जवानों के ख़ून की दलाली महागठबंधन के नेता कर रहे हैं, और इसका फल उनको शीघ्र मिलेगा

महागठबंधन के नेता (फाइल फोटो)

यूँ तो ‘दलाली’ जैसे शब्द और व्यवहार पर कॉन्ग्रेस का कॉपीराइट रहा है, लेकिन महागठबंधन में ‘कर लो ना प्लीज़’ वाली लाइन लेने के बाद, ठगबंधन के बाकी चोर-लुटेरों तक भी इसका असर पहुँच रहा है। जब महागठबंधन के बारे में चर्चा शुरु हुई थी, तो लगा था कि ये लोग मोदी-शाह द्वय की रणनीति को चैलेंज कर पाएँगे, लेकिन अंत में ये स्वार्थी और उद्देश्यहीन नेताओं की मंडली से ज़्यादा कुछ नहीं रहा।

चुनाव सर पर है, अगले सप्ताह तक तारीख़ों की घोषणा होने की संभावनाएँ हैं, और इस समय महाठगबंधन का गिरोह लगातार कुल्हाड़ी की धार तेज कर रहा है। धार तेज करने के बाद उसे अपने ही पैरों पर मारता है, और प्रबल संभावना है कि मई के आख़िरी सप्ताह में ईवीएम को दोष देता दिखेगा। 

हिन्दी के अख़बारों को पढ़ने से यही रिपोर्ट मिल रही है कि उत्तर भारत में मोदी को इस देशहित में उठाए गए मजबूत क़दम का लाभ मिला है, और आम जनता में मोदी को लेकर विश्वास प्रबल हो गया है। हालाँकि, कुछ पत्रकार और छद्मबुद्धिजीवी स्तंभकारों में इस बात को लेकर काफी निराशा है कि देश ऐसे मौक़ों पर मोदी के साथ क्यों है, जबकि उनके गिरोह ने खूब प्रोपेगेंडा फैलाया। 

जैसा कि कोई भी आँख-कान खुला रखने वाला समझदार व्यक्ति आजकल चल रहे विवादों को देख रहा होगा, तो पाता होगा कि कैसे माओवंशी कामपंथियों से लेकर महाठगबंधन के तमाम नेताओं ने पुलवामा हमले के तुरंत बाद से लेकर अभिनंदन की रिहाई तक पाँच बार अपना स्टैंड बदला है। मोदी को गरियाना कि हमला कैसे हुआ, फिर एयर स्ट्राइक पर कहा कि मोदी ने नहीं सेना ने किया, फिर सबूत माँगने लगे, इतने में अभिनंदन का विमान दुर्भाग्य से उस पार गिरा, तो उसके लिए फिर मोदी को कोसने लगे, 55 घंटे में अभिनंदन स्वदेश लौटा तो फिर एयर फ़ोर्स को क्रेडिट देते हुए मोदी को कहा गया कि उसने किया ही क्या है।

उसके बाद बहुत ज़्यादा एक्शन नहीं हो रहा था, तो नया नैरेटिव बनाने की कोशिश हुई कि मोदी रैलियाँ क्यों कर रहा है। पहले तो ये लम्पटों का समुदाय यह डिसाइड नहीं कर पा रहा है कि मोदी का हाथ है कि नहीं? मोदी का हाथ अगर हमले में था तो उसे रैलियाँ करते देख विलाप क्यों, और अगर हमले का बदला लेने में मोदी कुछ कर ही नहीं रहा, तो फिर रैलियाँ करने पर प्रलाप क्यों? 

ख़ैर, रिपोर्टों के अनुसार उत्तर भारत में भाजपा की स्थिति बेहतर तो हुई ही है, जो कि दो बड़े प्रदेशों में हार, और कई जगहों पर अपनी बातों को सही ढंग से न कह पाने के कारण, भाजपा पिछले कुछ महीनों में बैकफ़ुट पर जाती दिख रही थी। लेकिन आतंकी हमलों पर त्वरित कार्रवाई करके पाकिस्तान को झुकाकर, उससे अपनी बातें मनवाने के बाद, लगातार रैलियों में ये कहते हुए कि ये तो ‘पायलट प्रोजेक्ट’ था, अभी और होना बाकी है, मोदी ने खोए हुए समर्थन को न सिर्फ वापस पाया है, बल्कि उसमें बढ़ोतरी भी हुई है।

इसी बात को पत्रकारिता का समुदाय विशेष या पाक अकुपाइड पत्रकार समुदाय ऐसे दिखाता है मानो मोदी ने इस हमले को अपने पक्ष में भुनाया है। लगातार सबूत माँगने वाले लोग, वैसे लोग जिनके सर के बाल गायब हो गए हैं प्रोपेगेंडा फैलाते हुए, वैसे लोग जो दिन-रात यह सवाल पूछ रहे हैं कि हमारी वायु सेना ने पेड़ काटे या आतंकियों को मारा, ये लोग आखिर मोदी के इस हमले को भुनाने वाला कैसे कह रहे हैं, यह समझ से बाहर है।

हमले पर राजनीति और ख़ून की दलाली तो ममता बनर्जी, दिग्विजय सिंह, सलमान ख़ुर्शीद, अरविन्द केजरीवाल से लेकर राजदीप, बरखा और रवीश सरीखे लोग कर रहे हैं, जिनके बयान चुनिंदा शब्दों से सज्जित होते हैं। ये लोग लिखने की शुरुआत ऐसे करते हैं जैसे इन्हें सेना में बहुत विश्वास है लेकिन अंत में पूछ देते हैं कि ‘जब किया है तो सबूत देने में क्या समस्या है’। 

बात सबूतों की नहीं है, बात बस इतनी है कि अगर आपको सबूत दे भी दिया जाए तो ये कहेंगे कि कॉकपिट में किसी ‘निष्पक्ष’ पत्रकार या मल्लिकार्जुन खड़गे को लेकर क्यों नहीं गए। इनकी चले तो ये कहेंगे कि हर एयरफ़ोर्स बेस पर विपक्षी गिरोह के नेता और पत्रकारों में से एक रहे, जो कि पायलट के साथ कॉकपिट में बैठकर सर्जिकल या एयर स्ट्राइक के सबूत रिकॉर्ड करता रहे। ऐसा कर भी दिया जाए, तो मोदी से घृणा करने वाले ये लोग, कहेंगे कि वहाँ तो इतना धुआँ था कि उन्हें कुछ दिखा ही नहीं। 

यही कारण है कि महागठबंधन में जो कुछ लोगों ने, आम जनता ने, एक आशा दिखाई थी कि उन्हें जगह दी जा सकती है, वो लोग ऐसे मौक़ों पर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारते दिखते हैं। जबकि, ऐसे मौक़ों पर चुप होकर देश और सेना के साथ खड़े होने का बात कहते हुए अपने वोटर बेस को बचाने की जुगत भिड़ानी थी, महागठबंधन एक तरह से भाजपा की तैयार पिच पर खेल रही है, और अपना जनाधार सेना पर सवाल खड़े करते हुए खो रही है। 

अब समस्या यह है कि क्या विपक्ष, एकजुट होने का ढोंग रचने के बावजूद, मोदी के विकास और सीमा सुरक्षा के नैरेटिव को काटना तो दूर, ढ़ीला भी कर पाएगा? इनके नेताओं के पास बोलने का वक्त नहीं है। जबकि मोदी लगातार रैलियाँ कर रहा है, उसकी कवरेज हर चैनल पर, सोशल मीडिया पर लाइव हो रही है, ऐसे में अखिलेश, मायावती, ममता, केजरीवाल, राहुल आदि अपना मुद्दा लाने की जगह राफेल जैसे मरे घोड़े को पीटकर दौड़ाना चाह रहे हैं।

भ्रष्टाचार को लेकर एक सबूत न ला पाने और अपनी नासमझी से जगहँसाई कराने वाले राहुल अभी भी ‘अंबानी की जेब में 30000 करोड़ रख दिया मोदी ने’ कह कर रैलियों में भाषण की खानापूर्ति करते नज़र आ रहे हैं। इससे आप बस अपनी डायरी में निशान लगा सकते हैं कि आपने बहत्तर रैलियाँ कर लीं, लेकिन उन रैलियों में आपने वही पुराना रायता फैलाया है, ये आपको बहुत समय बाद पता चलेगा।

उनलोगों को भी इस बात पर सोचना चाहिए जो सच में इस बात पर सोचने लगते हैं कि मोदी जवानों के बलिदान के बाद सर्जिकल और एयर स्ट्राइक की बातें रैलियों में क्यों करता है? ये बात इसलिए नहीं होती कि उनके बलिदान को भुनाया जाए, बल्कि ये बात इसलिए होती है कि लोगों में ये विश्वास बैठे कि ये चुप लोगों की, रक्त-मज्जा की कठपुतलियों की सरकार नहीं है, जो रक्षा समझौतों में दलाली करने के चक्कर में सेना को पचास साल पीछे रखती है।

मोदी द्वारा हर रैली में इस बात पर जोर देना कि भारत चुप होकर नहीं बैठने वाला, और यहाँ की जनता सुरक्षित सेना और सत्ता के संचालन में पूरी तरह से आश्वस्त रहे। जब तक आपकी सीमाएँ मजबूत नहीं रहेंगी, आप इस्लामी आतंक से लेकर पाकिस्तानी घुसपैठ के साए में जीते और मरते रहेंगे। इस सरकार ने उस डर को खत्म किया है। चाहे वो कश्मीर में आतंकियों को लगातार मारने की बात हो, या उत्तर पूर्व में विकास की योजनाओं को लाना, सीमाओं को लेकर यह नेतृत्व सजग है। 

देश की प्रगति के केन्द्र में जो सामाजिक समरसता, वंचितों का विकास, बुनियादी ढाँचों की मज़बूती आदि है, वो सब बेकार हो जाएँगे अगर हम देश की सीमाओं पर सशक्त होकर खड़े न रहें। मजबूत राष्ट्र की पहचान है सुरक्षित सीमाएँ। इन्हीं सीमाओं के भीतर एक बेहतर राष्ट्र के निर्माण की बात की जा सकती है। 

आज जो लोग सेना की सफलता को ‘ये तो सेना ने किया, मोदी ने क्या किया’ कहकर नकार देते हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि सेना की सफलता देश की सफलता है। एक सफल देश अपने कुशल नेतृत्व की सफलता पर टिका होता है। साथ ही, लोकतांत्रिक राजनीति में हर दल को अपने नेतृत्व की सफलता पर बात करने का पूरा अधिकार है। ये काम शास्त्री ने भी किया था, और इंदिरा गाँधी का नाम तो आज भी कॉन्ग्रेसी लेते हुए अघाते नहीं, मानो इंदिरा गाँधी स्वयं ही टैंक चलाती गई थीं, और मोदी तो चाय पर चर्चा कर रहा था।

दिल्ली में भी आज गठबंधन में कॉन्ग्रेस और आम आदमी पार्टी के साथ आने की खबरें आ रही थी। दिल्ली के वोटरों ने जिस आशा और उम्मीद से, नई राजनीति के उदीयमान सूरज को सत्ता दी थी, वो अब बुरी तरह के भ्रष्ट कॉन्ग्रेस की शरण में जा रहे हैं, इससे वोटरों को खुशी तो बिलकुल नहीं हुई होगी क्योंकि केजरीवाल का मास्क उतर रहा है और अब तो आप का गठबंधन भी कॉन्ग्रेस के साथ नहीं हुआ। इसी तरह, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि जगहों पर गठबंधन पेपर पर भी नहीं दिख रहा, न ही किसी भी दल का नेता मोदी की रैलियों में उठाए मुद्दों को काटने की हिम्मत करता दिखता है।

पूरी तरह से नकारा विपक्ष, अब न तो मोदी को तर्क और आँकड़ों से घेर पा रहा है और न ही अपना बचाव कर पा रहा है। ये लोकतंत्र के लिए संवेदनशील स्थिति है, लेकिन अगर ऐसे नकारा विपक्ष भाजपा की जीत सुनिश्चित करेंगे। कमाल की बात यह है कि राम मंदिर जैसे मुद्दे डिबेट से गायब हो चुके हैं, और मोदी-शाह लगातार विकास के प्रोजेक्ट के शिलान्यास, उसकी प्रोग्रेस रिपोर्ट और अपनी सफलताओं की बात करते हुए, देश को एक सक्षम नेतृत्व में करारा जवाब देने वाली सेना को स्वतंत्रता प्रदान करने वाले दल के रूप में भाजपा को स्थापित करने में सफल रहे हैं। 

अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी