सुबराती Vs जमाती: विघटनकारी दीन की PhD वालों से बेहतर है गाँव का वो अनपढ़-बेरोजगार

हम सबको ले डूबेंगे सनम... वाली मानसिकता क्यों?

एक था सुबराती। सुबराती गाँव का रहने वाला था, कुछ पढ़ा-लिखा नहीं था और उस समय मौसमी बेरोजगारी का शिकार था। वो गाँव के ही एक सज्जन व्यक्ति, जिन्हें अक्सर लोग संजू भाई के नाम से बुलाते थे, उनके पास काम माँगने आया। संजू भाई कुछ विनोदी प्रवृत्ति के थे, बोले- “सुबराती इस समय तुझे गाँव में कहाँ काम मिलेगा, तू एक काम कर तू बंबई चला जा, वहाँ शायद बात बने।”

सुबराती सहमत होते हुए बोला- “भाई! तुम्हारी बात में दम है, क्योंकि जिसे देखो वही काम की तलाश में बंबई चला जाता है। ऐसा क्या काम चल रहा है बंबई में?” संजू भाई ने चुटकी ली- “वहाँ धरती घुमाई जाती है। बताओ ये धरती घूमती है या नहीं?” सुबराती बोला- “साहब, धरती तो घूमती है।” भाई ने कहा- “तो कोई घुमा भी रहा होगा, तभी तो घूमेगी ना?” बात सुबराती को जँच गई।

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“तो बताओ, जाओगे धरती घुमाने बंबई?”

सुबराती थोड़ा हिचकिचाया, बोला- “भाई! धरती तो बहोत कैड़ी घूमती होगी? शायद मुझसे ना हो।”

संजू भाई बोले- “सुबराती बात ऐसी है कि कुछ आदमी तो धरती घुमाने का काम करते हैं और कुछ उसकी कील में तेल डालने का काम करते हैं, ताकि धरती थोड़ी फोकी घूमे। चल तू तेल डालने का काम कर लेना, अब तो सही है?”

इस तरह सभी तारांकित और अतारांकित प्रश्नों का उत्तर मिल जाने के बाद सुबराती बंबई जाने को उद्यत था और बोला- “भाई! तुम जल्दी से किसी तरह मेरे बंबई जाने का इंतजाम कर दो।”

खैर, सुबराती तो कभी धरती घुमाने नहीं जा पाया, लेकिन धरती तो घूम ही रही है। यानी कोई न कोई तो घुमा ही रहा होगा इसे? वो कौन लोग हैं, जो इसे घुमा रहे हैं? और वो इस कठिन काम को इतनी सहजता से कर रहे हैं कि उनके मुँह से उफ़ तक नहीं निकलती, किसी को उनके इस महान उद्यम की भनक तक नहीं लगती और सर्वनाश का भय भी उन्हें कर्तव्य पथ से नहीं डिगा सकता। ऐसे ही लोगों के लिए भारतवर्ष के सुविख्यात नीतिवेत्ता भर्तृहरि ने कहा-

‘कमठकुलाचलदिग्गजफणिपतिविधृताऽपि चलति वसुधेयम्।
प्रतिपन्नममलमनसां न चलति पुंसां युगान्तेऽपि।।’

यानी शेषनाग आदि के द्वारा धारित यह पृथ्वी भी कदाचित हिल जाए या काँप उठे किन्तु विशुद्ध अंत:करण वाले व्यक्तियों द्वारा धारित विषय युगांत यानी प्रलय के उपस्थित हो जाने पर भी दृढ़ बने रहते हैं। शायद इसीलिए अपनी जान जोखिम में डालकर भी हमारे स्वास्थ्यकर्मी दूसरों के प्राणों को बचाने के अपने धर्म यानी कर्त्तव्य से ज़रा भी विचलित नहीं हुए।

ये धरती ऐसे ही शीलवान लोगों की वजह से चल रही है, वास्तव में ये धरती ऐसे ही मजबूत कन्धों पर टिकी है। अगर धरती से शील नष्ट हो जाए तो ये ठीक से चल नहीं पाएगी। जो अच्छाई प्रदर्शन या पॉलिटिक्स के काम आती है, उसका फल लोकसंग्रह है और वो वहीं चरितार्थ हो जाती है लेकिन इस दुनिया की हर वो अच्छाई जो बड़ी नजाकत, विनम्रता और सहजता के साथ कहीं न कहीं घटती रहती है, वो शील है। यानी वो अच्छाई जो धौंस नहीं दिखाती, अपना मोल नहीं माँगती, अहसान नहीं जताती, बदले में कोई अपेक्षा नहीं रखती वो शील है। जब तक ये है तब तक धरती ठीक से घूमती रहेगी।

आज न जाने ऐसे कितने ही शीलवान लोगों ने कोई वैक्सीन न होते हुए भी कोरोना को अपने इसी नैतिक कर्त्तव्य और अपने शील से टक्कर दी है, वो वास्तव में इस धरा के शेषनाग हैं, बड़ी शिद्दत से इसे सही पथ पर घुमा रहे हैं, हमें तो सिर्फ तेल डालने का आसान काम मिला है, सिर्फ घर पर रहकर उनका सहयोग करना है।

आमतौर पर नैतिकता की प्रेरणा का विचार धर्म और ईश्वरीय आस्था के सुरक्षा-चक्र में ही फलता-फूलता आया है। पाप और पुण्य हमारी वर्जनाओं और प्रोत्साहनों का दायरा तय करते आए हैं। आस्तिकता हमें नैतिकता की ओर प्रेरित करे, ये सचमुच अच्छी बात है। बहुत से लोगों की आस्था सामाजिक सद्भाव और मानवीय मूल्यों के प्रति होती है, तो कुछ डंडे के प्रति आस्थावान हैं। इस तरह हम देखते हैं कि वो शील या नैतिकता जिस पर ये दुनिया टिकी है, वो अनेक प्रकार की प्रेरणाओं से अनुप्राणित है।

तैत्तिरीय उपनिषद् में किसी भी कीमत पर, किसी भी मनोभाव के साथ भलाई करते रहने का उपदेश दिया गया है- ‘श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम्।।।।‘ देना यानी सहयोग प्रदान करना इतना अभीष्ट कार्य है कि श्रद्धा न भी हो तो अश्रद्धा से ही दे दो, शोभायुक्त होकर दो या लज्जा से दो, भय से दो या दृढ संकल्प से, किसी भी तरह दो पर देना सीखो। यहाँ देना तो एक उपलक्षण मात्र है भलाई का। यानी हमेशा ऐसा कुछ करना जो सबके किए अच्छा ही अच्छा हो।

लेकिन कुछ लोगों के लिए अच्छा करने के इतने कारणों में से एक भी कारगर नहीं है। बल्कि इसके विपरीत ईश्वर के प्रति दृढ़ आस्था जहाँ अन्यों के लिए प्रेरणा का काम करती है, वहीं कुछ लोग अपनी धार्मिक आस्थाओं की बिनाह पर ही धरती के शेषनागों के कंधे पकड़कर हिला रहे हैं। उनकी पूरी कोशिश है कि तबाही जितनी जल्दी सम्भव हो आ जाए।

और ये सब तबलीग यानी अपने धर्म के प्रचार के नाम पर किया जा रहा है। जमात जिसका मतलब ही है संगठन, वो विघटन का पर्याय बन गया है। क्या पानी के फौव्वारों से भी आग बरसती है? या आग का दरिया शांत-शीतल समुद्र होने का बहाना कर रहा है? अल्लाह ने ये ज़िंदगी बक्शी है, जिसका मतलब है जीना और ये पहली जमात का सबक है। लेकिन अपने दीन की पीएचडी का तमगा लेकर घूमने वाले लोगों को अब तक पहली जमात का ये सबक भी समझ में नहीं आया कि जीने का अर्थ मरना नहीं होता। शास्त्र कहते हैं-

‘एकत: क्रतव: सर्वे सहस्रवरदक्षिणा:।
अन्यतो रोगभीतानां प्राणिनां प्राणरक्षणम्।।‘   

जिसका अर्थ है- एक ओर विधिपूर्वक किए गए सभी धार्मिक अनुष्ठान यानी मजहबी इमाल और दूसरी तरफ रोग पीड़ित प्राणियों के प्राणों की रक्षा का कार्य, ये दोनों कर्म समान रूप से पुण्य देने वाले हैं। यानी इस समय डॉक्टर, सुरक्षाकर्मी, सफाईकर्मी जो कार्य कर रहे हैं वो किसी धार्मिक अनुष्ठान से कम नहीं है। इसलिए धर्म के नाम पर धर्म के कार्य में बाधा डालने का अधार्मिक काम करना बंद करें।

आइए हम सब भी नैतिक बनें, शील को अपना कन्धा बनाएँ और इस धरती को अपनी धुरी पर ठीक से घुमाने में अपना योगदान दें या कम से कम सुबराती की तरह तेल डालने का आसान काम ही चुन लें।

Dr. Amita: डॉ. अमिता गुरुकुल महाविद्यालय चोटीपुरा, अमरोहा (उ.प्र.) में संस्कृत की सहायक आचार्या हैं.