क्या आपने टी. एओ का नाम सुना है? नागालैंड में जन सामान्य में इंदिरा गांधी स्टेडियम का नाम बदलकर टी. एओ स्टेडियम करने के विचार ने जन्म लिया । आखिर कौन हैं टी. एओ? क्यों उनके नाम पर स्टेडियम बनाने की बात हुई ? क्या महज इसलिए, क्योंकि इंदिरा गांधी का नाम हटाना है? क्या यह कोई विरोधी प्रतिक्रिया है? बिल्कुल नहीं। इस परिवर्तन का ऐसा कारण है, जिससे शायद ही कोई असहमत हो।
“एओ-दा” के नाम से हर गली के लोकरंजक टीएओ का पूरा नाम डॉक्टर तालिमेरेन एओ है। चिकित्सीय क्षेत्र में सिद्धता के साथ-साथ खेल जगत में उनका अविस्मरणीय योगदान रहा है। उनका जन्म 28 जनवरी, 1918 को अविभाजित असम राज्य के तत्कालीन जिला नागा हिल्स के नागाओं के प्रसिद्द “एओ” जनसमुदाय के चांगकी नामक गाँव में हुआ था।
उस समय वह 6 या 7 साल के थे, जब एक बैपटिस्ट ने उनके परिवार को चांगली से इंपुर में बसा दिया था। वे इस परिवार को मिशनरी काम में लगाना चाहते थे। 12 बच्चों में तालिमेरेन चौथे नंबर पर थे। तालिमेरेन का अर्थ होता है बहुत शक्तिशाली। अपने नाम के अनुसार तालिमेरेन बाल्यवस्था से ही साहसी, उत्साहित, कुशाग्र बुद्धि तथा खेल-प्रिय व्यक्तित्व के धनी रहे।
उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा इंपुर से ही प्राप्त की थी। अपने स्कूल की साऱी ही परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वहाँ मिशन कंपाउंड में उन्होंने फुटबॉल खेलना शुरू किया। उन दिनों में कोई फुटबॉल नहीं होती थी इसलिए वे अपने कुछ मित्रों के साथ पुराने कपड़ों, फूल-पत्ते, घास-फूस आदि से बॉल बनाकर तथा पोमेलोस नाम के फल को ही फुटबॉल बनाकर खेलते थे।
कहा जाता है कि वो दोनों पाँवों से खेलते थे और यहीं उन्होंने अपने जीवन की प्रसिद्धि का प्रथम सोपान चढ़ी की और आगे वो स्कूल टीम के कप्तान बने। जब उनकी क्लास छः इंपुर में पूरी हो गई तो हाई-स्कूल की पढ़ाई करने के लिए वे 1933 में वो जोरहाट गए। वहाँ अपने बहनोई के घर में रहते हुए उन्होंने पढ़ाई की तथा फुटबॉल और वॉलीबॉल में खिलाड़ियों के बीच बढ़-चढ़ कर भाग लिया। 1937 में उन्होंने इंटर हाई-स्कूल टूर्नामेंट में सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी की ट्रॉफी जीती।
उल्लेखनीय है कि उनके पिता चाहते थे कि वो डॉक्टर बनें और इसके लिए वो उनको प्रेरित किया करते थे। जब वह 17 वर्ष के थे, तभी उनके पिता का देहांत हो गया। पिता को दिए वचन को पूरा करने के लिए उन्होंने कॉटन कॉलेज गुवाहाटी में 1942 में प्रवेश लिया अपनी इंटरमीडिएट साइंस और कारमाइकल मेडिकल कॉलेज (अब RG Kar Medical) से एमबीबीएस पूरा किया। इस प्रकार चिकित्सिकीय अध्ययन क्षेत्र में कोलकाता से 1950 में यह सर्वोच्च उपाधि प्राप्त करने वाले प्रथम नागा बने।
वर्ष 1953 में डॉ. टीएओ ने डिब्रूगढ़ मेडिकल कॉलेज में रजिस्ट्रार के रूप में कार्यभार सँभाला और फिर सहायक सर्जन के पद पर उनका कोहिमा में स्थानांतरण हो गया। नागालैंड ने 1963 में एक राज्य का दर्जा प्राप्त किया तो डॉ. टीएओ स्वास्थ्य सेवा के पहले नागा निदेशक बने और 1978 में सेवानिवृत्ति तक इस पद पर रहे। सेवा में होते हुए भी उनका खेलों के प्रति उत्साह कम नहीं हुआ। उन्होंने स्थानीय फुटबॉल के अच्छी प्रतिभाओं को प्रोत्साहित किया और चिकित्सीय फुटबॉल टीम का आयोजन किया और स्थानीय प्रतिभाओं में बहुत ही रुचि ली।
बचपन से ही डॉ. टीएओ का खेल और एथलेटिक गतिविधियों के प्रति एक मजबूत झुकाव रहा। उन्होंने न केवल अपनी पढ़ाई, बल्कि फुटबॉल और अन्य खेलों में भी उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। 1937 में उनको इंटर हाई-स्कूल टूर्नामेंट में सर्वश्रेष्ठ स्पोर्ट्सपर्सन ट्रॉफी जोरहाट में मिली थी। 1942 तक कॉटन कॉलेज और गुवाहाटी के प्रतिष्ठित महाराणा क्लब के लिए खेले। 1943 में वे कलकत्ता के प्रसिद्ध मोहन बागान क्लब में शामिल हुए और 9 साल (1943-51) तक क्लब के लिए खेले। 2 साल तक इसकी कप्तानी की।
फुटबॉल के एक स्थापित सितारे के नाते डॉ. टीएओ को भारतीय और भारत इलेवन टीमों में यूरोपियन टीमों के खिलाफ खेलने के लिए चुना गया था। उन्होंने हॉन्गकॉन्ग, सिंगापुर, कुआलालंपुर, बैंकॉक और डक्का में प्रदर्शनी मैच खेलने के लिए सुदूर-पूर्व में भारतीय फुटबॉल टीम का नेतृत्व भी किया। उनके टीम में होते हुए बंगाल ने प्रांतीय संतोष ट्रॉफी को बॉम्बे में 1945 में जीता। 1946 और 1947 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के एथलेटिक्स में व्यक्तिगत चैम्पियनशिप जीती।
डॉ. टीएओ लंदन ओलंपिक में पहली स्वतंत्र भारतीय फुटबॉल टीम के 1948 में कप्तान बने। 29 जुलाई, 1948 को हुई उद्घाटन समारोह में वेम्ब्ली स्टेडियम, लंदन में टीएओ को भारतीय समूह के लिए ध्वज धारण का अवसर मिला। फुटबॉल के मैदान में बूट नहीं होने के कारण नंगे पैर ही खेलते थे। यहाँ तक कि 1948 ओलिंपिक में एक ब्रिटिश पत्रकार ने तालिमेरेन से पूछा था कि उनकी टीम नंगे पाँव क्यों खेलती है, तो बहुत ही सकारात्मकता और जोश के साथ उत्तर दिया– खेल का नाम फुटबॉल है, बूटबॉल नहीं।
बंगाल के फुटबॉल में डॉ. टीएओ ने पूर्णतः अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। उनका वर्चस्व इस तरह का था कि स्थानीय बंगाली कहने लगे कि मोहन बागान भारत का गौरव है और मोहन बागान का गौरव टीएओ है। उनके सरल एवं विनयशीलता के कारण सभी बहुत प्रेम करते थे और प्रेम से उनको “एओ-दा” कहते थे।
वह केवल कलकत्ता में फुटबॉल के खिलाडी के रूप में ही सीमित नहीं रहे। अपितु उन्होंने कई प्रकार की खेल प्रतियोगिताओं में भाग लिया। वे 100 मीटर, 200 मीटर, हाई जंप, ब्रॉड जंप, हॉप-स्टेप-एंड-जंप, जैवलिन, चर्चा, शॉट-पुट और 110 मीटर बाधा दौड़ में हमेशा आगे रहते थे। 1946 और 1947 में हुई तेहरवीं और चौदवी प्रांतीय एथलेटिक चैम्पियनशिप लगातार दो साल व्यक्तिगत चैम्पियनशिप जीती।
मात्र नगालैंड में नहीं अपितु समस्त भारत देश में खेल जगत के क्षेत्र में उनका एक विशिष्ट स्थान है। शून्य सुविधाएँ के रहते हुए डॉ. टीएओ ने संघर्ष करते हुए एक ऐसा उज्जवल मार्ग प्रशस्त किया जिसका आने वाली पीढ़ियाँ अनुसरण कर सके। आज उनके इस महनीय, आदर्शमय प्रेरणादायक व्यक्तित्व के सम्मान में उनको देश नमन करता है। उनकी प्रतिभा और सफलता के कारण उनको 1968-1969 में अखिल भारतीय ओलंपिक फुटबॉल चयन समिति के सदस्य के रूप में तथा 1972 में अखिल भारतीय खेल परिषद का सदस्य चुना गया था।
1977 में उनको असम सरकार द्वारा एक राइनो (असम का राज्य पशु) की एक छोटी, सुंदर और प्यारी मूर्ति प्रस्तुत करके उनका सम्मान किया गया। 1998 में 80 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। वर्ष 2001 में मोहन बागान एथलेटिक क्लब ने डॉ. टीएओ को मोहारी राम पुरस्कार से सम्मानित किया।
असम ने उनको कालाबोर में एक आउटडोर-स्टेडियम का नाम देकर सम्मानित किया, जो कि जाबलबन्धा के पास है। उनके पुराने कॉलेज, कॉटन कॉलेज, ने उनके नाम पर अपने परिसर में एक इनडोर-स्टेडियम का नाम रखा। एक स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स को उनके नाम से नामित करके मेघालय ने उन्हें सम्मानित किया। उनको सम्मान देते हुए उनके नाम पर उनकी जन्म शताब्दी 28 जनवरी 2018 को एक डाक टिकट का विमोचन किया गया।