इंदिरा गाँधी बाबर की कब्र पर गईं, सिर झुकाया और बोलीं – ‘मैंने इतिहास को महसूस किया…’

इंदिरा गाँधी (फाइल फोटो)

पाँच अगस्त को अयोध्या की हलचल के दौरान एक कॉन्ग्रेसी ने पुण्य भाव से खुलासा किया कि प्रधानमंत्री राजीव गाँधी राम मंदिर निर्माण के पक्ष में थे। ऐसा कहकर उन्होंने कॉन्ग्रेस की छवि पर ठोस हो चुकी बदबूदार सेक्युलर गर्द को एक फूँक से साफ करने की कोशिश की।

वर्ना आजादी के तुरंत बाद सोमनाथ में मंदिर निर्माण की पहल पर पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के महान विचारों और सरदार पटेल से घृणापूर्ण असहमतियों से सारा देश भलीभाँति परिचित है। वह सब कुछ रिकॉर्ड पर है। बीच में इंदिरा गाँधी भी लंबे अरसे तक प्रधानमंत्री रहीं। इतिहास को महसूस करने की उनकी अपनी दिशा और सोच थी। कुँवर नटवरसिंह ने इंदिरा गाँधी से जुड़ा एक चौंकाने वाला वाकया लिखा है।

यह अगस्त 1969 की बात है। वे काबुल के दौरे पर थीं। उनके साथ राजीव और सोनिया भी थे, जहाँ 1947 के बाद खान अब्दुल गफ्फार खान से उनकी मुलाकात हुई थी। नटवरसिंह इस दौरे में उनके साथ ही थे। वे बताते हैं कि एक दोपहर थोड़ा समय खाली था और उन्होंने तय किया कि वे मेरे साथ ड्राइव पर चलेंगी।

काबुल से बाहर कुछ मील की दूरी पर उन्हें एक जीर्ण-शीर्ण इमारत दिखाई दी, जो कुछ पेड़ों से घिरी थी। उन्होंने अफगान सुरक्षा अधिकारी से पूछा कि वह क्या था। उसने बताया कि वह बाग-ए-बाबर (बाबर का मकबरा) है। श्रीमती गाँधी ने वहाँ जाने का निर्णय लिया। प्रोटोकॉल विभाग के लिए मुसीबत हो गई, क्योंकि उन्होंने वहाँ कोई सुरक्षा प्रबंध नहीं किए थे।

नटवर सिंह के अनुसार वो बाबर के मकबरे की ओर चल दिए। वे मकबरे के सामने खड़ी हुईं और हल्का सा सिर झुकाया। नटवर उनके पीछे खड़े थे। बाद में वे बोलीं – “मैं इतिहास को महसूस कर रही थी।” नटवरसिंह ने उनसे कहा कि मैं दो इतिहासों को महसूस कर रहा था। जब वे समझी नहीं तो उन्होंने विस्तार से बताया कि भारत की साम्राज्ञी की उपस्थिति में बाबर को श्रद्धांजलि अर्पित करना मेरे लिए बहुत बड़े गौरव की बात है।

भरतपुर रियासत से संबंद्ध रहे नटवरसिंह कॉन्ग्रेस के दूसरे नेताओं से इस मायने में अलग थे कि वे बुनियादी रूप से नेता नहीं थे। करीब तीस-पैंतीस साल वे विदेश सेवाओं में अपने चमकदार करिअर के बाद कॉन्ग्रेस की राजनीति में सक्रिय हुए थे और राजीव गाँधी ने उन्हें पहली ही बार में केंद्र में मंत्री बनाया था। विदेश सेवाओं में उनका चयन पंडित नेहरू के समय ही हो गया था।

नटवरसिंह इंदिरा गाँधी के समय राजनीति में आए लेकिन पहला चुनाव लड़ने के पहले ही इंदिरा गाँधी की हत्या हो गई। इस तरह पंडित नेहरू से लेकर सोनिया गाँधी तक सीधे संपर्क में काम करने का दीर्घकालीन विलक्षण अनुभव उनके पास है। अगर यूपीए-2 के समय कड़वे अनुभवों के साथ पहले केबिनेट और फिर कॉन्ग्रेस से उनकी अपमानजनक विदाई न हुई होती तो हम नहीं कह सकते कि वर्ष 2014 में आई उनकी आत्मकथा ‘वन लाइफ इज नॉट एनफ’ किस तरह लिखी गई होती।

यह किताब नेहरू से लेकर सोनिया गाँधी के कामकाज के ढंग और उनकी पसंद-नापसंद का खुलासा बहुत सलीके से करती है। नटवरसिंह चूँकि एक राजनयिक रहे हैं। वैश्विक स्तर पर एक बड़े फलक पर काम करने वाले हाजिर जवाब अफसर के रूप में उनकी सक्रिय भूमिका शानदार पारी खेलने की रही है। वे पटियाला राजघराने के दामाद हैं।

लेखन में उनके इस पद और कद की राजसी झलक साफ है। कालिख से भरी कॉन्ग्रेस की राजनीति के अंदर के सच को ऐसी साफगोई से कोई पूर्णकालिक नेता शायद ही रख पाता। राजनीति को तटस्थ भाव से जीने वाला शख्स ही अपने आसपास घटित होने वाली घटनाओं को देखने की ऐसी दृष्टि रखता है।

नेहरू ने चीन यात्रा का ब्यौरा एडविना को लिख भेजा

अक्टूबर 1954 में पंडित नेहरू चीन की चर्चित यात्रा पर थे, जहाँ उनकी खुली कार के दोनों तरफ सड़कों पर लाखों लोग स्वागत में खड़े थे। नटवर बताते हैं कि बाद के वर्षों में जब मैंने इन वार्तालापों के बारे में पढ़ा तो पाया कि वहाँ वास्तव में कुछ भी सार्थक नहीं हुआ था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि सीमा से जुड़े मसलों पर बात तक नहीं की गई।

लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण जानकारी यह है – “वापसी पर पंडित नेहरू कलकत्ता में ठहरे। उन्होंने पहला पत्र एडविना माउंटबेटन को लिखा और उनके साथ अपने चीन के अनुभव बाँटे। यदि कड़े शब्दों में कहा जाए तो चीनी नेताओं से हुई बातचीत को एडविना के साथ बाँटना उनके द्वारा ली गई गोपनीयता की शपथ के विरुद्ध था। नि:संदेह तब तो उस पत्र के बारे में कोई नहीं जानता था और वह तभी प्रकाश में आया, जब उनके लेखन को एस गोपाल ने प्रकाशित किया।”

कश्मीर मसले पर नेहरू की अत्यंत घातक नीतियों के बारे में वे कहते हैं कि माउंटबेटन ने नेहरू को अंधेरे में रखा। यह पंडित नेहरू की भूल थी कि उन्होंने भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन को भारत के प्रथम गवर्नर जनरल के रूप में नियुक्त किया। जिन्ना उनसे ज्यादा व्यवहारिक था, जो उसने ऐसा नहीं किया। नेहरू को यह पश्चाताप रहा कि उन्होंने माउंटबेटन की सलाहें क्यों मानीं!

ब्लादमीर की खास यात्रा, जहाँ सोनिया गाँधी के पिताश्री कैद में थे

साल 2004 में यूपीए सत्ता में आया और डॉ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। अगले ही साल गर्मियों में एक कन्वेंशन के लिए सोनिया गाँधी एक खास प्लेन से मास्को गईं। नटवरसिंह लिखते हैं:

“इस मीटिंग के बाद मैं और सोनिया गाँधी एक हेलीकॉप्टर से एक छोटे से शहर व्लादमीर के लिए रवाना हो गए। मैं समझ नहीं पा रहा था कि सोनिया ने क्यों इस छोटे से शहर का चुनाव किया है, जिसके बारे में मैंने कुछ सुना भी नहीं था। ब्लादमीर एक जंगल के मध्य स्थित शहर था, शांत और सुकून भरा। सोनिया एक बड़ी इमारत की तरफ पैदल चल दीं, जिसको एक छोटे से म्युजियम में तब्दील कर दिया गया था। हम एक अष्टकोणीय कमरे में दाखिल हुए, जिसकी दीवारों पर हस्तलिखित पर्चियाँ चिपकी थीं। विश्व युद्ध के दौरान सोनिया के पिता बतौर युद्ध बंदी इसी कमरे में रहे थे। यहाँ से वे भाग निकले और इटली तक पैदल ही पहुँचे। हम लोग गाँव के चारों तरफ घूमते रहे। रिटायरमेंट के बाद चैन से जिंदगी बिताने के लिए व्लादमीर एक आदर्श जगह थी।”

सोनिया गाँधी भय पैदा करने वालीं रहस्यमय और संदेहपूर्ण

यह वही समय था, जब नटवरसिंह को रक्षा सौदों में कथित हिस्सेदारी के पचड़े में फँसाया गया। सोनिया गाँधी पर यहाँ नटवर की एक बेबाक टिप्पणी है – “सोनिया की सार्वजनिक छवि अच्छी नहीं है। इसके लिए बहुत हद तक वह स्वयं ही दोषी हैं। वह कभी मुक्त भाव से नहीं बैठती और अपने मन की बात किसी को बताती नहीं। बेहद रहस्यमय और संदेहपूर्ण व्यक्तित्व वाली यह महिला भय तो पैदा करती है पर श्रद्धा नहीं।”

सोनिया गाँधी के बारे में वे बताते हैं कि न तो वह अच्छी संप्रेषक थीं, न वक्ता और किसी अग्रणी राजनीतिज्ञ के लिए यह दोनों ही अपरिहार्य गुण होते हैं। अपना पहला भाषण तैयार करने में उन्हें कई घंटे कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी।

नटवरसिंह बताते हैं कि सोनिया गाँधी को हर भाषण तैयार करने में 6 से 8 घंटे लगते थे। कभी-कभी तो यह तकलीफदेह भाषण सत्र आधी रात तक चलते थे। सोनिया अपना भाषण पढ़तीं और नटवरसिंह उसका समय नोट करते। फिर वह हिंदी में अनुवादित किया जाता था। फिर हिंदी का भाषण रोमन लिपि में बड़े-बड़े अक्षरों में छापा जाता।

जब तक लिखित पाठ (वो भी रोमन में) सामने न हो, वह हिंदी नहीं बोल पातीं। नटवरसिंह ने तब सुझाव दिया कि तुलसीदास की एकाध चौपाई या कबीर के दोहे अच्छी तरह से रट लें, जो वह अपने भाषणों में प्रयोग कर सकती हैं। पर उन्होंने हथियार डाल दिए और कहा:

“सामने लिखित पाठ होने पर भी मैं कुछ नहीं बोल पाऊँगी। तुम चाहते हो कि मैं अपने आप कुछ बोलूँ। इसे भूल जाओ।”

हमारा अपराध था मैडम को नाखुश करना!

जब कथित फायदे का विवाद गहराया तो रिश्तों में बढ़ती कड़वाहट को नटवरसिंह जैसा स्पष्टवादी और अपनी शर्तों पर जीने वाला आदमी खामोश होकर सहन कर ही नहीं सकता था। वे कहते हैं – “प्रधानमंत्री और कॉन्ग्रेस प्रेसिडेंट ने मिलकर यह निर्णय लिया कि जब तक यह विवाद खत्म नहीं हो जाता, मैं विदेश मंत्रालय छोड़कर बिना विभाग का मंत्री बना रहूँ। पार्टी और सरकार में उच्च पदस्थ कुछ पुराने घाघों ने मुझे निशाना बनाने की ठान ली थी। कॉन्ग्रेस में तो बिना सोनिया गाँधी के इशारे या अनुमति के पत्ता भी नहीं खड़कता। यह था बिना जिम्मेदारी की सत्ता को भोगना और गाड़ी की पिछली सीट पर बैठे-बैठे कार ड्राइव करने की कला।”

जयपुर की एक रैली के बाद नटवरसिंह के बेटे को भी कॉन्ग्रेस से निकाल दिया गया। इस पर वे कहते हैं:

“हमारा अपराध था – मैडम को नाखुश करना!”

नटवरसिंह की यह किताब एक बेबाक बयान है, जो हमारी राजनीति के कुछ ऐसे दिलचस्प पहलुओं को उजागर करता है, जिसके बारे में हमें पता होना चाहिए। एक तरह से करिअर के पतन से उपजी अपनी निजी पीड़ा को व्यक्त करने के लिए नटवरसिंह के शब्द हैं – “मनमोहन सिंह और उनके कैबिनेट मिनिस्टरों की मुझे छूने की हिम्मत भी न पड़ती अगर सोनिया की अनुमति न होती। कॉन्ग्रेस तो मुझे व्यक्तित्व विहीन बनाने पर उतारू थी पर सफल नहीं हो पाई। वे जो मेरे चारों तरफ राजनीतिक कृपा पाने की फिराक में घूमते रहते थे – गवर्नर बनवा दो, कैबिनेट में घुसवा दो, पार्टी में पद दिलवा दो – आज मुझसे कतराते हैं और मुँह फेरकर चले जाते हैं। सोनिया गाँधी की उपलब्धि यह रही: संसार की एक महानतम राजनीतिक पार्टी को लोकसभा में सिर्फ 44 सांसद के ठूँठ पर बैठा दिया गया।”

लेखक: विजय मनोहर तिवारी