लुटियन के दलालों को बस यही बात बहुत चुभती है

दिल्ली की सत्ता का केंद्र जहाँ पहले दलालों की पहुँच अंतिम कमरे तक हुआ करती थी।

दिल्ली के लुटियन एरिया से, दिल्ली के लोग तो वाकिफ होंगे ही, लेकिन जो लोग दिल्ली के बाहर के हैं, उनके लिए इसका संक्षिप्त परिचय है कि अंग्रेज वास्तुकार एडवर्ड लुटियन द्वारा बसाई गई नई दिल्ली को ‘लुटियन दिल्ली’ कहा जाता है। आज वहाँ भारत सरकार के सभी मंत्रालय, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, मंत्री, सांसदों, जजों, ब्यूरोक्रेट्स और अन्य महत्वपूर्ण हस्तियों के बंगले हैं, जिन्हें दिल्ली में ‘कोठियाँ’ कहा जाता है।

एक चीज, जो इस इलाके को खूबसूरत और खास बनाती है, वह है यहाँ के बड़े-बड़े चौराहे, जिनसे अमूमन चार से ज्यादा सड़कें जुड़ती हैं, जिसे स्टैण्डर्ड भाषा में तो रोटरी कहते हैं, पर दिल्ली की भाषा में गोल चक्कर कहा जाता है।

तो इन गोल चक्करों पर यूपीए के दौर में, अक्सर ऐसे लोग खड़े पाए जाते थे, जो आपका नाली बनाने से लेकर आपको कैबिनेट मंत्री बनवाने तक का हौसला, माद्दा और हुनर रखते थे। इन सबकी सीधी पहुँच सोनिया, राहुल, प्रियंका, और अहमद पटेल तक होती थी। ये लोग इतने साहसी होते थे कि क्लाइंट अगर जरा सा भी डाउटफुल दिखा तो ये उपरोक्त लोगों से आपकी आमने-सामने मुलाकात की हामी भर देते थे।

इन लोगों का एक गिरोह टाइप से होता था, जो जाहिर सी बात है, कुछ हद तक रसूख वाले लोगों से जुड़ा भी होता था। और ये लोग तमाम कामों को लेकर इन्हीं गोल चक्करों पर मिशन बनाकर निकलते थे। मान लीजिये किसी बोर्ड, अथॉरिटी, कमीशन आदि में कोई चेयरमैन या मेम्बर की जगह खाली है, जहाँ अच्छा बजट है, लाल बत्ती है और अन्य सरकारी ठाठ हैं, तो उस पोस्ट की एक फिक्स कीमत के साथ अलग-अलग लोग काम पर लग जाते थे।

वो दलाल अलग-अलग पार्टियों को इस काम के लिए फँसाते थे और सबको 10 जनपथ में मीटिंग करवाने का झाँसा देते थे। ये लोग सबसे टोकन मनी या पूरा पैसा वसूल लेते थे, जो लाखों से लेकर करोड़ों तक में हो सकता था। तो इस प्रकार एक पोस्ट के लिए ये गिरोह चार पार्टियों को घेर कर रखता था, लेकिन काम किसी पाँचवे का हो जाता था। बाकी लोग ठगे रह जाते थे और दलालों की चाँदी हो जाती थी।

यह एक ऐसा पॉपुलर कल्चर और सिस्टम था, जो यूपीए दौर में ही नहीं बल्कि लुटियन दिल्ली में दशकों से चल रहा था, और जो भी अन्दर-बाहर के लोग थे, वे यह मान चुके थे, कि यह लोकतंत्र का एक साइड इफ़ेक्ट है, इसे बदला नहीं जा सकता। लेकिन इस मामले में मोदी सरकार ने एक लकीर खींची, जिसे हम कह सकते हैं कि दिल्ली की सत्ता – मोदी से पहले और मोदी के बाद। मोदी ने इस सिस्टम को खत्म करने के लिए, इस नेक्सस को खत्म किया। बेशक मोदी राज में ऐसे तमाम पद खाली रहे, उन्होंने अपने समर्थकों को भी उन पर नहीं बिठाया, लेकिन लाभ के ऐसे तमाम पदों को बोली लगाकर बेचने की परम्पराओं को पूरी तरीके से समाप्त किया।

मैं एक छोटा उदाहरण देकर समझाता हूँ कि मोदी सरकार बनने के बाद पीयूष गोयल पॉवर मिनिस्टर बने। उससे पहले सिंधिया उस विभाग के मंत्री थे। गोयल लुटियन दिल्ली के इस कल्चर को समझते थे, और वे मोदी की छवि और मंशा के अनुसार काम करना चाहते थे और इसलिए उन्होंने ज्वाइन करते ही सबसे पहले मंत्री ऑफिस से अटैच चतुर्थ श्रैणी कर्मियों को वहाँ से हटाया, जिसमें चाय वाले से लेकर ड्राईवर तक शामिल थे।

ऐसे लोग ऐसी जगहों पर बरसों से जमे होते हैं, मंत्रियों के कार्य करने के सिस्टम को अच्छे से समझते हैं, और मंत्रियों के इर्द-गिर्द रहने के एवज में लाखों कमाते भी हैं। साथ ही, बाकी लोगों को सख्त हिदायत दे दी गई कि मंत्री का नाम लेकर अगर कोई भी किसी अवैध गतिविधि में लिप्त पाया गया तो उसके नतीजे गंभीर होंगे। ऐसी ही प्रैक्टिस सरकार में अन्य लोगों द्वारा भी फ़ॉलो की गई।

यही वजह है कि आज आप लुटियन दिल्ली के किसी भी गोल चक्कर पर खड़े हो जाइए, कोई कितना भी रसूखदार बना रहे लेकिन किसी में यह कहने की हिम्मत नहीं है कि वह किसी काम के लिए आपकी मुलाकात नरेन्द्र मोदी, अमित शाह और अरुण जेटली से करवा देगा, काम करवाना तो दूर की बात है। इस बात को मोदी सरकार के धुर विरोधी भी स्वीकार करते हैं।

यही वह सबसे बड़ी वजह है, जिस कारण लुटियन दिल्ली में ‘दलाली’ के काम से फलने-फूलने वाली पत्रकार जमात- विशेषकर अंग्रेज़ी पत्रकार, एनजीओ, लेखक, चिंतक, बुद्धिजीवी और विचारक टाइप लोग मोदी से खफ़ा हैं, क्योंकि इस व्यक्ति को लुटियन दिल्ली में, इंडिया हैबिटैट सेंटर, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर जैसे ठिकानों में अड्डा ज़माने वाले लोगों से कोई हमदर्दी नहीं है। यह व्यक्ति ठेठ है, जो अपने काम और अपनी धुन में मगन रहता है। बस यही बात दलालों को बुरी लगती है।