संपादक के नाम पत्र: छेनू तक मेरा खत पहुँचा दीजिए

प्रिय अजीत भारती जी,

यद्यपि आपकी व्यस्तता में अतिक्रमण करते हुए लिख रहा हूँ, पर आशा करता हूँ कि आप इसे जरूरी महत्व अवश्य देंगे। हालाँकि चलन के अनुसार मुझे इस संबोधन को ‘ओपन लैटर’ बनाकर रवीश कुमार को लिखना चाहिए था, लेकिन विडम्बना यह है कि जो आदतन ओपन लैटर लिखते रहते हैं, वह औरों का ओपन लैटर पढ़ते नहीं हैं।

इसलिए मैं यह डायरेक्ट लैटर आपको लिख रहा हूँ, क्योंकि इस दौर में, आप उस मुकाम पर हैं, जहाँ से आप लोकतंत्र पर ‘एहसान’ बन चुके लोगों तक अपनी बात न केवल पहुँचा सकते हैं, बल्कि फेंक कर भी मार सकते हैं। और ऐसे ही एक एहसान इस कालखंड में रवीश कुमार हैं, जिनके लिए दुनिया न तो गोल है, और न ही सपाट, बल्कि NDTV में उनके 20 साल के कैरियर और उनके घर से NDTV स्टूडियो की 25 किलोमीटर की दूरी में सिमटी हुई है।

इसलिए उनको लगने लगा है कि प्रनॉय रॉय का स्टूडियो ही वह लैब है, जहाँ न केवल ‘ सत्य’ का निर्माण होता है, बल्कि निर्यात भी। और यही कारण है कि NDTV के ब्रह्मांड के बाहर जो भी कहा और लिखा जाता है, वह उनके अनुसार व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी का लेक्चर होता है या फिर भाजपा के आईटी सेल की साजिश।

तो उनको आप मेरे हवाले से, यह कन्फर्म कर दीजियेगा कि बीजेपी में आईटी सेल जैसा कुछ नहीं होता है। अगर उनका सौतिया डाह कभी खत्म हो जाए तो एक बार जाकर बीजेपी दफ्तर में देख आएँ कि वहाँ आईटी सेल जैसी कोई गुमटी या खोखा नहीं है, जिन मानकों पर एक राष्ट्रीय पार्टी को फंक्शन करना चाहिए, उसी तर्ज पर प्रोफेशनल वे में पार्टी रन होती है।

जिस प्रकार किसी बिजनेसमैन, खासकर हवाला का कारोबार चलाने वाले, या बिस्कुट बेचने वाले के टीवी एडवेंचर में काम करने से कोई पत्रकार नहीं हो जाता, वैसे ही ट्विटर और फेसबुक पर भाजपा का समर्थक होने से कोई आईटी सेल वाला या ट्रोल नहीं हो जाता है।

बात दरअसल यह है कि रविश कुमार जैसे लोग पत्रकारिता के उस युग से वास्ता रखते हैं, जब खबरें नहीं फतवे दिए जाते थे, यानि कह दिया सो कह दिया, न खाता न बही-जो छेनू ने कह दिया वही सही।

लेकिन अब गाँव-देहात, अमीर-गरीब सबके हाथ में हथेली भर की स्लेट है, जिसे वह अपने पैसे से खरीदता है, अपने पैसे से नेट पैक चलाता है, और अपनी मर्जी से लिखता है, बस ‘क़यामत’ यह आ गई है कि यह ऐरा-गैर प्लस नत्थू खैरा न केवल जवाब देना सीख गया है, बल्कि ‘खींच कर देना’ सीख गया है, जिसकी आवाज़ गूँजती है, और लुटियन दिल्ली के क्रांतिकारियों को चुभती है।

हाँ, एक जरूरी बात जो मुझे ‘व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी’ के विषय में कहना है, जिसका जिक्र गाहे-बगाहे रवीश कुमार करते हैं, कि इस यूनिवर्सिटी का उतना ही अस्तित्व है जितना इस दौर में ‘निष्पक्ष पत्रकारिता’ का है, जितना अघोषित आपातकाल का है, जितना बागों में बहार का है, जितना रवीश कुमार की एक्स कलीग बरखा को प्राप्त होने वाले ‘कंटेंट’ में ‘नेशनलिज्म’ का है।

इसलिए छेनू कुमार बेशक अपना एजेंडा जारी रखें, लेकिन ख़ुद में से जंजीर वाले अमिताभ बच्चन को माइनस कर लें, क्योंकि हकीकत में वे खबरों की दुनिया के राजू श्रीवास्तव बन चुके हैं लेकिन ‘फ्रसट्रेटेड’। उनकी पंचलाइन पर हो सकता है एनडीटीवी के रॉय दम्पत्ति को हँसी आती हो, या उनको ही हँसी आती है, इसीलिए वे इस ढहते हुए किले में टिके हैं, वरना सिर्फ पत्रकारिता के नाम पर कोई उनका मुरीद होगा, लगता नहीं है।

सादर,
अरविन्द शर्मा