वो यात्रा, जो न होती तो राम-राम कहना भी होता अपराध… जब ‘अधर्म’ वाले कानूनों के खिलाफ मैसूर से निकले थे आडवाणी, नक्सलियों के गढ़ में लहराया था भगवा

लालकृष्ण आडवाणी की 'जनादेश यात्रा' ने राजनीति को 'अधर्म' से बचा लिया

भारत सरकार ने पूर्व उप-प्रधानमंत्री एवं भाजपा के अध्यक्ष रहे लालकृष्ण आडवाणी को ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किए जाने का निर्णय लिया है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी घोषणा करते हुए कहा कि उनके साथ काम करना और सीखना उनके लिए सौभाग्य की बात है। लालकृष्ण आडवाणी 96 वर्ष के हैं, उनका राजनीतिक और समाजिक करियर कई दशकों का रहा है। 8 नवंबर, 1927 को सिंध (अब पाकिस्तान में) के कराची शहर में जन्मे लालकृष्ण अडवाणी विभाजन के बाद विस्थापित होकर भारत आए और 90 के दशक में यहाँ की राजनीति के शिखर पुरुष बन कर उभरे।

लालकृष्ण आडवाणी को ‘भारत रत्न’ दिया जाना इस सम्मान का भी सम्मान है। मात्र 14 वर्ष की उम्र में उन्होंने RSS की सदस्यता ले ली थी और जिस साल भारत को स्वतंत्रता मिली, उस साल वो कराची शहर में संगठन के सेक्रेटरी बन चुके थे, शाखा संचालित करते थे। भारत की आज़ादी के बाद उन्हें राजस्थान की जिम्मेदारी मिली, जहाँ उन्होंने 1952 तक अलवर, भरतपुर, कोटा, बूंदी और झालावाड़ में बतौर प्रचारक काम किया। 1967 में हुए ‘दिल्ली मेट्रोपॉलिटन काउंसिल’ के अध्यक्ष बने।

राम रथ यात्रा देश में लेकर आई सांस्कृतिक पुनरुत्थान का युग

लालकृष्ण आडवाणी को सामान्यतः सितंबर-अक्टूबर 1990 में आयोजित राम रथ यात्रा के लिए जाना जाता है। इस यात्रा ने न सिर्फ भारतीय राजनीति को बदल दिया, बल्कि हर एक हिन्दू के भीतर स्वाभिमान जगा दिया। ऐसे ही पीएम मोदी ने उन्हें ‘भारत रत्न’ मिलने की बधाई देते हुए देश के सांस्कृतिक पुनरुत्थान में अद्वितीय योगदान देने वाले नहीं बता दिया। बिहार के समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी के बाद पूरे देश की राजनीति में भूचाल आ गया था, केंद्र में सरकार तक गिर गई थी।

राम रथ यात्रा अगर न हुई होती तो शायद आज हम अयोध्या में भव्य राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के साक्षी न बनते। गुजरात के सोमनाथ से शुरू हुई इस रथ यात्रा में प्रतिदिन लगभग 300 किलोमीटर की दूरी तय की जाती थी और आडवाणी एक दिन में आधा दर्जन रैलियों को संबोधित करते थे। गुजरात के बाद यात्रा महाराष्ट्र, अब के तेलंगाना, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी गई। गाँव-गाँव में हजारों लोग यात्रा का स्वागत करते, ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’ के नारे लगते और लोग कई किलोमीटर तक यात्रा के साथ पैदल चलते।

हालाँकि, बिहार के समस्तीपुर में यात्रा के पहुँचते ही तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव ने तब के प्रधानमंत्री VP सिंह की सलाह पर लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार करवा दिया। मुस्लिम वोटों के लिए ये सब किया गया। उधर यूपी में मुलायम सिंह यादव की सरकार ने कारसेवकों पर गोली चलवाई। डेढ़ लालः लोग गिरफ्तार किए गए। ‘समाजवादी’ कहलाने वाले नेताओं में मुस्लिम तुष्टिकरण की होड़ लग गई थी। आडवाणी की गिरफ़्तारी से भाजपा के लिए लोगों के मन में सहानुभूति बढ़ी और 1991 के आम चुनावों में वो दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी, उसी साल यूपी में भी पार्टी की सरकार बनी।

जनादेश यात्रा: ‘अधर्म’ के खिलाफ लालकृष्ण आडवाणी की हुंकार

लालकृष्ण आडवाणी ने अपने राजनीतिक जीवन में कुछ अन्य यात्राएँ भी निकाली, लेकिन राम रथ यात्रा के आगे उनकी अधिक चर्चा नहीं होती। जैसे – सुराज यात्रा (मार्च 1996), स्वर्ण जयंती रथ यात्रा (मई 1997), भारत उदय यात्रा (2004), भारत सुरक्षा यात्रा (अप्रैल 2006) उन्हीं में से एक है – ‘जनादेश यात्रा’। असल में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की सरकार 1993 में 2 बिल लेकर आई थी – 80वाँ संविधान संशोधन और ‘रिप्रजेंटेटिव्स ऑफ पीपल (अमेंडमेंट) बिल।’

लालकृष्ण आडवाणी ने इन विधेयकों के खिलाफ देश में 4 स्थानों से यात्रा की योजना बनाई। असल में ये दोनों ही विधेयक मार्क्सवादियों के प्रभाव में लाए गए थे, भारत को वामपंथी राष्ट्र बनाने के मकसद से लाए गए थे। इसके तहत सार्वजनिक रूप से धर्म के प्रदर्शन को अपराध ठहराया जाना था। मुस्लिम तुष्टिकरण ही इनका लक्ष्य था। भाजपा की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए इन्हें लाया गया था। संसद में लालकृष्ण आडवाणी ने इन विधेयकों का तगड़ा विरोध किया।

उन्होंने कहा, “हम ईश्वर भक्ति को धर्म का नाम देने के सख्त विरोध में हैं – सभी भारतीयों के लिए, चाहे वो हिन्दू हों, मुस्लिम हों, सिख हों, या ईसाई हों। उनका धर्म उन्हें सही कार्य करने के लिए प्रेरणा देता है। राजनीति को अगर धर्म से हटाया गया तो इससे जनता के जीवन का नैतिक आधार कम हो जाएगा। राजनीति से अधर्म को हटाया जाना चाहिए, धर्म को नहीं। राजनीति से भ्रष्टाचार और अपराध को हटाइए।” भाजपा का आरोप था कि इन विधेयकों के जरिए कॉन्ग्रेस सरकार देश में चुनावी प्रथा समाप्त कर अन्य दलों की मान्यताएँ रद्द करने की साजिश रच रही थी।

अतः, 11 सितंबर, 1993 को स्वामी विवेकानंद की जन्म-जयंती पर 4 यात्राएँ शुरू की गईं। मैसूर से स्वयं लालकृष्ण आडवाणी, जम्मू से भैरों सिंह शेखावत, पोरबंदर से मुरली मनोहर जोशी और कोलकाता से कल्याण सिंह यात्रा लेकर निकले। इन यात्राओं के जरिए 14 राज्यों और 2 केंद्रशासित प्रदेशों को कवर किया गया। 25 सितंबर को भोपाल में एक विशाल रैली हुई, जिसमें चारों यात्राओं का मिलन और समापन हुआ। ‘जनादेश यात्रा’ ने कॉन्ग्रेस की चूलें हिला दीं।

जो तेलंगाना (तब आंध्र प्रदेश का हिस्सा) नक्सलियों के कारण कुख्यात हो चला था, वहाँ लालकृष्ण आडवाणी को तगड़ी प्रतिक्रिया मिली। कोलकाता में कल्याण सिंह का ऐसा स्वागत हुआ कि ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने ‘लाल शहर हुआ भगवा’ वाले शीर्षक के साथ खबर छापी। इसमें लिखा गया कि शायद ये शहर अब पहले जैसा नहीं रहेगा। पंजाब में भैरों सिंह शेखावत की यात्रा से खालिस्तानी आतंक से पीड़ित इलाके में प्रशासन को मजबूती मिली, काम करने के लिए प्रोत्साहन मिला।

इसका नतीजा ये हुआ कि दोनों ‘अधर्म’ वाले बिल संसद में पास नहीं हुए। अगर वो विधेयक कानून बन गए होते तो शायद राम-राम कह कर एक-दूसरे का अभिवादन करने पर भी जेल हो जाती। लोकतंत्र की रक्षा और धर्मचक्र के परिवर्तन के क्रम में इस यात्रा ने हिन्दुओं को अपने ही देश में अपराधी बनाने से बचा लिया। आज भी राम मंदिर के खिलाफ ‘राजनीति को धर्म से अलग रखने’ की बातें की जाती हैं, लेकिन ऐसा कहने वाले ये भूल जाते हैं कि धर्म के हिसाब से न चलने वालों का पतन हो जाता है, धर्म है तभी नीति है और नीति है तभी सुराज है।

लालकृष्ण आडवाणी पहले से ही ‘भारत के रत्न’

अगर केंद्र में मोदी सरकार नहीं बनती और लालकृष्ण आडवाणी को अगर ‘भारत रत्न’ न मिलता, तब भी देशसेवा में उनके योगदान का प्रभाव कम नहीं होता। आपातकाल के दौरान भी इंदिरा गाँधी की तानाशाह कॉन्ग्रेस सरकार ने उन्हें 16 जून, 1975 से लेकर 18 जनवरी, 1977 तक जेल में बंद रखा। 1977 में इंदिरा गाँधी के खिलाफ जनता पार्टी सरकार के गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी, तभी इस सरकार में उन्हें सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया गया।

पीएम मोदी ने उनके इस कार्यकाल को भी याद किया है। इसका कारण है कि जिस भाजपा को मीडिया विरोध कह कर कोसा जाता है, उसी के संस्थापक ने प्रेस की स्वतंत्रता के लिए मंत्री के रूप में कई कदम उठाए। जब लालकृष्ण आडवाणी ‘जनादेश यात्रा’ निकाल रहे थे, उसी दौर में नरेंद्र मोदी भी एक कुशल संगठन प्रशासक के रूप में उभर रहे थे। राम रथ यात्रा के आयोजन और मीडिया कवरेज में भागीदारी निभा कर उन्होंने खुद को साबित कर दिया था।

तभी उन्हें 1993 में गुजरात में पार्टी का महासचिव बनाया गया। जब कुछ विधायकों ने विरोध किया तो लालकृष्ण अडवाणी उनके समर्थन में खड़े हुए। अटल बिहारी वाजपेयी अगर प्रधानमंत्री बन पाए, इसमें भी लालकृष्ण आडवाणी का बड़ा हाथ था। 1995 में मुंबई में हुए भाजपा के अधिवेशन में उन्होंने ही वाजपेयी को पीएम उम्मीदवार घोषित किया, वरना दोनों नेता ‘आप पीएम प्रत्याशी’ की रट लगा कर एक-दूसरे का सम्मान किए जा रहे थे।

लालकृष्ण आडवाणी उस समय 90 के दशक में अटल बिहारी वाजपेयी से अधिक लोकप्रिय थे और अधिक सक्रिय थे, लेकिन उन्हें पता था कि पार्टी को एक रखने के लिए और गठबंधन बनाने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी का चेहरा आवश्यक है। 1986 में वाजपेयी की जगह आडवाणी ने कमान ली और अपना काम कर के एक दशक बाद कमान फिर उन्हें सौंप दिया। 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। उस दौरान कार्यकर्ताओं का अभिवादन करते हुए वाजपेयी ने नरेंद्र मोदी को गले भी लगाया था, जिसका वीडियो भी है।

अनुपम कुमार सिंह: भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।