अयोध्या में भगवान श्रीराम की मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के बाद से ही भारत में फेमिनिस्ट और लिब्रल्स का रुदन जारी है। लगातार ही किसी न किसी बहाने से रोना चलता चला आ रहा है। आरफा खानम से लेकर रवीश कुमार तक इनका रोना चालू है।
राहुल देव जैसे पत्रकार कई चैनलों पर जा-जा कर अपना रोना रो रहे हैं और हर बार यही लोग कह रहे हैं कि भारत का संविधान हार गया। सबसे हैरान करने वाला तो यह था कि कुछ ही समय पहले सुष्मिता सेन को ललित मोदी के साथ सम्बन्धों के आधार पर कोसने वाले लोग सुष्मिता सेन की इन्स्टाग्राम स्टोरी की प्रशंसा कर रहे थे, जिसमें सुष्मिता ने संविधान की बात की थी।
यह बहुत हैरान करने वाली बात है कि आखिर यह कैसे हो गया है या हो जाता है? आखिर संविधान के अनुसार ही तो यह मंदिर बना है। क्या इस मंदिर के निर्माण की यात्रा में कानून का सहारा नहीं लिया गया? क्या न्याय के लिए भारत के संविधान में प्रदत्त न्यायपालिका का सहारा नहीं लिया गया? क्या इतने वर्षों तक अदालत का मुँह हिन्दू समाज ने नहीं ताका था?
अरे, हिन्दू समाज तो इतना सहिष्णु समाज है कि अपने आराध्य की आराधना के लिए कभी न्यायालय का मार्ग ताकता था, तो कभी मीडिया में चल रहे विमर्श का मुँह ताकता था। मगर यह नहीं समझ पा रहा था कि आखिर अपने आराध्य के घर का मामला उठाने पर उसे पिछड़ा, पुरुषवादी, साम्प्रदायिक क्यों बताया जा रहा है? क्या उसके पास यह भी अधिकार नहीं था कि वह अपने आराध्य के घर के विषय में बात कर सके?
दरअसल समस्या दूसरी है। समस्या है कथित फेमिनिस्ट और कम्युनिस्ट लोगों को, प्रभु श्रीराम के आदर्श पुरुष होने से! प्रभु श्रीराम फालतू के पुरुष-विरोधी स्त्री विमर्श पर नहीं चलते। महिला होने के नाते हजार अपराध समाज के प्रति माफ़ है, ऐसा प्रभु श्रीराम नहीं स्थापित करते। वह अपने कर्मों से यह स्थापित करते हैं कि अपराधी का कोई लिंग नहीं होता।
वह अपराध करने पर ताड़का को भी दंड देते हैं और शूपर्णखा को दिए गए दंड को भी सही ठहराते हैं। मगर भारत की परिवार-तोड़ू फेमिनिस्ट चूँकि इस सीमा तक पुरुषों से घृणा करती हैं कि वह प्रभु श्रीराम के उस रूप को देख ही नहीं पाती हैं, जिनमें स्त्रियों के लिए आदर है। जो पति अकेले ही अपनी पत्नी को खोजने की यात्रा आरम्भ करता है और जो बेटा अपनी सौतेली माँ के वचनों का मान रख कर अपना राजपाट त्याग कर वन में निकल जाता है, उससे कम्युनिस्ट फेमिनिस्ट घृणा करती हैं क्योंकि वह केवल उन्हीं स्त्रियों का आदर करते हैं, जिनमें स्त्रियोचित गुण हैं।
जो स्त्रियाँ अपराध करती हैं, भगवान राम उन्हें मात्र अपराधी की दृष्टि से देखते हैं। प्रभु श्रीराम इसलिए ताड़का को छोड़ नहीं देते हैं कि वह महिला है और कथित अबला है। हालाँकि वह आरम्भ में संकोच करते हैं कि ताड़का पर कैसे प्रहार करें क्योंकि वह महिला है और महिला पर अस्त्र नहीं प्रयोग किया जाता।
इस द्वंद्व को लेकर विश्वामित्र उन्हें आश्वस्त करते हैं कि अपराध देखा जाना चाहिए, अपराधी नहीं। इसके बाद प्रभु श्रीराम की झिझक दूर होती है और फिर वह ऋषियों के यज्ञ में बाधा उत्पन्न करने वाली ताड़का का वध करते हैं। यह हो सकता है कि ताड़का को उसकी शारीरिक बनावट के अनुसार महिला कह दिया जाए, मगर यह देखा जाना चाहिए कि वह क्या कर रही थी। वह तो सृष्टि के कार्यों के संचालन में बाधा उत्पन्न कर रही थी। वह सृष्टि के कल्याण के लिए किए जा रहे यज्ञों का विध्वंस कर रही थी, जिसके चलते ऋषि जन कल्याण के कार्यों को नहीं कर पा रहे थे।
जब जन कल्याण के कार्यों में कोई बाधा उत्पन्न करेगा, तो उसका लिंग कोई भी हो, उसे मृत्यु का ही सामना करना पड़ेगा, उसे दंड का भागी होना ही होगा। यही प्रभु श्रीराम सन्देश देते हैं। इसलिए फेमिनिस्ट डरती हैं, वह विलाप करती हैं, कम्युनिस्ट प्रभु श्रीराम का विरोध करते हैं, क्योंकि प्रभु श्रीराम जहाँ शबरी के बेर खाते हैं, वहीं वो यज्ञ विध्वंस करने वाली ताड़का को दंड भी देते हैं।
प्रभु श्रीराम मर्यादा निर्धारित करते हैं और वे स्त्री विमर्श की यह सीमा भी निर्धारित करते हैं कि अपराध लिंग निरपेक्ष होता है तो दंड भी लिंग निरपेक्ष ही होना चाहिए। तभी फेमिनिस्ट भगवान श्रीराम से घृणा करती हैं! मगर यह भारत है, जिसे यह अच्छी तरह से पता है कि उसके लिए कैसे पुरुष उत्तम हैं। तभी भारत में हर जगह गूँज रहा है – “जय श्री राम” और इसी कारण परिवार-तोड़ू और पुरुषों से घृणा करने वाली फेमिनिस्ट अपनी कुंठा निकाल रही हैं।