उत्तिष्ठत जाग्रत: ज्ञान रूपी अस्त्र के हिमायती थे स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद का जन्म जिस समय में हुआ था वह भारत में अज्ञान का नहीं, तो संभवतः जनचेतना का सुषुप्त काल था। लोग पारंपरिक रूढ़ियों में बँधे थे और समुदायों के आवरण से बाहर आकर समग्र हिन्दू राष्ट्र के रूप में संगठित नहीं थे। शेष विश्व में भारत की छवि एकीकृत राजनैतिक इकाई के रूप में तो छोड़ दीजिए एक भौगोलिक-सांस्कृतिक इकाई के रूप में भी नहीं देखी जाती थी। ऐसे समय में विवेकानंद ने ‘उठो जागो…’ का नारा दिया था और विश्व धर्म संसद में सनातन की अलख जगाई थी।

‘उठो-जागो…’ का नारा वास्तव में कठोपनिषद से आया है। कठोपनिषद के प्रथम अध्याय तीसरी वल्ली का 14वाँ मंत्र है: “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति॥” श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी इस मंत्र का अर्थ इस प्रकार बताते हैं- “उठो जागो और श्रेष्ठ ज्ञानियों के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो। ज्ञान के बिना इस जगत में कुछ भी उन्नति साध्य नहीं हो सकती। यह आत्मज्ञान और आत्मोन्नति का मार्ग अत्यंत कठिन है वैसे ही जैसे तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलना। इस पथ पर संभलकर चलना चाहिए, पथ से थोड़ा भी डिगे तो पतन हो जाएगा। सब ज्ञानी इस मार्ग का ऐसा ही वर्णन करते आए हैं। सदा सावधान रहना चाहिए। उठो जागो, यहाँ सोने से काम नहीं चलेगा।”

सातवलेकर जी की इस व्याख्या में निहित अर्थ बड़े गहरे हैं। कठोपनिषद का यह मंत्र कहता है कि ज्ञान प्राप्त करने और उसे साधने का मार्ग अस्त्रों को साधने जितना ही कठिन है। यहाँ ज्ञान को अस्त्र के समान बताया गया है अर्थात ज्ञान मारक और प्रतिरक्षा दोनों स्थितियों में कारगर हथियार है। ज्ञान के प्रयोग की विधा भी सबको सुलभ नहीं होती। विषय में पारंगत व्यक्ति ही ज्ञान का प्रतिपादन करने में सक्षम है। इसीलिए कहा गया कि श्रेष्ठ ज्ञानियों के पास जाकर ही ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है।

कठोपनिषद का दूसरा नाम नचिकेतोपाख्यान है क्योंकि इसमें नचिकेता की कहानी है जो आत्मज्ञान की खोज करता है। स्वामी विवेकानंद ने भी नचिकेता की भाँति ज्ञान की खोज करने के पश्चात् ‘उठो, जागो…’ का उद्घोष कर भारत के सुषुप्त जनमानस को जगाया था। जब विवेकानंद 1893 में शिकागो के ‘पार्लियामेंट ऑफ़ रिलीजंस‘ में बोल रहे थे तब वे प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने भारत के ‘सॉफ़्ट पॉवर’ को विश्व के सामने प्रोजेक्ट किया था। उस समय वे भारत को एकीकृत सांस्कृतिक, भौगोलिक एवं राजनैतिक इकाई के रूप में विश्व के सामने रख रहे थे।

जब हम किसी देश को एक सांस्कृतिक, भौगोलिक और राजनैतिक इकाई के रूप में प्रदर्शित करते हैं तब हम सीमाओं से घिरे उस क्षेत्र को राष्ट्र-राज्य के रूप में देख रहे होते हैं। तब हमें यह समझ में आता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा कितनी महत्वपूर्ण है और इसमें ज्ञान का कितना महत्व है। यह समझना थोड़ा कठिन है किंतु यदि अमेरिका के संस्थानों पर विचार किया जाए तो हम पाएँगे कि उन्होंने सदैव ही ज्ञान को एक अस्त्र के रूप में प्रयोग किया है।

प्राचीनकाल के युद्धों का अध्ययन करें तो हम पाएँगे कि पहले वे समूह शक्तिशाली होते थे जिनके कबीले बड़े होते थे, फिर उनका प्रभुत्व रहा जो सैन्य बल के द्वारा अधिकाधिक भूमि पर कब्ज़ा कर सकते थे। उसके बाद ब्रिटेन का प्रभाव रहा जिसकी नौसेना अत्यधिक शक्तिशाली थी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका पूरी तरह से सूचना आधारित युद्ध के बल पर विश्व शक्ति बना हुआ है। दूसरे शब्दों में कहें तो अमेरिका ने ज्ञान को अपना हथियार बनाया है जिसके बल पर वह प्रोपेगंडा फ़ैलाते हुए अपना दबदबा बनाए रखता है। रणनीतिक शब्दावली में इसे ‘propaganda warfare’ या ‘information warfare’ कहा जाता है।

अमेरिका ने ज्ञान को अस्त्र के रूप में प्रयोग करने के लिए बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों, वैज्ञानिकों, फिल्मकारों और कला जगत की हस्तियों की फ़ौज तैयार कर रखी है जो पूरे विश्व में जाकर अमेरिका के नाम का ढिंढोरा पीटते हैं। इनके पीछे होते हैं ढेर सारे थिंक टैंक जहाँ बुद्धिजीवी बैठकर पचास वर्ष आगे की रणनीति बनाते हैं। इसमें केवल मिलिट्री स्ट्रेटेजी चिंतक ही नहीं होते बल्कि शिक्षा, अर्थशास्त्र, विज्ञान एवं तकनीक आदि विषयों के विशेषज्ञ होते हैं जिनका काम होता है पब्लिक पॉलिसी के विभिन्न पक्षों का अध्ययन करना और उसपर सरकार को अपने मत से अवगत कराना।

नस्सिम निकोलस तालेब भले ही यह कहते हों कि पब्लिक पॉलिसी के चिंतकों की देश दुनिया को चलाने में कोई प्रत्यक्ष भूमिका (skin in the game) नहीं होती परंतु वास्तविकता यह है कि अमेरिका में RAND कॉर्पोरेशन जैसे थिंक टैंक में बैठे चिंतक दिन रात यही रणनीति बनाते हैं कि दक्षिण एशिया में अमेरिका किस प्रकार विप्लव की स्थिति बनाए रखे अथवा मध्यपूर्व में किस प्रकार अपने हितों की रक्षा की जाये।

यह बड़ी विडंबना है कि भारत ने उपनिषदों तथा स्वामी विवेकानंद के उद्घोष से वह नहीं सीखा जो सीखना चाहिए था। हम information warfare में इतना पीछे हैं कि अपने एक राज्य जम्मू कश्मीर के बारे में भी सही सूचना देश को नहीं दे पाते। उदाहरण के लिए लेफ्टिनेंट जनरल सय्यद अता हसनैन (सेवानिवृत्त) ने अपने एक लेख में लिखा है कि हमें जम्मू कश्मीर राज्य में 5,000 ‘information warrior’ तैनात करने चाहिए जो सही सूचना दे सकें और गलत सूचनाओं से लड़ सकें।

स्वामी विवेकानंद ने ‘उठो जागो’ का उद्घोष इसीलिए किया था क्योंकि वे देश में कभी न सोने वाले ज्ञानी योद्धाओं को देखना चाहते थे। ऐसे योद्धा जिनके पास ज्ञानरूपी अस्त्र हों और जो कभी बरगलाए न जा सकें। आज का युवा वर्ग जब किसी के द्वारा बरगला दिए जाने पर ऊँचे सपने देखना बंद कर देता है तब उसकी इच्छाशक्ति मर जाती है। एक ऐसा देश जिसका 60% मानव संसाधन युवा हो यदि वह गलत सूचनाओं और प्रोपगंडा के जंजाल में फंसकर अपनी इच्छाशक्ति खो देगा तो युद्ध में आधी पराजय तो वैसे ही हो जाएगी।

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार श्री अजित डोभाल अपने एक व्याख्यान में इसे राष्ट्रीय सुरक्षा पर गंभीर संकट बताते हैं। वे कहते हैं कि युद्ध किसी को मारने के उद्देश्य से नहीं लड़े जाते बल्कि शत्रु देश की इच्छाशक्ति को मारने के लिए लड़े जाते हैं ताकि वह हमारी शर्तों पर शांति समझौता करने को बाध्य हो जाए। स्वामी विवेकानंद ने भी संभवतः अपने समय से सौ वर्ष बाद का भारत देख लिया होगा इसीलिए उन्होंने कहा था: “उठो जागो और तब तक मत रुकना जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।”