असम में अवैध बांग्लादेशी बदल रहे डेमोग्राफी: जनसंख्या नियंत्रण, गौमांस की बिक्री सहित कई समस्याओं से जूझते हिमंत बिस्वा सरमा

हिमंत बिस्वा सरमा (फाइल फोटो)

ऐसा लगता है जैसे असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा चुनाव के पूर्व की भाँति उसके उपरांत भी अपने प्रदेश की राजनीतिक बहसें और संवाद नियंत्रित कर रहे हैं। विषय कोई भी हो, अक्सर ऐसा देखा जा रहा है कि उस पर बहस का आरंभ उन्हीं से हो रहा है या फिर किसी सरकारी घोषणा के जरिए उन्हीं के कार्यालय से हो रहा है। जनसंख्या नियंत्रण हो या गौमांस की बिक्री, प्रदेश में रहने वाले अवैध विदेशियों का मुद्दा हो या कानून-व्यवस्था की, बात उन्हीं से शुरू होती दिखाई दे रही है। उनके द्वारा वर्षों से विवादित माने जाने वाले विषयों को लगातार उठाए जाने के बावजूद ऐसा लगता है जैसे प्रदेश में विपक्षी दल अभी भी यह सोचते हुए सकते में हैं कि वे अपनी बात कहाँ से आरंभ करें और कहाँ तक ले जाएँ?

कुछ लोगों के लिए आज यह आश्चर्य और उत्सुकता का विषय है कि एक मुख्यमंत्री जो राजनीति के अपने आरंभिक दिनों से संघ परिवार का सदस्य नहीं रहा, ऐसे में महत्वपूर्ण और पूर्व में विवादित माने गए विषयों पर इतनी बेबाकी से बहस को नेतृत्व कैसे दे रहा है? वैसे पुरानी परंपरा निभाते हुए हमारे राजनीतिक विश्लेषक किसी नेता को राजनीतिक दल या वैचारिक संगठनों से अलग करके नहीं देख पाते पर फिर भी कुछ विश्लेषकों के अनुसार सरमा वर्तमान भारतीय जनता पार्टी में हिंदुत्व की सबसे प्रखर और ऊँची आवाजों में एक हैं।

विश्लेषकों के इन मंतव्यों के पीछे उनके अपने कारण होंगे पर प्रश्न यह उठता है कि मुख्यमंत्री पद ग्रहण करने के उपरांत वे जिन प्रमुख विषयों पर लगातार बड़ी बेबाकी के साथ बोल रहे हैं, उन पर क्या बहस बहुत पहले नहीं होनी चाहिए थी? प्रश्न यह भी उठता है कि इन विषयों पर उत्तर-पूर्वी राज्यों में सबसे बड़े और प्रमुख राज्य की नीति क्या पहले से तय नहीं हो जानी चाहिए थी?

हाल ही में एक टीवी चैनल को दिए साक्षात्कार में सरमा ने साफ़ तौर पर कहा कि वे प्रदेश में अवैध रूप से रहने वाले बांग्लादेशी मुस्लिमों की शिनाख्त करके उन्हें निकालने के लिए वचनबद्ध हैं। उनकी इस बात ने देश में अवैध रूप से घुसे बांग्लादेशी मुस्लिमों के कारण लगातार बदलती डेमोग्राफी के मुद्दे को एक बार फिर से केंद्र में ला खड़ा किया है। यह बहस और नीति का विषय है कि ऐसे लोगों की पहचान करके उन्हें निकलने का तरीका क्या होगा?

पर यह बहस छेड़ना अपने आप में महत्वपूर्ण है, खासकर तब जब प्रदेश में चुनाव नहीं हैं। यह इस बात को दर्शाता है कि मुख्यमंत्री सरमा न केवल बदलती डेमोग्राफी से पैदा होने वाले खतरे को पहचानते हैं बल्कि उसपर खुलकर बहस करने के लिए तैयार भी हैं। ऐसा करते हुए वे जल्दी में भले लग रहे पर यही समय की माँग है। दशकों तक सरकारें और राजनीतिक दल जिस एक मुद्दे से अलग रहने की कोशिश करते रहे हैं, वह मुद्दा और टाला नहीं जा सकता।

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि पिछले पाँच दशकों में लगातार बदल रही डेमोग्राफी असम की सबसे बड़ी समस्या रही है। इसकी वजह से प्रदेश में सामाजिक समरसता के साथ-साथ कानून और प्रशासनिक व्यवस्था को न केवल क्षति हुई है बल्कि आर्थिक, धार्मिक और सुरक्षा सम्बंधित समस्याएँ भी सिर उठा चुकी हैं। इस बात से भी कोई इनकार नहीं कर सकता कि अब तक इस ज्वलंत समस्या पर राजनीतिक दलों और प्रदेश की सरकारों ने चुप्पी साध रखी थी।

ऐसे में यदि वर्तमान मुख्यमंत्री समस्या पर बहस और हल चाहते हैं तो उनकी नीयत पर शक करना तथाकथित सेक्युलर राजनीति को कुछ दिनों के लिए ऑक्सीजन तो दे सकता है पर देश और प्रदेश के वासियों का भला नहीं कर सकता। बदलती डेमोग्राफी के भयंकर परिणाम भले ही कई वर्षों से सामने आते रहे हैं पर सच यही है कि सेक्युलर दलों और उनके नेताओं ने जिस तरह शुतुरमुर्ग की तरह अपने सिर रेत में धँसा रखे हैं, वह न तो भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छा है और न ही सरकारों की संवैधानिक जिम्मेदारियों के लिए।

असम के साथ यह समस्या त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल तक पहुँच ही चुकी है। समस्या के सामाजिक और राजनीतिक परिणाम भी दिखाई देने आरंभ हो चुके हैं। हमारे वर्तमान लोकतंत्र का ऐसा कोई स्तंभ नहीं है जो समस्या पर अपनी राय प्रकट न कर चुका हो। राजनीति से शुरू हुई समस्या सर्वोच्च न्यायालय तक पहले ही पहुँच चुकी है। न्यायालय भी इसपर अपने विचार प्रकट कर चुका है।

यह अलग बात है कि पश्चिम बंगाल का वर्तमान सत्ताधारी दल पिछले दो दशकों में समस्या को लेकर अपनी नीति में बदलाव ला चुका है पर ऐसा कितने दिन और संभव हो सकेगा उसपर प्रश्न खड़े होते रहेंगे। अच्छी बात यह है कि असम के मुख्यमंत्री इसपर न केवल बहस के लिए तैयार दिख रहे हैं बल्कि हल की खोजने की दिशा में कदम बढ़ाने के लिए भी तैयार दिखते हैं। यह दीर्घकालीन लोकतंत्र के हित में है कि अवैध रूप से देश में घुसने और रहने वाले विदेशी नागरिकों की वजह से लगातार बदल रही डेमोग्राफी के संभावित परिणामों पर न केवल बहस हो बल्कि इसे रोकने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएँ।