“आपने हमारा पूरा गाँव देखा कि नहीं? स्वर्ग से कम नहीं है हमारा गाँव।” बड़ी सहजता से सरला देवी ने कहा था। हम हिमाचल प्रदेश की खूबसूरत सांगला घाटी में थे। अप्रतिम सुंदरता का धनी सरला देवी का गाँव रक्षम बास्पा नदी के दोनों ओर बसा हुआ है।
समुद्र तल से कोई साढ़े दस हजार फ़ीट की ऊँचाई पर हिमालय की गोदी में बसा ये गाँव किन्नौर और लाहौल स्पीति की हमारी यात्रा का दूसरा पड़ाव था। इसकी ऊँचाई का अंदाज़ा लगाने के लिए आपको बता दें कि शिमला कोई साढ़े सात हज़ार, नैनीताल कोई छह हजार आठ सौ फ़ीट और मनाली कोई छह हजार सात सौ फ़ीट की ऊँचाई पर है।
हम चंडीगढ़ से शिमला होते हुए पहली रात रामपुर बुशहर में रुके थे। सतलुज नदी पर बसा ये शहर भी कोई कम सुन्दर नहीं। उसके बाद दुनिया के सबसे कठिन रास्तों में से एक कहलाने वाले करचम-सांगला रास्ते पर गाड़ी चलाते हुए शाम को हम रक्षम पहुँचे थे।
हुआ यों कि पिछली गर्मियों में हमने एकसाथ यात्रा करने का फैसला किया था। हम यानी मैं और सीमा तथा कॉलेज के दोस्त कर्नल बलदेव सिंह सैनी और पम्मी भाभी ने। पहाड़ों पर सुबह जल्दी ही हो जाती है, सो मैं और मिंटी बिना चाय पिए होटल के पीछे बह रही बास्पा नदी के किनारे टहल रहे थे कि दूसरी ओर से हाथ में जानवरों के लिए चारा ले जाते हुए किन्नौरी टोपी पहने हुए एक महिला आती दिखाई दी।
हरे लाल रंग की किन्नौरी टोपी, एक हाथ में वहीं से इकट्ठा किया गया पशुओं का चारा और दूसरे हाथ में एक लकड़ी। एक तरफ बहती बास्पा नदी, दूसरी तरफ हरी भरी चोटियाँ और उनके शिखरों पर बर्फ के बीच सरला देवी बिल्कुल उस दृश्य का जीवंत हिस्सा लग रहीं थीं। बड़ी सहजता से उन्होंने हमारा अभिवादन स्वीकार किया और फिर यों ही बातचीत शुरू हो गई।
मालूम हुआ कि वे गाँव में आशा वर्कर के तौर पर भी काम करतीं हैं। जब कोरोना का माहौल है तो बात उसी पर होनी थी। सबसे पहले तो बड़ी मासूमियत से उन्होंने हमसे ही पूछ लिया, “आप दिल्ली शहर से आए हो, कहीं कोरोना लेकर तो नहीं आए?”
हमने उन्हें आश्वस्त कराया कि हम पूरे इंजेक्शन लगवा चुके हैं और नेगेटिव आरटी पीसीआर रिपोर्ट भी हमारे पास है, तो उन्हें तसल्ली हुई। कहने लगीं कि ये तो बड़े लोगों और शहरों की बीमारी है। वे ही यहाँ आकर इसे दे जाते हैं। सरला देवी ने हमें बताया कि उनके गाँव में भी वे टीके लगवा रहीं हैं। इतनी ऊँचाई पर बसे गाँव में कोरोना के प्रति इतनी जागरूकता होगी, हमने सोचा न था।
स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकार ने अपने काम मुस्तैदी से ही किया होगा तभी तो खाली रक्षम में ही नहीं बल्कि सांगला घाटी के अन्य गाँवों जैसे सांगला, चितकुल तथा अन्य स्थानों पर भी जहाँ भी हमने आम लोगों से बातचीत की, वे लोग कोरोना को लेकर खूब जागरूक थे। सांगला के बस अड्डे पर रिकांगपिओ से आई धरम दासी नामकी महिला ने भी वहाँ हो रहे टीकाकरण की तस्दीक की।
सिर्फ किन्नौर ही नहीं बल्कि उससे आगे लाहौल जिले के भी जिन गाँवों में हम गए, हमने ऐसा ही पाया। फिर वह स्पीति घाटी का 15500 फ़ीट पर बसा कोमिक गाँव हो, 14000 फ़ीट की ऊँचाई पर बसा किब्बर हो, 14735 फ़ीट पर हिक्किम, 12460 फ़ीट पर काजा, 10000 फ़ीट पर बसा ताबो गाँव हो या 7400 फ़ीट पर बसा पू गाँव हो।
ये सभी जगहें अपनी अपनी विशिष्टताओं के लिए जानी जातीं हैं। हिक्किम में दुनिया का सबसे ऊँची जगह पर चल रहा पोस्ट ऑफिस है; कोमिक दुनिया का सबसे ऊँचाई पर बसा गाँव है, जहाँ मोटर वाहन जा सकते हैं; ताबो अपने प्राचीन बौद्ध मठों के लिए विख्यात है; काजा में दुनिया का सबसे ऊँचाई पर चल रहा पेट्रोल पम्प है; पू गाँव अपनी खुमानियों और सेब के लिए मशहूर है।
सांगला घाटी को छोड़ दिया जाए तो बाकी ये सब स्थान ठंडे रेगिस्तानी इलाके हैं, जहाँ पहुँचना और 2-4 दिन रहना हमारे जैसे सैलानियों के लिए तो रोमांचकारी और आल्हादित करने वाला हो सकता है; पर वहाँ बसना और रोज़ रहना कोई आसान बात नहीं। इतनी दुर्गम जगहों पर बसे इन सभी गावों में कोरोना के टीके लगाना कोई मामूली बात नहीं हैं। टीके पहुँचाना, लोगों को जानकारी देना और लोगों को इकट्ठा करके फिर उन्हें टीके लगाना। इन स्थानों के लिए बड़ी बात है। लेकिन लगभग इन सभी स्थानों पर सरकार ने सभी वांछित वयस्क नागरिकों को समय से कोरोना के टीके लगाकर सराहनीय कार्य किया है।
पूर्ण टीकाकरण करना, सबको राशन मुहैया कराना और आपदा के समय लोगों को मदद पहुँचाना… ये सारे काम सरकार ने अच्छी तरह किया है। इसकी बानगी हमें हर जगह मिली। गए साल इन इलाकों में पहाड़ गिरने, भू स्खलन से सड़कें टूटने और जनजीवन अस्त-व्यस्त होने के समाचार भी मिले थे। रक्षम और बटसेरी के पास पहाड़ ढहने से चितकूल तक का रास्ता बाधित हो गया था। इस दौरान भी स्थानीय प्रशासन और लोगों ने अपने मेहमानों का खूब ख्याल रखा था।
सरला देवी जैसी आशा वर्कर और उनकी तरह के अन्य स्थानीय कर्मियों की भूमिका सिर्फ सराहनीय नहीं बल्कि स्तुति के योग्य है। जब हम दुनिया के अन्य अत्यंत विकसित देशों में कोरोना के टीकों को लेकर संकोच यानी वैक्सीन हेसिटेंसी देखते हैं तो ये बात बिलकुल स्पष्ट होती है कि हमारा ग्रामीण समाज इन देशों के कथित प्रगतिशील और आधुनिक लोगों से कितना आगे है। अमेरिका की बाइबल बेल्ट के राज्यों से लेकर रूस के बड़े इलाके में और यूरोप के कई देशों में टीकाकरण का गंभीर विरोध चल रहा है। इसका परिणाम वहां कोरोना मामलों की बढ़ती संख्या में दिखाई भी दे रहा है।
आपको बता दें कि सरला देवी और उन जैसे आशा वर्करों को इस सारे काम के लिए जो मेहनताना मिलता है, वह 2500 से 3000 रुपए महीने ही बैठता है। वे सिर्फ टीके ही नहीं लगवातीं बल्कि प्रशासन के प्रेरित अन्य कामों को भी करतीं हैं।
रक्षम गाँव देश सबसे साफ़ गावों में से एक है। इसके लिए इस गाँव को कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं। वैसे महीने के इतने कम पैसे में जनजागरण और स्वास्थ्य का इतना बड़ा काम करना हैरान कर देता है। लेकिन उनके स्वाभिमान और आत्मविश्वास ने हमें हैरान सा कर दिया।
सरला देवी से बातों ही बातों में हमने फ्री राशन की भी चर्चा की। हमने पूछा कि आपको फ्री राशन मिलता है क्या? बड़े गौरव के साथ उन्होंने हमसे कहा, “साहब पहाड़ों में हमारे घरों में कम से कम दो साल का राशन तो हम लोग इकट्ठा करके रखते ही हैं। फ्री राशन आता तो है, पर ज़्यादातर लोग लेते नहीं। किसी-किसी को ही ज़रूरत पड़ती है।” जिस देश में लोग फ्री का कुछ भी लेने को टूट पड़ते है, वहाँ दुर्गम हिमाचल में एक सामान्य ग्रामीण महिला का ये स्वाभिमान से भरा उत्तर हमें आकंठ हर्षित कर गया।
जहाँ ऐसा स्वाभिमानी और स्वाबलंबी समाज हो, वहाँ प्रसन्नता तो रहती ही है। ये आनन्द हमें अपनी यात्रा के दोनों हफ़्तों में खूब देखने को मिला। सरलता, सहजता और ईमानदारी हिमाचल के लोगों की खासियत है। इसके कई उदाहरण हमें मिले। एक का ज़िक्र करना काफी होगा। काज़ा के रास्ते ताबो में हमारी गाड़ी का टायर पंक्चर हो गया। देखा तो स्टेपनी से भी हवा निकल चुकी थी। किसी तरह पंक्चर ठीक करवाया और दोनों पहियों में हवा भरवाई। सोचा कि स्टेपनी में नया ट्यूब डलबा लिया जाए। वह काजा में ही हो सकता था। उसकी भी बस एक ही दुकान थी। हमने सीधे उससे ट्यूब बदलने या नया टायर लगाने को कहा। हमें डर था कि चंद्रताल आते-जाते कुंजुम दर्रे जैसी दुर्गम जगहों को पार करते हुए अटक गए तो क्या होगा।
वर्कशॉप में जब पहुँचे तो स्टेपनी निकाल कर उसने जाँच की और कहा कि रेगिस्तानी इलाके में ट्यूबलेस टायर में कभी रिम के किनारों से रेत घुस जाती है। उसने उसे ठीक किया और कहा कि काम हो गया। हमने फिर भी आग्रह किया कि हम जोखिम नहीं लेना चाहते इसलिए वह कम से कम नया ट्यूब तो डाल ही दे। पर दुकानदार ने कहा कि इसकी ज़रूरत नहीं है। सारे काम के बमुश्किल 50 रुपए उसने हमसे लिए। सोचिए, नया टायर देने या ट्यूब डालने में उसे फायदा ही होता और हम तो आग्रह कर ही रहे थे। देश के किसी और हिस्से का दुकानदार होता तो वह अपना फायदा सोचता। एक छोटे से वर्कशॉप पर ये ईमानदारी हमें अंदर तक छू गई।
खैर लौटते हैं, रक्षम गाँव की सरला देवी पर। उनसे बात खत्म हुई तो जाते-जाते उन्होंने हमसे कहा, “साहब इस पुल से ही लौट मत जाइएगा, पार करके पीछे की तरफ कोई आधा किलोमीटर दूर चलने पर आपको कई जलधाराएँ मिलेंगी। उनको ज़रूर देखिएगा। आपको मालूम पड़ जाएगा कि ‘हमारा रक्षम स्वर्ग जैसा’ क्यों दिखता है।”
हम वहाँ गए तो वाकई दृश्य मनोहारी ही था। कल-कल छल-छल बहती नदी, उसमें मिलती जलधाराओं के बीच छोटे-छोटे घास के मैदानों में खिलते फूल, चारों तरफ घने वृक्षों के पहाड़ और तनिक सर ऊँचा उठाकर देखो तो मानों हरी साड़ी के पल्लुओं पर सफ़ेद बर्फ की चित्रकारी। जितना खूबसूरत है हिमाचल उससे भी कहीं अधिक स्वाभिमानी और सहज मिले वहाँ के लोग।
मौका लगे तो एक बार किन्नौर की सांगला घाटी और लाहौल के उन स्थानों पर ज़रूर जाइएगा जिनकी चर्चा हमने ऊपर की है। यकीन मानिए आप को अपनी कल्पना से भी कहीं अधिक सुन्दर नज़ारे मिलेंगे।