सरकार को शापित करने वाली महिला नेता भी नहीं कर पाती अपने नेताओं का मुखर विरोध: पढ़ें क्यों स्त्री अपमान हो गया है सामान्य

भारतीय राजनीति में महिलाओं का अपमान

महाभारत आदर्श समाज की परिकल्पना नहीं है, अपितु एक धर्मच्युत समाज के ध्वस्त होने और उसके पुनर्निर्माण की कथा है।

विगत दिनों कर्नाटक विधानसभामें घटना को देखकर यह भाव उठता है की उस युग से लेकर आज तक स्त्री के अपमान से लेकर स्त्रियों के प्रति अपराध को सामाजिक संवाद बना कर उसका सामान्यीकरण करना, उसपर परिहास के ओट में रस लेने वाली प्रवृत्ति की पुनरावृत्ति होती रहती है।

कुछ दिन पूर्व कर्नाटक विधानसभा में समाज के झंडाबरदारो के मध्य कॉन्ग्रेसी विधायक का कथन और उस पर नितांत निर्लज्जता के साथ हँसते नेताओं ने समाज में विकास के अवधारणा की कलई खोल दी है।। हमारी नैतिकता के साथ यह समस्या है कि वह पक्ष-विपक्ष के ऐसे राजनैतिक बंधनों में उलझी है कि फटी जींस पर रोने वाले, स्त्री सम्मान की सार्वजनिक धज्जियाँ उड़ने पर बस इसलिए मूक हैं क्योंकि वह सत्ता के समीकरणों में ठीक नहीं बैठती।

एक समय सपा सांसद आजम खान ने उस समय स्पीकर पद पर बैठी रमादेवी के लिए अपने संवाद को इतना असहज कर दिया कि सभी महिला सांसदों ने अपने विचार धाराओं से अलग उसका एकसाथ कड़ा विरोध किया। तथ्य है कि राजनेताओं की अपनी विवशताएँ होती हैं, इसी कारण आज संसद में सरकार को शापित करने वाली प्रखर महिलावादी नेता ने अपने ही दल के उस नेता का विरोध कभी खुल कर नहीं किया जो उन्हीं की समकालीन अभिनेत्री के अंतर्वस्त्र का आँकलन सामाजिक सभा में कर रहे थे। अपनी थाली में होने वाले छेदों के विषय में वे तब भी सावधान रही थीं जब बहुजन समाज पार्टी की महिला मुखिया पर आक्रमण किया गया था।

जयललिता से मायावती से जयाप्रदा से स्मृति ईरानी – प्रत्येक स्त्री को जिस व्यवस्था में अपमान से गुजरना पड़ रहा है और जैसे उस अपमान का सामान्यीकरण होता जा रहा है, मन स्वयं से यही पूछ बैठता है कि क्या हम अपने अतीत से कुछ सीखते हैं या इतिहास का प्रत्येक पतन हमारे लिए उस नैतिक नाश को स्वीकार्य बनाता जा रहा है।

एक शक्तिशाली साम्राज्य और सम्पन्न समाज का विनाश कैसे प्रारम्भ होता है, उसका दृष्टांत काशी नरेश की पुत्रियों के अपहरण पर मृत्युंजय भीष्म की पराजित मृत्यु है। स्त्री के तिरस्कार की जो कथा सत्यवती और अम्बिका-अम्बालिका से प्रारम्भ होती है, उसकी परिणति द्रौपदी के वस्त्र हरण के साथ होती है। अर्जुन जब कुरुक्षेत्र मे शस्त्र डाल देते हैं, तब कृष्ण उन्हें अपनी पीड़ा की परिधि को बड़ा करने को कह समझाते हैं कि ये युद्ध केवल तुम्हारे राज्य को वापस लाने का साधन नहीं है अपितु यह उस वाणी की प्रतिध्वनि है जो विश्व में अन्याय के स्वाभाविक होने तथा स्वीकार्य होने का विरोध करता है। यह युद्ध केवल एक नहीं अपितु उन सारी द्रौपदीयों के लिए है जिन का अपमान अब सामान्य हो गया है क्योंकि जब दिव्य जन्मा कुरु राज्य वधू द्रौपदी ऐसी विभीषिका से गुजर सकती हैं तो सामान्य कन्याओं का क्या हश्र होता होगा।

उस समय भी सांसद महिला अपमान को क्रीड़ा और उपहास का रूप देकर सामान्य दृश्यमान के रूप में स्थापित कर रही थी जिसमें हम शक्तिशाली महिलाओं का अपमान सत्ता के केंद्र बिंदु में देखते हैं, यह समाज की सामान्य स्त्रियों की दशा ,और आज भी संसद, में वही दृश्य , वैसे ही दिख रहा है जिसे यदि जयललिता तथा मायावती के साथ बदतमीजी और गेस्ट हाउस वाले घटना के साथ जोड़ लें तो सभ्यता का परिणाम भयानक दिखता है। संस्कृति आज भी उसी मार्ग का गमन करती दिख रही है जिस मार्ग से वह हर युग से चलती रही है – स्त्री अपमान का मार्ग।

इस घटनाक्रम में साफ तो कोई दल नहीं निकलेगा और न ही हमारा समाज। क्योंकि ऐसे बयानों के बाद भी जब वही राजनेता फिर जन प्रतिनिधि बनकर संसद आ जाते हैं तो निराशा जनता से भी होती है! शराब सेवन, छिनरई आदि जिन विशेषणों पर हम सदैव से पुरुषों की आलोचना करते आए हैं उन्हीं आदतों को आजकल स्त्रियों ने अपने लिए बराबरी का पैमाना बनाया हुआ है ।

10 साल पहले ‘माँ’ तक पहुँचने पर युद्ध की संभावना और परस्पर आजीवन संबंधों का विच्छेद होता था। अब अब इन शब्दों का उच्चारण ना केवल सामान्य है बल्कि इनका कलात्मक प्रयोग कर लोग कलाकार श्रेणी में अपनी जगह सुनिश्चित कर रहे है।

माँ, बहन की गालियों को इतना स्वाभाविक कर दिया गया है कि लोग इसे मजे में ,प्यार में प्रयोग करते है। निराशा तब होती है जब ‘कन्यादान’ का विरोध करने वाली महिलाएँ गालियों के वाक्य अलंकारों के उटपटांग फैशन को प्रोत्साहन देती हैं जिसमें उनका अपमान ही नहीं उनके अस्तित्व पर भी प्रश्न है ।

चौराहे और चौबारे का फर्क समाज और नेतृत्व दोनों भूलता जा रहा है। वैसे स्त्रियों की गलती गिनाने से बलात्कारी मानसिकता को नहीं बदला जा सकता जो बल के प्रभाव और मानवीयता के अभाव में उपजता है। पशुओं में मादा की स्वीकृति या नर एवं मादा के सम्बन्ध का अर्थ नहीं होता, शक्ति और सुरक्षा के माध्यम से सम्बन्ध परिभाषित होते हैं। अपशब्दों में हम मानवीय सम्बन्धों का पाशवीकरण के सामानयीकरण को स्वीकार कर रहे हैं। तब सोचना आवश्यक है की क्या हम जंगल से शहरों की ओर बढ़ रहे हैं या जंगलों को शहरों में बो रहे हैं।

हमारे नेताओं को, हमारे आदर्शों को समाज के लिए ऊँचे मानदंड बनाने होंगे क्योंकि उनसे एक बड़ा वर्ग अपनी नैतिकता के मानदंड के मानक खींचता है। संघर्ष और क़ानून एक सीमा तक ही काम आ सकते हैं यदि मनुष्य के मस्तिष्क से सही ग़लत के भेद मिट जाए तो न्याय भी असहाय हो जाता है। हमारे समाज के आदर्श पुरुषों और महिलाओं को इस पर सोचने की आवश्यकता है।

कभी-कभी इन कथित नेताओं की बातें सुनती हूँ तो लगता है कि चलो माना इनके संदर्भ समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, पर इनका उत्तरदायित्व सामाजिक, चारित्रिक और शाब्दिक संवाद को बेहतर करना और रखना भी है क्योंकि समाज तो सदैव प्रेरणा पर चलता रहा चाहे वो राम का युग हो या कृष्ण का युग है। जब शब्द टूटते हैं तो सामाजिक नैतिकता के मानक बिखरते हैं, और वहीं से समाज के विघटन की त्रुटि रेखाएँ लिखी जाती हैं।

इस लेख को लिखा है श्रद्धा सुमन राय (Shraddha Suman Rai) ने।