय की सबसे बड़ी पहचान है उनका प्रकृति पूजक होना। इसे टोटेमिक व्यवस्था कहते हैं। दुनिया की हरेक जनजाति समुदाय की पहचान उनके टोटम से होती है। कुड़मी जनजाति में काड़ुआर, हिंदइआर, बंसरिआर, काछुआर, केटिआर, डुमरिआर, केसरिआर, बानुआर, पुनअरिआर, डुंगरिआर जैसी 81 मूल टोटेम है, इसके अलावा सब-टोटम को मिलाकर कुल 120 टोटम होते हैं। हरेक टोटम की अलग पहचान और प्रतीक चिन्ह होता है।
यही नहीं, इनकी सामाजिक व्यवस्था भी अन्य जनजातीय लोगों की तरह ही होती है, जिसमें गाँव के मुखिया को महतो और परगना के मुखिया को परगनैत जैसी पहचान दी जाती है। यही लोग आपसी विवादों का निपटारा भी करते हैं। इसी तरह संथाल, मुंडा, उरांव की तरह उनकी खुद की स्वायत्त भाषा है, जिसे कुड़माली कहा जाता है। इस समुदाय की शादी विवाह की व्यवस्था भी बिहार के कुर्मियों-कुनबियों जैसी नहीं, बल्कि जनजातियों जैसी है।
कुड़मियों की माँग पर राजनीतिक दलों का रूख क्या है?
झारखंड में करीब 20 फीसदी की आबादी वाले कुड़मियों को नजरअंदाज करने की हिम्मत किसी भी राजनीतिक दल में नहीं है। हालाँकि, भाजपा की सरकारों में इस बारे में गंभीर प्रयास किए गए। अर्जुन मुंडा अभी आदिवासी मामलों के केंद्रीय मंत्री हैं। उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए केंद्र सरकार को साल 2004 में प्रस्ताव भेजा था, जिसे उस समय केंद्र की यूपीए सरकार ने ठुकरा दिया था। इसके अलावा भी कई बार सांसदों, विधायकों ने अपनी माँग प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से की है।
झारखंड में रघुवर दास की अगुवाई वाली भाजपा सरकार में भी कुड़मियों को उनका हक दिलाने के लिए कुछ कदम उठाए गए थे। इसका विपक्ष के विधायकों ने भी साथ दिया था। इसके अलावा, इस मामले में देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मूर्मू के राँची दौरे के समय उन्हें ज्ञापन भी सौंपा गया था। सत्ता पक्ष हों या विपक्ष, सभी एक सुर में कुड़मियों के साथ खड़े होने की बात करते हैं, लेकिन गंभीर प्रयास होते नहीं दिख रहे हैं।
25 सितंबर को बात नहीं बनी तो यलगार होगा!
कुड़मी समाज के लोगों का कहना है कि अर्जुन मुंडा अब केंद्रीय मंत्री हैं तो भी ये माँग पूरी नहीं की जा रही है, क्योंकि ट्राइबल्स रिसर्च इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट उनके खिलाफ आ जाती है। साल 2015 में मोदी सरकार ने इसी रिपोर्ट के आधार पर झारखंड सरकार की माँग को खारिज कर दिया था।
हालाँकि, पिछले दिनों जब भोगता और पुरान जाति को अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा देने के लिए सदन में संविधान संशोधन बिल पेश किया गया तो कुड़मी समुदाय में भी उम्मीद की किरण जगी थी। उन्हें लगा था कि उनकी बातें भी सुनी जाएँगी। हालाँकि, उनकी माँगों को सही जगह रखा ही नहीं गया।
अब कुड़मी आंदोलन के नेताओं ने कहा कि 25 सितंबर को राँची में अगर उनकी माँगों पर सही फैसला नहीं हुआ तो कुड़मी समुदाय के लोग अब तक का सबसे बड़ा आंदोलन करेंगे। उन्होंने चेतावनी दी है कि उन्हें और उनके आंदोलन को कमजोर न समझा जाए। उनका जो हक है, वो दिया जाए।