कॉन्ग्रेस ने 2007-11-13 में ऐसे ही कृषि बिल पर काम किया, राज्यों में लागू करवाया… चुनाव में भी जिक्र… अब कर रही नौटंकी

कॉन्ग्रेस आज जिस कानून को 'किसान विरोधी' बताने का प्रयास कर रही, उसे वह 2007 से ही लाना चाहती थी और इसे लेकर अपने राज्यों में कानून भी पारित करती रही है

किसानों के हितों को विषय बनाकर एक बार फिर विपक्षी दल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए केंद्र सरकार को घेरने का प्रयास कर रहे हैं। इसी विरोधी राजनीतिक दखलंदाजी का नतीजा है कि पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश समेत देश के कई हिस्सों में कृषि सुधार विधेयक (Farm Bill 2020) को लेकर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं।

पिछली गैर-भाजपा सरकारों के न केवल राजनीतिक घोषणापत्र, बल्कि कृषि और समाजिक कार्यकर्ताओं, किसानों और उद्योग के समर्थकों के कई अध्ययनों ने दशकों से कृषि क्षेत्र में सुधार और उदारीकरण की माँग की है। खरीद, भंडारण से लेकर रसद और बिक्री तक, ऐसे बहुत से पहलू हैं, जो किसान और अंतिम उपभोक्ता दोनों के लिए अधिक मूल्य के लिए बदला जाना चाहिए। और यह पहली बार नहीं है, जब किसान इस बदलाव की प्रक्रिया में सड़क पर उतरे हों। मगर कॉन्ग्रेस जैसे राजनीतिक दलों का इन्हीं विषयों पर बदलता मत दिलचस्प है।

किसान कथित तौर पर नए नियमों का विरोध कर रहे हैं और इसके साथ ही विपक्ष सरकार पर निशाना साध रही है। हालाँकि, किसानों को लेकर एनडीए सरकार से पहले भी पूर्ववर्ती सरकार ऐसे विधेयक समय-समय पर पेश करती आई हैं, जिनमें सबसे अधिक आज ‘किसान-हितैषी’ होने का दावा करने वाले कॉन्ग्रेस (यूपीए) जैसे राजनीतिक दल सबसे आगे हैं। जबकि अपने सत्ताकाल में वह खुद इस प्रकार के बिल लाने की कोशिश कर रही थी।

केंद्र सरकार के नए कानूनों का विरोध कर रहे राजनीतिक दल और अन्य संगठनों का आरोप है कि नए क़ानून से कृषि क्षेत्र पूँजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका नुक़सान किसानों को होगा।

एक नजर किसानों से जुड़े उन तमाम विधेयकों पर, जिन्हें पूर्ववर्ती सरकारों ने तब किसानों के लिए लाभकारी बताया था –

कॉन्ग्रेस का 2019 का घोषणापत्र

2019 के लोकसभा चुनाव में कॉन्ग्रेस ने अपने घोषणापत्र में कहा था कि सत्ता में आने पर किसानों को अपनी उपज सरकारी मंडियों में ही बेचने की अनिवार्यता को खत्म करेगी और किसान कहीं भी अपनी उपज बेच पाएँगे।

लोकसभा चुनाव के वक्त अपने घोषणापत्र में ही ऐलान किया था कि वह सरकार में आए तो सरकारी मंडी में फसल बेचने की अनिवार्यता को खत्म कर देंगे। ख़ास बात यह है कि तब भारतीय किसान यूनियन (BKU) ने भी कॉन्ग्रेस के इस कदम का स्वागत किया था जबकि आज यही BKU इन कृषि सुधारों का विरोध कर रही है।

कॉन्ग्रेस का 2014 का घोषणापत्र

2019 चुनावों से पहले 2014 के आम चुनाव में भी कॉन्ग्रेस ने यही घोषणा की थी। जिसके बाद कर्नाटक, असम, हिमाचल प्रदेश, मेघालय और हरियाणा की कॉन्ग्रेस की ही सरकारों ने किसानों को APMC एक्ट से अलग कर कहीं भी उपज बेचने का अधिकार दे दिया था।

2013

वर्ष 2013 में खुद राहुल गाँधी ने ही कॉन्ग्रेस शासित राज्यों से कहा था कि 12 राज्य अपने यहाँ फल और सब्जियों को APMC एक्ट से बाहर करेंगे और एक्ट में बदलाव की बात कही थी। अब यही कॉन्ग्रेस और इसके नेता राहुल गाँधी इस एक्ट में बदलाव का विरोध कर खुद को किसानों के मसीहा होने का दावा करते नजर आ रहे हैं।

2011

यूपीए सरकार के दौरान ही योजना आयोग ने भी वर्ष 2011 में अपनी एक रिपोर्ट में “Inter-State Agriculture Produce Trade and Commerce Regulation एक्ट को निष्क्रिय कर केंद्र की लिस्ट से हटाने का सुझाव दिया था।

9 साल पहले कॉन्ग्रेस ने इन विधेयकों को बताया था ‘किसान हितैषी’

योजना आयोग के सुझाव के बाद बाद उसी वर्ष 2011 में कैबिनेट सचिव ने सिफारिश की थी कि देश में अंतरराज्यीय कृषि व्यापार को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इसके अगले साल यूपीए सरकार ने ‘Agricultural Produce Inter State Trade and Commerce (Development and Regulation) Bill 2012’ तैयार किया। हालाँकि, यूपीए सरकार इस विधेयक पर आगे नहीं बढ़ पाई।

2008

तब भारतीय किसान संगठन ने ही शिकायत की थी कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूँ की कीमत 1,600 रुपए प्रति क्विंटल थी, जबकि तत्कालीन यूपीए सरकार उन्हें अपनी उपज को 100 रुपए प्रति क्विंटल के मूल्य पर बेचने को मजबूर कर रही थी।

उस समय किसान यूनियन, तत्कालीन यूपीए सरकार के फैसले का विरोध कर रही थी कि उन्हें उपज को निजी खरीद पर रोक लगाने के नियम को हटाना चाहिए। यानी, किसान यूनियन उस समय कॉर्पोरेट फार्मिंग की वकालत कर रही थी। जबकि नए कृषि सुधारों के अनुसार, किसान अपनी उपज को बिना किसी बिचौलिए के किसी भी बाजार और मंडी में बेचने के लिए स्वतंत्र हैं और अब किसान यूनियन इस फैसले का विरोध करती देखी जा सकती है।

2007

वर्ष 2007 में यूपीए सरकार के दौरान ही ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत 2007-2012 के लिए कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग, और ई-ट्रेडिंग का जिक्र किया गया था। तब हरियाणा, कर्नाटक, पंजाब, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश राज्यों ने अपने कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कानून पारित भी किए थे।

ऐसे में सवाल यह है कि कॉन्ग्रेस आखिर किस मुँह से अब इन सभी कृषि सुधारों को किसान-विरोधी साबित करने का प्रयास कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे ‘आज़ादी के बाद किसानों को किसानी में एक नई आज़ादी’ देने वाला विधेयक बताया है।

उन्होंने कहा कि किसानों को एमएसपी का फ़ायदा नहीं मिलने की बात ग़लत है और विरोधी दल सिर्फ विरोध के लिए इस कानून का दुष्प्रचार कर रहे हैं। सितम्बर माह में ही पीएम मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए बिहार की कई परियोजनाओं का शुभारंभ करते हुए कहा था कि जो लोग दशकों तक देश में शासन करते रहें हैं, सत्ता में रहे हैं, देश पर राज किया है, वो लोग किसानों को भ्रमित कर रहे हैं, किसानों से झूठ बोल रहे हैं।

पीएम मोदी ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि विधेयक में वही चीज़ें हैं, जो देश में दशकों तक राज करने वालों ने अपने घोषणापत्र में लिखी थी। इन तमाम बातों से यही स्पष्ट होता है कि कॉन्ग्रेस खुद 2007 से ही किसानों के लिए यही बिल लेकर आ रही थी, जिस पर बाद में उसकी कई प्रदेश कॉन्ग्रेस सरकारों ने भी काम किया। लेकिन अब जब मोदी सरकार किसानों के लिए उन्हीं किसान हितैषी बिलों को कानून का रूप देने की कोशिश कर रही है तो कॉन्ग्रेस ने अपना पाला बदल कर इसे ‘किसान-विरोधी’ ठहराना शुरू कर दिया है।

कुल मिलाकर यह पूरी लड़ाई इस एक विचार पर केंद्रित होती नजर आती है कि कॉन्ग्रेस का बिल प्रगतिशील और भाजपा का कानून किसी न किसी तरह से ‘किसान विरोधी’ और ‘फासीवादी’ है।

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया