वास्कोडिगामा की वो गन जो विपक्ष ने अपना नाम लेकर फायर किया (भाग 3)

प्रतीकात्मक चित्र

विकास का नैरेटिव, विकास जो लोगों को दिखता है

एक लोकतंत्र जब आगे बढ़ रहा होता है, जब उसके लोगों तक सूचनाओं को पाने का तरीक़ा बदलता है, तो लोग जागरूक होने लगते हैं। जब आपके पास सिर्फ़ टीवी या अख़बार का ही विकल्प हो तो आप उसी झूठ को सच मानते रहेंगे क्योंकि आपके पास कोई तरीक़ा है ही नहीं सच जानने का। स्मार्टफ़ोन और इंटरनेट के सस्ते होने का सबसे बड़ा फायदा जनता को यह हुआ कि वो हर सूचना पा सकती थी। उसके हाथों में एक ऐसा ग़ज़ब का यंत्र था जो सही मायनों में सूचना का लोकतांत्रीकरण कर रहा था। वो घर बैठे, विडियो, ऑडियो या पाठ्य के ज़रिए जान सकती थी कि कौन सच कह रहा है, कौन झूठ।

यहाँ पर भाजपा और मोदी ने न सिर्फ़ काम किया बल्कि लोगों को जागरूक भी करते रहे कि किस योजना का लाभ कैसे लिया जाए। हर व्यक्ति पर सरकार लगभग 1,08,000 रुपए प्रति वर्ष ख़र्च कर रही है। और, ऐसा पहली बार हो रहा है कि बिना किसी दलाली आदि के सब्सिडी के पैसे लोगों के खाते में पहुँच रहे हैं। ये मामूली बात नहीं है। योजनाओं की जानकारी पहले मुखिया तक आकर बंद हो जाती थी। अगर आपको जानना है तो जिला मुख्यालय जाइए तो वहाँ बड़े-बड़े पीले बोर्ड पर काले अक्षरों में योजनाओं के नाम हुआ करते थे। किसको मिलेगा, कैसे मिलेगा ये तो बाद की बात है, आपके लिए योजना है, आपको वही पता नहीं चलने दिया जाता था।

वो बात जो पूरी तरह से बकवास है: योजना का नाम बदल दिया

योजनाओं के बारे में पहले खूब माहौल बना कि भाजपा ने तो बस नाम बदल दिया है, ये योजनाएँ तो कॉन्ग्रेस के समय से ही थीं। माहौल बनाना हो तो आप राहुल गाँधी को डिफ़ेंड करते हुए कहलवा सकते हैं कि विपक्ष को मीडिया में जगह नहीं मिली जबकि आधी से ज़्यादा मीडिया स्वयं ही विपक्ष बनी बैठी थी। योजनाएँ बना देने, और किसी महिला को जीवन में शौचालय का उपहार पहुँचा देने में बहुत अंतर है।

वित्तीय समावेषण के नाम से योजना बना देने, और ग़रीबों को बैंकिंग सिस्टम से जोड़ कर, उनके खाते में मनरेगा से लेकर सिलिंडर की सब्सिडी तक का पैसा पहुँचा देने में बहुत अतंर है। योजना बना देने और राजीव गाँधी का नाम लगा देने तथा घरों में बिजली पहुँचाने से लेकर एलईडी लाइट तक लगा देने में बहुत अंतर है। इंदिरा आवास लिख देने और करोड़ों के घर पर पक्की छत ढाल देने में बहुत अंतर है।

योजना ही नहीं, देश भी पहले से ही था, तो क्या काम ही न किया जाए? क्या योजना बना देने से ही काम हो जाता है? या फिर पुरानी योजना पर नए तरीके से काम करना और समाज को लाभ पहुँचाना कोई अपराध है? योजना का नाम ही नहीं, उसके क्रियान्वयन को भी मोदी सरकार ने पूरी तरह से बदला। यही कारण है कि सड़कों के बनने की रफ़्तार से लेकर रेल की पटरियों तक, इस सरकार का काम हर शहर में दिखता है। आप आँख मूँद कर गड्ढे में कूद जाएँ और कहें कि मोदी ने धक्का दे दिया, तो ये आपकी समस्या है।

वास्कोडिगामा की उस गन से इन्होंने अपना ही नाम लेकर फायर कर दिया

मीडिया और विपक्ष की सारी पार्टियों को यह लगा कि उनका ये कैम्पेन रंग लाएगा। इन्हें लगा कि भारत की आम जनता मूर्ख है और उनके द्वारा दिया जा रहा धीमा ज़हर अपना असर लोकसभा चुनावों में दिखाएगा जब इनके नेता रैलियों में लगातार रेंकेंगे। नेता रेंकते रहे, और अंत में माहौल ऐसा है कि ये सही मायनों में गधे साबित हो रहे हैं। इन्होंने अपनी ही विश्वसनीयता पर प्रहार कर लिया है। इनका प्रपंच लोगों द्वारा नकारा जा चुका है, और लोगों ने इन्हें एक सीख दे दी है कि मीडिया का काम राहुल गाँधी की भव्य छवि का निर्माण करना नहीं है, बल्कि सच को सच, और झूठ को झूठ कहना है। जबकि, मीडिया ने विपक्ष के झूठ को सच और सत्ता के सच को झूठ की तरह दिखाने की कोशिश की।

इसके बाद इन्होंने एक दो मुद्दे ऐसे पकड़े जो कि भारतीय लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। नेताओं ने ईवीएम को लेकर बयान दिए। शुरू में तो कुछ समय यह चला, लेकिन अपनी हार में मशीन को दोष और जीत में राहुल गाँधी की लीडरशिप का कमाल बताना, सबको समझ में आने लगा। लोगों को लिए यह समझना कठिन नहीं था कि अगर भाजपा ईवीएम हैक कर ही सकती है तो हर जगह दो तिहाई बहुमत क्यों नहीं ला रही? अगर ईवीएम हैक हो ही सकता है तो राज्यों के चुनाव में ममता जैसे लोग कैसे जीत जाते हैं?

इस लेख के बाकी तीन हिस्से यहाँ पढ़ें:
भाग 1: विपक्ष और मीडिया का अंतिम तीर, जो कैक्टस बन कर उन्हीं को चुभने वाला है
भाग 2: ज़मीर बेच कर कॉफ़ी पीने वाली मीडिया और लिबटार्डों का सामूहिक प्रलाप
भाग 4: लिबरलों का घमंड, ‘मैं ही सही हूँ, जनता मूर्ख है’ पर जनता का कैक्टस से हमला

अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी