बिहार चुनाव: जब 6% के लिए ब्राह्मण-सवर्ण का मुद्दा उछल सकता है तो 15% SC वोटर के लिए क्या कुछ नहीं हो सकता

बिहार में होने वाले चुनावों की आँच से क्या-क्या जल सकता है? (साभार: बीबीसी न्यूज)

बिहार में होने वाले चुनावों की आँच से क्या-क्या जल सकता है? बिहार के चुनावी आग की गर्मी इतनी तेज होती है कि बिहार से दिल्ली तक कुछ भी सुलग सकता है। अगर संभावनाओं की बात करें तो इससे किसी ‘दलित’ का झोंपड़ा जल सकता है और इलाके के तथाकथित सवर्णों पर आग लगाने का इल्जाम भी थोपा जा सकता है।

हाँ, ऐसी घटनाओं की जाँच होगी, अदालतें सच-झूठ का फैसला भी करेंगी, लेकिन तबतक तो चुनाव भी बीत गए होंगे, और चुनावों को कई साल भी हो गए होंगे। एक अदद नैरेटिव गढ़ने के लिए 3-4 वर्ष तो काफी हैं।

चुनावों पर नजर रखने वाले खुलकर स्वीकारने से हिचकिचाएँगे, लेकिन अगर राजनीति की प्रयोगशाला की बात चली ही है तो आइए देखें कि बिहार में जाति की राजनीति करने के लिए कैसे-कैसे प्रपंच रचाए जा सकते हैं।

बिहार में जाति की राजनीति इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि यहाँ ओबीसी और अनुसूचित जातियों/जनजातियों का मत प्रतिशत काफी ज्यादा है। अलग-अलग जातियों के मत-प्रतिशत के अनुमान के लिए टेबल देखें –

जाति आबादी (%) ध्यान देने योग्य:

  • ओबीसी/ईबीसी 46%
  • यादव 12%
  • कुर्मी 4%
  • कुशवाहा (कोएरी) 7%
  • (आर्थिक रूप से पिछड़े 28% जिसमें 3.2% तेली भी आएँगे)
  • महादलित* / दलित (अनुसूचित जातियाँ) 15% इस श्रेणी में चमार 5%, दुसाध/पासवान 5%, और मुसहर 1.8% समुदाय आते हैं।
  • मुस्लिम 16.9% (इसमें सुरजापूरी, अंसारी, पसमांदा, अहमदिया जैसे कई समुदाय आते हैं, लेकिन टिकट अधिकतर शेखों को मिलते रहे हैं।)
  • तथाकथित अगड़ी जातियाँ 19%
  • भूमिहार 6%
  • ब्राह्मण 5.5%
  • राजपूत 5.5%
  • कायस्थ 2%
  • अनुसूचित जनजातियाँ 1.3%
  • अन्य 0.4% सिक्ख, जैन, और इसाई इत्यादि

राजनीति की प्रयोगशाला में 12 अक्टूबर से 5 नवंबर 2015 के बीच मतदान होने थे। बाद के चरण ऐसे इलाकों के थे, जहाँ पर सेक्युलर वोट (जय मीम + जय भीम) महत्वपूर्ण हो जाते। 5वें चरण में (5 नवंबर) अररिया, किशनगंज, पूर्णिया, कटिहार जैसे वो इलाके थे जिसपर से इस बार भी ओवैसी की पार्टी उतरने वाली है। यहाँ अनुसूचित जातियों के समुदायों का वोट करना बहुत महत्वपूर्ण होता।

ऐसे ही दौर में 21 अक्टूबर को दिल्ली से 40 किलोमीटर दूर फरीदाबाद से एक दिल दहला देने वाली खबर आने लगी। अनुसूचित जातियों के समुदायों ने सड़क जाम कर रखा था। फरीदाबाद के पुलिस कमिश्नर ने कहा कि ये गाँवों में जारी जातियों के आपसी वैमनस्य का मामला लगता है जिसमें पिछले वर्ष भी तीन लोगों की जान गई थी।

जितेन्द्र नाम के जिस व्यक्ति के घर में आग लगी थी, उसने बताना शुरू किया कि उसे पहले भी गाँव ना लौटने की धमकियाँ मिली थीं। उस रात उसे पेट्रोल की बू आई तो उसने अपनी पत्नी को जगाने की कोशिश की। जबतक पति-पत्नी समझ पाते कि क्या हो रहा है, घर में आग लगा दी गई थी। पति-पत्नी तो जैसे तैसे निकले मगर उनके दो छोटे बच्चे उसी आग में जलकर मर गए। 2 वर्ष की बच्ची और 9 महीने के बच्चे को जलाकर मार देने की इस घटना पर देश भर में हंगामा मचा दिया गया।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी चर्चाएँ हुईं और कहा गया कि कैसे भारत में हिन्दुओं की अगड़ी जातियाँ हाशिए पर के वर्ग यानि दलितों के खून की प्यासी हैं। बड़े नेता जितेन्द्र से मिलने पहुँचे, मुआवजों की घोषणा हुई। बिहार में उस दौर में मतदान जारी था, तो जाहिर है कि उसपर भी इसका असर हुआ ही होगा।

चुनावों के बीतने के बाद किसी ने इस घटना का जिक्र करने की जरुरत नहीं समझी। मगर मामला अदालत में था तो चल ही रहा था। इस मामले की सीबीआई जाँच भी हुई थी और करनाल, दिल्ली और हैदराबाद की अलग अलग फॉरेंसिक लेबोरेटरी से साक्ष्यों की जाँच भी की गई।

पता चला कि घर पर बाहर से पेट्रोल डालकर आग लगाईं ही नहीं गई थी! आग घर के अन्दर से लगी थी। किसी आपसी विवाद में पति-पत्नी में आपस में धक्का-मुक्की हुई और घर में आग लग गई जिसका इल्जाम उन्होंने पड़ोस के राजपूतों पर ये कहते हुए लगा दिया था कि उन्होंने अक्टूबर 2014 में हुई तीन राजपूतों की हत्या का बदला लिया है।

जाहिर है जब ये हुआ तो उसे उतनी शिद्दत से पहले पन्ने पर जगह देने की अख़बारों को या मीडिया को कोई जरूरत नहीं लगी। खबर दलितों का घर जलाया जाना था, उनके मासूम बच्चों की मौत थी! पूरी कहानी फर्जी थी और उसके लिए 11 बेक़सूर लोगों को जेल में फेंक दिया गया था, ये खबर क्यों होती? चुनाव को बीते काफी समय हो चुका था, इसलिए किसी ने छोटे अख़बारों में आई 2019 की इस खबर पर ध्यान भी नहीं दिया। इस मामले का फैसला आने से अब तक में एक साल बीत चुका है और हरियाणा में ही नहीं बल्कि यूपी में भी भाजपा की सरकार है।

जातिवाद को बढ़ावा देने के लिए हाल ही में उत्तर प्रदेश के एक कुख्यात को पुलिस द्वारा मार गिराए जाने पर ब्राह्मण बनाम राजपूत कार्ड भी खेला गया है। अब जैसे-जैसे हाथरस मामले में फोरेंसिक और मेडिकल प्रमाण सामने आने लगे हैं, वैसे-वैसे इस मामले में भी पता चलने लगा है कि जिसे ये लोग सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या का मामला बता रहे थे, उसमें कोई बलत्कार तो हुआ ही नहीं था! जिन लोगों पर मिलकर हत्या करने का अभियोग लगाया जा रहा था और एफआईआर भी करवा दी गई, वो मौके पर मौजूद भी नहीं थे। लेकिन इस पूरे वाकए में ये जरूर हुआ है कि जाति की राजनीति चमकाने वालों को मौका मिल गया है।

बाकी अगर राजनीति की प्रयोगशाला में चुनाव छोटी बात लगती हो तो देखिए कि करीब 6% ब्राह्मण-राजपूत वोट के लिए यूपी के गैंगस्टर और सुशांत सिंह राजपूत का मामला कैसे उछाला जाता है। अब अंदाजा लगाइए कि करीब 15% अनुसूचित जातियों के वोट के लिए कैसी आग लगाईं जा सकती है!

Anand Kumar: Tread cautiously, here sentiments may get hurt!