सोनिया जी, दो-चार प्रचलित शब्दों का हौआ बना कर देश की जनता को डराने की कोशिश बेकार है

सोनिया जी, बुराई क्या है 'कॉर्पोरेटीकरण' में?

कॉन्ग्रेस पार्टी की पूर्व अध्यक्षा और कॉन्ग्रेस संसदीय पार्टी की अभी भी अध्यक्षा सोनिया गाँधी के रेलवे के ‘खतरे में होने’ के आरोपों से साफ है कि न केवल राहुल गाँधी ने यह सबक नहीं सीखा कि चौकीदार चोर नहीं है, बल्कि समूची कॉन्ग्रेस को अभी कई, कई सबक सीखने बाकी हैं। इन्हीं में से एक सबक अर्थशास्त्र की बदली हुई राजनीति का है- कि न ही अब लोगों को ‘निजीकरण’ का हौव्वा खड़ा कर के और ठगा जा सकता है, और न ही ‘निजी’ या ‘कॉर्पोरेट’ ऐसे कोई काला भूत है भी, जिससे आम जनता को नफरत होती हो।

बंद हो ‘निजीकरण’ का दानवीकरण

लोक सभा में मंगलवार को सोनिया गाँधी ने दावा किया था कि मॉडर्न कोच फैक्ट्री का ‘निजीकरण’ (जब कि प्रस्ताव केवल उसे एक सार्वजनिक उपक्रम में परिवर्तित कर कॉर्पोरटीकरण करने का था) कई कामगारों को बेरोजगार कर देगा। उन्होंने आरोप लगाया कि ‘कॉर्पोरेटीकरण निजीकरण की ही दिशा में पहला कदम है।’ यह कुछ-कुछ वैसा ही हौआ खड़ा करने वाली बात हो गई, जैसे ‘राष्ट्रवाद फासीवाद की तरफ पहला कदम है’ या ‘भगवाकरण हिन्दू पाकिस्तान की तरफ पहला कदम है’।

अंतर केवल इतना है कि देश में अगर ‘फासीवाद’ बढ़ने लगे, या हिंदुस्तान सही में पाकिस्तान का हिन्दू समकक्ष बनने लगे तो यह बेशक बुरी बात है, लेकिन ‘कॉर्पोरेटीकरण’ या ‘निजीकरण’ कोई बुरी बात नहीं, बल्कि देश की प्रगति और विकास की तरफ एक सराहनीय कदम है। जो देश अपने नाकारा और सुस्त सरकारी तंत्र को लेकर निर्विवादित रूप से बदनाम हो, जहाँ फ़ाइलें इतना धीमें चलें कि नेहरू द्वारा उद्घाटित सरदार सरोवर बाँध का लोकार्पण मोदी के हाथों हो, उस देश में सरकारी काम में तेजी के लिए ‘कॉर्पोरेटीकरण’ या ‘निजीकरण’ को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए या उसका दानवीकरण होना चाहिए?

‘इसलिए नहीं लगाई थी संप्रग ने फैक्ट्री’ 

सोनिया गाँधी के अनुसार ‘हमने इसलिए संप्रग काल में यहाँ फैक्ट्री नहीं लगाई थी’। अगर ऐसा है तो सोनिया गाँधी को ज़रा संसद को यह भी समझाना चाहिए कि आखिर उन्होंने वह फैक्ट्री किस लिए लगाई थी, अगर कुशलतापूर्वक कार्य करना मकसद नहीं था?

डीएनए ने रेलवे के ही एक अनाम कर्मचारी के हवाले से सोनिया गाँधी के आरोप के जवाब में जो आँकड़े गिनाए, वह खुद ही इसका जवाब देंगे कि आखिर ‘कॉर्पोरेटीकरण’ से लेकर ‘निजीकरण’ क्यों निकम्मे सरकारी तंत्र से निजात पाने के लिए समय की माँग है। फरवरी 2007 में जिस फैक्ट्री के शिलान्यास का पत्थर संप्रग-1 के कार्यकाल में रखा गया, उस फैक्ट्री में नहीं, फैक्ट्री का ही निर्माण मई, 2010 में शुरू हुआ- जब 2-जी से लेकर सीडब्लूजी तक का घोटाला सामने आने से कॉन्ग्रेस की इज़्ज़त तार-तार हो रही थी, देश दुनिया के 2008 के आर्थिक संकट से उबार जाने के बाद भी कराह रहा था और शायद इस फैक्ट्री की शुरुआत कर ध्यान भटकाया जा सकता था। 1,000 कोचों का निर्माण करने की क्षमता के साथ बनी इस फैक्ट्री ने 2011-14 तक केवल कपूरथला से निर्मित होकर आने वाले कोचों में ‘कुछ’ काम हुआ- वह भी केवल 375 कोचों पर। 1,000 कोचों का निर्माण करने की क्षमता के साथ बनी फैक्ट्री में 375 कोचों पर रंग-रोगन या छोटा-मोटा काम। मोदी ने क्या गलत कहा था जब उन्होंने आरोप लगाया था कि यह फैक्ट्री केवल स्क्रू टाइट करने का काम करती है, उक्त अधिकारी पूछता है।

मोदी राज में फैक्ट्री के ‘अच्छे दिन’

यह अधिकारी यह भी गिनाता है कि कैसे मोदी सरकार ने चरणबद्ध तरीके से इस फैक्ट्री की कायापलट की। जुलाई 2014 में रेलवे की निर्माण इकाई घोषित होने के महीने भर के भीतर इस फैक्ट्री ने पूरे कोचों का निर्माण शुरू कर दिया। 140 कोच 2014-15 में, 576 कोच 2016-17 में, 711 डिब्बे 2017-18 में, और जब बीते वित्त वर्ष 2018-19 के जब आँकड़े आएँगे, तो उम्मीद है 1,400 के करीब कोचों के निर्माण का आँकड़ा आने की। इस साल का भी लक्ष्य 2,158 कोचों के निर्माण का है। ₹667 करोड़ की खरीद इस दौरान MSME उद्योगों से की गई, और रायबरेली की स्थानीय इकाईयों खरीद 2013-14 के बमुश्किल ₹1 करोड़ से बढ़कर बीते वित्त वर्ष में ₹124 करोड़ पहुँच गई।

और जिस दौरान यह सब हो रहा था, सोनिया गाँधी की कॉन्ग्रेस यही ‘सॉफ़्ट कॉर्पोरेटीकरण- सॉफ़्ट कॉर्पोरेटीकरण’ का हौव्वा खड़ा कर रही थी। अब ज़रा सोचिए कि अगर सॉफ़्ट कॉर्पोरटीकरण से यह इकाई इतना सुधार कर ले गई तो ‘हार्डकोर कॉर्पोरेटीकरण’ के बाद इस फैक्ट्री की क्या तस्वीर होगी! क्या सोनिया गाँधी देश की जनता को, रायबरेली की जनता को अकुशल, भ्रष्ट और सुस्त सरकारी फैक्ट्री के युग में दोबारा धकेल देना चाहतीं हैं?

नौकरियाँ निजी क्षेत्र में ही हैं

यह दीवार पर लिखी इबारत है कि हिंदुस्तान की अंधाधुंध बढ़ती आबादी, और नेहरूवियन, समाजवादी अर्थशास्त्र के युग से बाहर आ जाने- दोनों ही कारणों से अब नौकरियों का भविष्य, देश की अर्थव्यवस्था का भविष्य निजी क्षेत्र में ही है। कायदे से कॉर्पोरेटीकरण उसी दिशा में आहिस्ता बढ़ाया हुआ कदम है जिसका स्वागत होना चाहिए कि सीधे निजीकरण कर प्रतिस्पर्धा के अनभ्यस्त ‘सरकारी’ नवाबों को निजी क्षेत्र के साथ टकराव में अपने हाल पर छोड़ देने की बजाय (जोकि मुक्त बाजार का असली मॉडल है) सरकार पहले यूनिट को भारतीय रेलवे के अंदर ही एक कॉर्पोरेट तरीके से चलने वाली कम्पनी बना रही है। इससे कर्मचारियों को वह सब कौशल विकसित करने का मौका मिलेगा जो किसी भी रेलवे कोच बनाने वाली आधुनिक कॉर्पोरेट कम्पनी के संचालन में आवश्यक हैं।

मोदी और कॉन्ग्रेस दोनों के लिए राह सुधारने की ज़रूरत

मोदी सरकार 2014 में ‘Government has no business of being in business’ और ‘Minimum government, maximum governance’ के वादे कर के आई थी। लेकिन बहुत हद तक उन वादों पर अमल बाकी है। बहुत सारे बीमारू या ख़राब प्रदर्शन कर रहे सार्वजनिक उपक्रमों को सुधारा ज़रूर गया है, लेकिन एयर इंडिया या बीएसएनएल जैसे न सुधर रहे पीएसयू का क्या होगा, यह साफ़ नहीं हो रहा है। बीते वित्त वर्ष में बीएसएनएल का घाटा तकरीबन 7,000 करोड़ रुपए के करीब रहने का अनुमान है। ऐसे में मोदी भले ही सार्वजनिक उपक्रम पूरी तरह बंद न भी करें, तो भी उनमें से जो नहीं चलने हैं, उनमें टैक्स धन की बर्बादी रोकने का तरीका उन्हें सोचना ही होगा।

कॉन्ग्रेस के लिए तो यही कहा जा सकता है कि उसे अपने दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र सबमें आमूलचूल बदलाव की तत्काल आवश्यकता है। कुछ चीज़ें समय के साथ घूम-फिरकर वापिस वहीं आ जातीं हैं, लेकिन कुछ चीज़ें समय के साथ सीधी लकीर पर ही चलतीं हैं। जनता अब एक बार ‘कुशल, कॉर्पोरेटीकृत’ सरकार को चखने के बाद वापिस कॉन्ग्रेस के ‘माई-बाप समाजवाद’ के उस युग में नहीं जाना चाहेगी, जहाँ उसके (पूर्व??) अध्यक्ष राहुल गाँधी ₹72,000 और 22 लाख सरकारी नौकरियाँ देकर जनता को आर्थिक रूप से सरकार पर निर्भर रखना चाहते थे। कॉन्ग्रेस को ही आगे आकर जनता की इच्छा के साथ कदम-से-कदम मिलाना होगा।