ऐसे लोगों के लिए किसी भी सेकुलर देश में जगह नहीं होनी चाहिए, वहीं जाओ जहाँ ऐसी बर्बरता सामान्य है

कट्टरपंथी मुस्लिमों के लिए किसी भी देश में जगह नहीं होनी चाहिए

पेरिस में एक शिक्षक के सर काटने की घटना दुनिया भर के कट्टरपंथियों के लिए ‘ये तो साला होना ही था’ मोमेंट था। एक ऐसी घटना जो आजकल किसी को भी सुनाई पड़ती है तो, भले ही उसके होने के कारण हमें अजीब और विचलित करने वाले लगते हैं, लेकिन वहाँ हाथ में छुरा लिए हुए, ‘अल्लाहु अकबर’ का नारा लगाते हुए लोगों की उपस्थिति हमें सामान्य ही नहीं लगती, बल्कि हम प्रतीक्षा करते हैं कि ‘अब तो उसकी जान जानी तय है’।

ऐसी ही एक सामान्य घटना होती है ट्विटर पर वामपंथियों की चुप्पी या फिर ये कहना कि ‘ऐसे लोग मुस्लिम हैं ही नहीं‘। मतलब, आप यह समझिए कि जो व्यक्ति अपने पैगंबर के बारे में गलत सुनने पर हत्या कर देता है, वही मुस्लिम नहीं है, और जो दिन रात इस्लाम के बताए हर नियम को तोड़ते हैं, वो ये सर्टिफिकेट जारी करते हैं। जानकार कहते हैं कि असली इस्लाम तो वही है जो ऐसे कट्टरपंथी जीते हैं, क्योंकि वो काफिरों को कत्ल के योग्य मानते हैं, पैगम्बर या कुरान के खिलाफ एक शब्द बर्दाश्त नहीं करते, और मूर्तिपूजकों को घृणा की निगाह से देखते हैं।

ये सारी बातें ही तो इस्लाम को उसका सही मतलब देती है। यही तो असली इस्लाम है जो पूरी तरह से अपने पथप्रदर्शक की किताब को नुक्ते तक अपनाए हुए चलती है। वस्तुतः, वैसे लोग जो ‘मॉडरेट इस्लाम’ या ‘इस्लाम तो शांति का मजहब है’ बताते हैं, वो सच्चे मुस्लिम होते ही नहीं। आपने अगर ‘सेकुलरिज्म’ के कॉन्सेप्ट को स्वीकार लिया तो आप पूरी तरह से इस्लाम के खिलाफ खड़े हो जाते हैं।

इसलिए, इस्लाम को सही तरीके से न मानने वाले, जब इस्लाम को बिलकुल सही तरीके से मानने वाले को मुस्लिम मानने से इनकार कर देते हैं, तब बड़ी ही विचित्र स्थिति पैदा हो जाती है कि एक गैरमुस्लिम झूठे मुस्लिम के ट्विटर दर्शन को माने, या फिर एक सच्चे मुस्लिम द्वारा गर्दन काटने की घटना को इस्लाम द्वारा निर्देशित पथ मान कर इस मजहब को समझने की कोशिश करे।

इस्लाम को सही तरह से मानने वाले सेकुलर हो ही नहीं सकते

सोशल मीडिया पर मेरी एक पूर्व छात्रा ने एक लिंक शेयर किया तो उसके किसी मजहबी जानकार ने जो टिप्पणी (गलत अंग्रेजी में ही सही) की, वह बताती है कि मजहब में एक बड़े, या शायद अधिकांश, या शायद हर सच्चे मुस्लिम की सोच ऐसे हर मामले के बाद कैसी होती है।

ममून अहमद लिखता है, “ईमानदारी से कहूँ तो, कोई भी मुस्लिम अपने पैगम्बर मुहम्मद के खिलाफ किसी भी तरह की अमर्यादित टिप्पणी, अपमानजनक बात, या कार्टून आदि बर्दाश्त नहीं करेगा। इसके लिए तुम हमें आतंकवादी कहो, या कुछ और, हमें फर्क नहीं पड़ता। और हाँ, बात यह है कि वो भी (अपमान करने वाले) जानते हैं कि हमें ये सब स्वीकार्य नहीं है, फिर भी वो बारम्बार वही काम करते हैं। तब जब हम प्रतिक्रिया देते हैं (जान ले लेते हैं) तब वो हमें अपनी मर्जी से कुछ भी कह सकते हैं।”

छात्रा लिखती है, “ममून अहमद, तो इस्लाम के अनुसार मजहबी मान्यताओं के आधार पर किसी की हत्या जायज है? और हाँ, ये भी याद रहे कि (इस मामले में) परिजनों और शिक्षकों के अनुसार, (मृत शिक्षक) पैटी ने मुस्लिम विद्यार्थी को, कार्टून दिखाने से पहले, बाहर जाने का विकल्प देते हुए कहा था कि वो किसी की भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचाना चाहता।”

ममून ने इस पर जवाब लिखा, “किसी की हत्या मजहबी कार्य नहीं है, लेकिन ये कुछ ऐसा ही है जैसे किसी ने तुम्हारे परिजनों का अपमान किया, तो तुम उस पर किस तरह की प्रतिक्रिया दोगी। और पैगम्बर के लिए, जैसा कि मैंने कहा, हम मुस्लिम तो युद्ध के लिए तैयार रहते हैं। दुनिया के सारे लोग इस बात को जानते हैं कि हम ये बर्दाश्त नहीं करेंगे। इसके बाद भी वो हमें छेड़ते रहते हैं। क्यों?”

ममून अहमद की बातचीत का स्क्रीनशॉट

ममून या ममून जैसों की ये बातें उनके ज्ञान के स्तर से गलत नहीं हैं। उन्हें ही नहीं, चाहे वो पीएचडीधारी शरजील हो, या सड़क किनारे मेहनत कर के पंचर का काम करता जुबैर, वो भी यही मानता है, जो ऊपर ममून ने लिखा है। वो ऐसा इसलिए मानता है कि क्योंकि ऐसी शिक्षा उसे बचपन से अपने घर, मदरसे, मस्जिद और टेंट के नीचे हो रही मजहबी बैठकों में मिलती है।

उनके लिए ऐसा मानना बहुत ही सामान्य है कि पैगम्बर के बारे में गलत लिखने, बोलने वाले का ‘सर तन से जुदा’ करना ही उचित कार्य है। और तो और, उन्हें किसी भी राष्ट्र के कानून की बाध्यता नहीं रोक सकती क्योंकि वो इसके लिए पहले से ही तैयार रहते हैं। ट्विटर पर आज ही एक वीडियो सामने आया, जो भोपाल के किसी मस्जिद का बताया जाता है। वहाँ लाउडस्पीकर पर कहा जा रहा है कि एक ईसाई ने कुरान को ले कर गुस्ताखी की, तो एक भोपाली खड़ा हुआ, जिब्बह कर के सर काट कर अलग कर दिया। लोग आह्लादित होते हैं कि वो आम लोग नहीं है, वो ‘सैयद, शेख, पठान हैं’।

क्या आपको ऐसा लगता है कि इस हजारों की भीड़ का उन्माद किसी भारतीय दंड विधान की राह देखता है? क्या आपको लगता है कि यूरोप के शहरों में शार्ली एब्दों के 12 कार्टूनिस्टों की एक बार में हत्या करने वाला, या फिर किसी की गर्दन काट कर अलग करने वाला, किसी भी देश के कानून को मानता है? वस्तुतः, वो किसी भी कानून को मान ही नहीं सकता, यही उसकी मजबूरी है। वो विवश है क्योंकि उसके अस्तित्व के लिए, उसके व्यक्तित्व के लिए यह स्वीकारना असंभव है कि अल्लाह के कानून के इतर कोई और कानून भी है।

आप याद कीजिए कि साल भर पहले ही कमलेश तिवारी की भी हत्या हुई थी। आपने, हमने, पूरे भारत ने उसकी गर्दन के घाव, छाती में छुरे के घुसने से बने निशान और लाश देखी। हत्या की योजना कितनी गहनता और विस्तार लिए बनी थी कि जान-पहचान बढ़ाते हैं, हिन्दू नाम रखते हैं, पार्टी का काम करते हैं, फिर गुजरात से चलते हैं, उत्तर प्रदेश पहुँचते हैं, और मिठाई के डब्बे में रखे छुरे से गर्दन रेत देते हैं। पकड़े जाने पर कहते हैं कि उनका इरादा तो काटते हुए ‘फेसबुक लाइव’ पर पूरी दुनिया को दिखाना था कि इस्लाम में पैगम्बर के बारे में गलत लिखने का परिणाम कैसा होता है।

हत्यारे के परिवार वाले उसकी मदद कर रहे हैं, पत्नी बोल रही है कि बस तुम आ जाओ, बाप कह रहा है कि वो देख लेगा, लोग मदद को तैयार हैं। आपको इसमें कुछ अजीब नहीं लगता? आप हिन्दू अपराधियों के मामले में जाइए, सबसे पहले उसके परिवार के लोग ही उसे त्याग देते हैं और कहते हैं कि उसका बेटा दोषी है तो गोली मार दो उसको। यहाँ, चाहे कश्मीर हो या उत्तर प्रदेश, हमें दसियों उदाहरण मिलते हैं कि एक और बेटा होता तो उसे भी कुर्बान कर देता।

जब कोई व्यक्ति या समाज इस हद तक, ऐसे मामलों में, मोटिवेटेड हो, अपनी अस्थि-मज्जा तक ऐसी मजहबी आस्था से जकड़ा हुआ हो, वो गैरइस्लामी समाज, राष्ट्र या व्यक्ति की किसी भी बात को कैसे मान लेगा? यह असंभव है। अगर वो काफिरों को कत्ल के लायक नहीं समझता, तो वो सच्चा मुस्लिम है ही नहीं। क्योंकि काफिरों को मारने के लिए घात लगा कर बैठने से ले कर, क्यों और कैसे मारें, सारी बातें उनकी किताब में लिखी हुई हैं।

एक और वाकया याद आता है जो हाल ही में बनारस के एक मित्र से बात करते हुए पता चली। वो बताते हैं कि बचपन में वो लोग क्रिकेट खेला करते थे। उनके साथ मुस्लिम बच्चे भी खेलते थे। खेलते वक्त, अगर इन बच्चों को कहीं भी गिरगिट दिख जाए, उसे वो लोग मार डालते थे। कभी ईंट से कुचलना, कभी बैट से, कभी उनके ऊपर बम (पटाखा वाला) फेंक देना आदि आम बात थी। अगर किसी दिन ये काम उनके गैरमुस्लिम मित्रों की अनुपस्थिति में होता था, तब वो उन्हें बताते थे कि कैसे मारा।

मित्र बताते हैं कि उस समय हमें समझ में नहीं आता था कि गिरगिट मारने पर ऐसी खुशी किसी को क्यों मिलती थी, बाद में पता चला कि ऐसा करना किसी हदीस के अनुसार सही है क्योंकि गिरगिट ने इब्राहिम नाम के पैगम्बर को नमरूद द्वारा आग में फेंक देने पर, उस आग को हवा दी थी। इस हदीस में कितनी सच्चाई है, ये मैं नहीं जानता, पर कुरान में ऐसा कोई जिक्र नहीं मिलता। साथ ही, कई दूसरे लोग यह भी बताते हैं कि चूँकि गिरगिट एक नुकसान पहुँचा सकने वाला जीव है, तो उसे मार देना ही उचित है।

यह कोई बहुत बड़ी घटना नहीं है। आपके भी कई ऐसे जानकार होंगे जो कोई कारण बताएँगे कि गिरगिट को देखते ही मार देने की बात कही गई है। किसने, किसको कही, कब क्या हुआ, ये सब अनावश्यक बातें हैं, आवश्यक यह है कि ऐसा वास्तव में होता है। जो जीव आपको ‘नुकसान पहुँचा सकता है’ उसको मारने की बात को बचपन से ही सामान्यीकृत किया जाता है।

तो, वैसा ही एक जीव काफिर होता है। काफिरों को इस्लाम में सबसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। आज की दुनिया जब ‘सेक्स’ और ‘जेंडर’ के डिबेट में ‘ही, शी, दे’ आदि लिंगसंबंधी विशेषणों पर व्याख्यान प्रस्तुत कर रही है, ब्लैक लाइव्स मैटर के नाम पर लड़ रहे हैं, वहीं काफिर जैसे संबोधन आम हैं। जबकि, इस संबोधन पर वैश्विक प्रतिबंध लगना चाहिए, और किसी को भी इस नाम से पुकारने पर सजा निर्धारित होनी चाहिए क्योंकि यह विशेषण किसी भी जातिसूचक, रंगभेदी, नस्लभेदी विशेषण से ज्यादा खराब है।

तो, जब काफिर को कुरान ने ही वाजिब-उल-कत्ल माना है, तो धरती पर के आम मुस्लिम कैसे इस बात को झुठला देंगे? क्योंकि इस्लाम में सबसे ऊँची पदवी पैगम्बर मुहम्मद की है, उसके बाद कुरान आता है। इन दोनों के बारे में आप एक शब्द, सोच कर, या अनायास गलत बोल दें, और आपके लिए कोई फतवा किसी दूसरे मुल्क में निकल आए, तो आप अपने दिन गिनने शुरु कर दीजिए।

ऑस्ट्रेलियाई एक्टिविस्ट इमाम तौहिदी इसी विषय पर एक टॉक शो में डेव रूबिन से बात करते हुए कहते हैं, “आम तौर पर हर मुस्लिम दो देशों का नागरिक होता है- एक उस देश का जिसका वह राजनीतिक रूप से नागरिक होता है, और दूसरा मुस्लिम ‘उम्माह’। जब दुनिया के किसी भी कोने में बैठा कोई भी मुल्ला किसी का सर कलम कर देने का फ़तवा जारी करता है तो वह अँधेरे में तीर नहीं मार रहा होता है। उसे यह पता होता है कि उसके इस फ़तवे को पूरा करना किसी न किसी मुस्लिम का फ़र्ज़ होगा।”

तो बात यह है कि फ्रांसिसी शिक्षक पैटी की अकाल मृत्यु तो निश्चित थी, बस माध्यम कौन बनता, किस दिन बनता, यह तय नहीं था। कई बार, कमलेश तिवारी का उदाहरण लें, सालों लग जाते हैं, कई बार तत्क्षण किसी के भीतर का इस्लाम जगता है और ‘जिब्बह करके गर्दन अलग’ कर दी जाती है। एक और उदाहरण सलमान रश्दी का है जो बिना खिड़कियों वाले घरों में, एक जगह से दूसरे जगह, छिपता फिर रहा है क्योंकि उसकी जान लेने का फतवा सालों पहले जारी हो गया है। कोई सच्चा मुस्लिम कहीं ताक में बैठा होगा कि उस फतवे को अंजाम तक कैसे पहुँचाया जाए।

सेकुलर देश में शरीयत वाले लोग

ये सारी बातें मूलतः एक बिंदु पर ही टकराती दिखती हैं: आदमी के बनाए कानून बनाम अल्लाह का बनाया कानून। एक सच्चा मुस्लिम अल्लाह का ही कानून मानता है, और अगर उसे चुनना पड़े (भले ही इसके लिए कानूनन उसकी जान क्यों न ले ली जाए) वो हमेशा अल्लाह के कानून को ही मानेगा जो उसे बताता है कि पैगंबर के खिलाफ लिखे एक शब्द के लिए गर्दन अलग कर दो।

आपको टीवी डिबेट पर, कमलेश तिवारी की हत्या पर, खुल्लमखुल्ला जश्न मनाने वाले मुल्ले-मौलवी दिख जाएँगे। आपको ऐसा लिखने वाले पूरे सोशल मीडिया पर दिख जाएँगे कि भाई, उसने तो वो बात कर दी जो मना है हमारे में, इसमें तो यही होना ही था। आपने लोगों को ‘सर काट कर लाने पर लाख और करोड़ के ईनाम’ की बात भी सुनी होगी।

अब बात यह है कि ऐसा तो है नहीं कि लोगों के पास विकल्प नहीं हैं इस्लामी मुल्कों में जाने के, जहाँ इस तरह की व्यवस्था है कि आदमी का कानून नहीं चलेगा, अल्लाह वाला चलेगा। जो लोग ममून अहमद की तरह के हैं, वो ऐसे मुल्कों में अपनी व्यवस्था के बिना कैसे रह रहे हैं? क्योंकि यहाँ तो चोरी पर, बलात्कार पर, हत्या पर राष्ट्र का कानून चलता है, जबकि अल्लाह वाले कानून में तो बड़ी ही कष्टकारी सजाएँ निर्धारित हैं।

मतलब, शरीयत तभी तक मानो जब तक अपना फायदा दिखे, बाकी समय ‘पत्थरों से मार कर हत्या’, ‘चौराहे पर कोड़े मारने की सजा’, ‘हाथ काट देने की सजा’ आदि स्वीकार्य नहीं? ये तो एक तरह से इस्लाम के खिलाफ होना हुआ। कोई भी सच्चा मुस्लिम एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में कैसे रह सकता है? ये तो उसकी मजहबी अवधारणा के बिलकुल ही विरोध में है।

तरीका तो यह है कि आप एक इस्लामी मुल्क में रहें, और काफिर देशों पर हमेशा चढ़ाई करते रहें, और अंत में पूरी दुनिया पर इस्लाम का राज कायम कर लें। यही बताया गया है, यही सोचा जाता है, यही लक्ष्य है। लेकिन काफिरों के देश में रहना, हर तरफ मंदिर, चर्च या अन्य धार्मिक स्थलों को देखना, हर बड़े पेड़ के नीचे मूर्तियाँ देखना तो किसी भी सच्चे मुस्लिम को अत्यधिक पीड़ा पहुँचाती होगी, फिर वो ऐसे देशों में कर क्या रहा है!

हर मुस्लिम की यही इच्छा होती है कि वो जहाँ रह रहा है वो इस्लाम के कायदे-कानूनों के मुताबिक रहे। जहाँ यह संभव नहीं, और एक मौका मिले कि वो वैसी जगह पर जा सकता है जहाँ ऐसे कायदे-कानून लागू होंगे, तो सच्चे मुस्लिमों को तो वहीं जाना चाहिए था। जो बच गए हैं, और इस तरह के कत्लों को यह कह कर जायज ठहराते हैं कि भाई रसूल का अपमान किया तो उसको तो मारेंगे ही।

इनके तर्क आप देखिए कि ‘जब तुम्हें पता है कि हम यही करेंगे, तो तुम ऐसा करते क्यों हो?’ ये तो वहीं बात हो गई कि कोई आदमी, जो सीरियल किलर है, वो अपने बचाव में यह कहे कि ‘तुम्हें जब पता है कि मैं रातों को चाकू ले कर गलियों में घूमने वालों को बलात्कार के बाद मार देता हूँ, तो तुम गलियों में घूमते ही क्यों हो?’

ये तो कुतर्क है जो किसी भी विवेकशील मनुष्य या अन्य जीवों को (अगर उन्हें समझाया जा सके किसी तकनीक से) स्वीकार्य नहीं होगा। ये तो सीधे तौर पर यह कहना हुआ कि हम तुम्हारे कानून को नहीं मानते, हमें जो बचपन में घर में, मदरसों में, मस्जिदों में सिखाया गया है, वही अखंड सत्य है, और हम उसका पालन करने को बाध्य हैं।

फिर तो, वैसे देशों से ऐसे सारे मुस्लिमों को बाहर निकाला जाना चाहिए, या वो स्वयं ही निकल जाएँ, जहाँ कोई और रिलीजन या धर्म बहुसंख्यक है, या जो भी देश स्वयं को पंथनिरपेक्ष कहता है। सीधा कारण यह है कि इस्लाम न सिर्फ एक मजहब है, बल्कि आज के परिदृश्य में एक राजनैतिक पहचान है। अगर एक कदम और बढ़ कर कहा जाए तो इस्लाम अपने शुरुआत से ही साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का मजहब रहा है जहाँ जमीन जीतने से ले कर, काफिरों को मारने, उनके घरों, धार्मिक स्थानों पर कब्जा करने आदि के लिए जाना जाता है। उसका तो लिखित लक्ष्य है पूरी धरती को इस्लाम के नीचे लाना।

फिर ऐसे में, इस तरह के लोग एक सामान्य व्यवस्था में हमेशा फँसे हुए पाएँगे स्वयं को। मुझे तो उनकी स्थिति सोच कर ही अत्यंत कष्ट की अनुभूति होती है कि बलात्कारी, बच्चाबाज, हत्यारे, लुटेरे मुगलों के द्वारा इतनी तबाही के बाद भी कुछ मंदिर रह गए, और कुछ तो बनने वाले हैं, सच्चे मुस्लिम कितना कुछ सहते होंगे। जिन लोगों को पाकिस्तान में शिया, अहमदिया आदि भी काफिर ही नजर आते हैं, उन्हें इतने करोड़ हिन्दुओं के बीच रहना, उनकी पूजा को सुनना, आरती को देखना, उनकी गंगा को बहते देखना कितना पीड़ा पहुँचाता होगा!

हिन्दुओं की एक और समस्या है कि वो गाय, गोबर, गंगा, पेड़, जानवर, फूल, पत्थर किसी को भी देवी-देवता मान लेते हैं। अगर न मानते तब तक किसी सच्चे मुस्लिम को समस्या नहीं होती क्योंकि उनके लिए तो ये सब अल्लाह की बनाई चीजें हैं। जबकि हिन्दुओं ने चीजों को तब और जटिल बना दिया जब वो इन्हें पूजने लगे। जैसे ही आप किसी वस्तु की पूजा करने लगते हैं, वो मूर्ति पूजा हो जाती है, और फिर किसी भी सच्चे मुस्लिम के लिए वो इस्लाम के खिलाफ नजर आने लगती है।

ऐसे में, दो ही रास्ते हैं। पहला तो यह है कि अल्लाह का कोई अज़ाब आए जिससे सारी धरती के सारे काफिर रातों-रात मर जाएँ। दूसरा यह कि सच्चे मुस्लिम हर दिन की पीड़ा से बचने के लिए किसी दूसरे इस्लामी मुल्क में चले जाएँ जहाँ गाय खाने की वस्तु है, और मूर्तियाँ तोड़ने के लिए, जहाँ आईना देखना, सजना-सँवरना हराम है। पहले विकल्प के भी होने की पूरी संभावना है क्योंकि पुस्तक में कई जगह ऐसा जिक्र है कि जब भी ईमान वालों ने युद्ध किया है, और पिछड़ने लगे हैं, तब अल्लाह ने अज़ाब भेज कर काफिरों का सफाया करने में मुस्लिमों की मदद की है क्योंकि वो अत्यंत दयावान है, परम विवेकशील है और पूर्ण प्रभुत्व वाला है।

हाँ, ये तय नहीं है कि ऐसा कब होगा। तो इंतजार करने से बेहतर है कि स्वयं ही वैसी जगह चले जाएँ, जहाँ से काफिरों के खिलाफ जंग की तैयारी में राष्ट्र पूरी तरह आपकी सहायता करे। अभी समस्या ये है कि, कश्मीर का ही उदाहरण लें तो, सुबह में कोई एरिया कमांडर बनता है, शाम तक मारा जाता है, वैकेंसी वैसी ही खाली रह जाती है। ये तो सीधे अनुपातहीन स्थिति है क्योंकि काफिर पाँच गुणा ज्यादा भी हैं, और यहाँ इस्लाम वाले कानून को भी राष्ट्र मान्यता नहीं देता।

जैसा कि किताब भी कई जगह कहती है कि काफिरों के लिए कैसे घात लगाना है, तो उस स्थिति के प्रतिफलित होने के लिए आपको अपने इलाके में होना आवश्यक है। क्योंकि घात तो आप तभी लगा पाएँगे जब इलाका आपका हो। जब तक ऐसी स्थिति न आए, तब तक ऐसे जगह चले जाओ जहाँ संख्या बढ़ा सको, इकट्ठा हो सको और तलवारों की जगह मिसाइल, परमाणु हथियारों से काफिरों पर हमला कर सको।

यूरोप का भविष्य

पिछले दो दशक में यूरोप में जिस तरह के हमले हुए हैं, और ये हमले हर जगह हुए हैं, उसके बाद भी ‘पोलिटिकली करेक्ट’ वामपंथी विचारों की सत्ताओं ने शरणार्थियों के तौर पर आए लोगों के लिए जैसी व्यवस्थाएँ की, और गले लगाया, वो अब अपने विकृत परिणाम सामने ला रहा है। लंदन लंदनिस्तान बन चुका है, बर्मिंघम के पार्क में अब नमाजें होती हैं, रोम की सड़कों पर लोग चटाई डाल कर नमाज पढ़ते दिख रहे हैं, और मजहबी आतंक की छाप हर शहर तक पहुँच चुकी है।

कुछ एक राष्ट्रों ने इस्लामी आतंक की गंभीरता को समझते हुए ऐसे शरणागतों के लिए बॉर्डर बंद कर दिए हैं, वहीं कई देश ऐसे हैं जो दयालु दिखने के चक्कर में ऐसे लोगों को अपने यहाँ जगह दी और अचानक से वहाँ अपराधों में वृद्धि होने लगी। चाहे स्वीडन हो, जर्मनी हो, फ्रांस, इटली या इंग्लैंड हो, इन जगहों पर कट्टरपंथी हमलों में लगातार वृद्धि दर्ज की गई है।

मानवता की बात एक तरफ है, लेकिन आँखें मूँद कर मानवता की दुहाई देना और अपना सर कटवा लेना मूर्खता है। सत्ता तो अभी भी ऐसे ही अपने बयानों में ‘टेरर हैज नो रिलीजन’ के गीत गाती रहेगी, लेकिन यूरोप के मूल नागरिक जल्द ही सड़कों पर उतरेंगे। चाहे वो फ्रांसिसी शिक्षक पैटी की हत्या हो या शॉर्ली एब्दो के कार्टूनिस्टों की, लोगों ने इसके खिलाफ बोलना शुरु कर दिया है। सरकार भले चुप रहे, लोग सड़कों पर आ रहे हैं।

जब सरकार हाथ खड़े कर देती है, क्योंकि उसे वैश्विक स्तर पर स्वीकार्यता चाहिए कि वो बड़े संवेदनशील और सुलझी हुई बातें करते हैं कि आतंक का कोई मजहब नहीं होता, तब आम जनता ऐसे आतंक से तंग आ कर कानून हाथ में ले लेती है, क्योंकि सामने वाले ने तो वहाँ का कानून तभी तक माना जब तक वो उसके मतलब को साधने में सहायक था।

अगले पाँच सालों में इस्लामी आतंक के खिलाफ यूरोपीय शहरों में आम लोग विद्रोह पर उतरेंगे और फिर स्थिति किसी भी सरकार के नियंत्रण से बाहर हो जाएगी। सरकारों को अपने शहर की गलियों में ‘तुम्हारे कपड़े हमारे मजहब की उम्मीदों के विरोध में हैं’ जैसी बातें नहीं सुननी पड़ती। क्योंकि एक मजहब की प्रकृति ही यही है कि उन्हें अपने तरीकों से तो चलना ही है, साथ ही जो उनके तरीकों से नहीं चलते, उनको भी उँगली करते रहना है।

जिनके लिए शिया भी काफिर हो चुका हो, अहमदिया भी, उनके लिए ईसाई तो सबसे पहला दुश्मन सदियों से रहा है। ये तो वो युद्ध है जो ये बीच में हार गए थे, लेकिन कहा तो यही जाता है कि वो तब तक लड़ते रहेंगे जब तक जीतेंगे नहीं, चाहे सौ साल लगे या हजार। जिसकी लड़ाई का काल भविष्य में इतना लम्बा और अनिश्चित है, वो तुम्हारी सभ्यता को मान ही नहीं सकता।

ऐसे में, गृहयुद्ध की संभावना बढ़ जाती है क्योंकि सरकार पाँच साल में अपनी प्रकृति नहीं बदल पाएगी, लेकिन आम जनता पाँच साल में ऊब जाएगी और जवाब देने के लिए योजनाएँ बनाने लगेगी। जो नहीं होगा, वो यह है कि भारत जैसे देश में, जहाँ बहुसंख्यक समाज सहिष्णु है, वो लड़ने का तो छोड़िए, कमलेश तिवारी की हत्या पर एक आक्रोश जुलूस तक नहीं निकाल पाया।

ऐसा समाज सिर्फ संख्या बल के कारण ही जीवित बचा रहता है, और हर दिन लव जिहाद, रेप जिहाद, मजहबी हमले आदि के छोटे-छोटे घाव सहता रहता है। फिर यह समाज ट्विटर पर दूसरे समाज के लोगों से पूछता है कि ‘फलाँ आज क्यों चुप है?’ अरे भाई, फलाँ, तुम्हारे लिए क्यों बोलेगा? वो जब अपने चोर की आकस्मिक हत्या पर, सीट के झगड़े वाली हत्या पर, गौरक्षकों द्वारा पकड़े जाने की बात को मजहबी बना कर पूरी दुनिया में तुम्हें असहिष्णु बताता है, तो फिर वो तुम्हारे लिए ट्वीट करेगा!

वो तो इस बात से ही संतुष्ट है कि ‘इस्लाम शांति का मजहब है’, ‘जिसने किसी की गर्दन काट दी वो मुस्लिम नहीं है’। इस गूढ़ बात को समझो, तभी कहीं पहुँच पाओगे कि कैसे हर आतंकी हमला एक मजहब से जुड़ा आतंकवादी करता है, फिर भी वो मजहब आतंक का मजहब नहीं, फिर भी वो मजहब शांतिप्रिय मजहब है।

फिर, गौर करने पर लगता है कि बिलकुल सही बात है कि इस्लाम शांति का मजहब है। लेकिन ये शांति, कयामत की तरह ही, वर्तमान की शांति की बात नहीं करती, ये उस शांति की बात करती है जब हर काफिर मर चुका होगा, धरती पर एक भी गैरमजहबी व्यक्ति नहीं बचा होगा, तब जो मुर्दा शांति आएगी, वही शांति इन ट्वीटों में वर्णित है।

अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी