महान फुटबॉलर लक्षेंद्र मिश्रा और भारत के पहले फुटबॉल विश्व कप जीतने की कहानी

महान फुटबॉलर लक्षेंद्र मिश्रा के नाम पर बीड़ी भी बेच लेते हैं व्यापारी!

साल 1987 की बात है। घनी अंधेरी रात थी। बारिश भी घनघोर हो रही थी। जोगेंद्र मिश्रा की धर्मपत्नी शैली को तभी प्रसव पीड़ा का अनुभव हुआ। कैसे ले जाएँ, कहाँ ले जाएँ, कौन डॉक्टर रात में आएगा… इसी सोच में जोगेंद्र बाबू डरे जा रहे थे लेकिन इतिहास कमजोरों का नहीं, योद्धाओं का लिखा जाता है। शैली ने बिना किसी डॉक्टर, बिना किसी दाई की मदद के उस रात एक योद्धा जना। योद्धा ऐसा जिसने अपने बाप को गोद लेते वक्त ही किक मार कर अपने इरादे जता दिए थे!

लक्षेंद्र मिश्रा – संस्कृत के महाविद्वान जोगेंद्र बाबू ने अपने किकधारी बेटे का यही नाम रखा था। नाम के अनुरूप यह बालक हर लक्ष्य को भेद देता था। दिक्कत एक ही थी। पढ़ाई-लिखाई वाले मामले में इसे किताब-कॉपी दिखती ही नहीं थी। स्कूल के मैदान में लेकिन जब भी उतरता लक्षेंद्र, किक मार-मार कर छक्के छुड़ा देता था।

छोटे से कद-काठी का लक्षेंद्र मिश्रा अपने से बड़ी उम्र के लड़कों को मैदान पर ऐसे छकाता जैसे वो उनका मजाक उड़ा रहा हो। बड़े लड़के इसका बदला कभी पैर फँसा कर उसे गिरा कर लेते तो कभी केहुनी से मार कर। लक्षेंद्र योद्धा था, उसने कभी शिकायत नहीं की। मार खाकर भी खेलता और हरा कर मुस्कुरा भर देता।

बदला लेने के लिए बड़े लड़कों ने एक ग्रुप बना लिया। इनका सरगना था दिलीप मंडल। मंडल दिमाग से तेज था। उसने एक षड्यंत्र रचा – लक्षेंद्र और उसके पूरे परिवार के अस्तित्व पर सवाल खड़ा करने का। कहानी गढ़ी कि जोगेंद्र मिश्रा भारतीय ही नहीं हैं। इनके पुरखे यूरेशिया से असम आए थे। षड्यंत्र के तहत इस कहानी को फैलाया गया, प्रचारित-प्रसारित किया गया। बालक लक्षेंद्र का अटैक दिलीप मंडल के डिफेंस को इस बार ध्वस्त नहीं कर पाया। इस खेल में वो हार गया।

असम में बसा-बसाया आशियाना छोड़ पुत्र-मोह में जोगेंद्र मिश्रा अपनी धर्मपत्नी शैली के साथ पड़ोसी राज्य बंगाल की ओर चले। सुना था वहाँ के फुटबॉल दीवानों की बातें। सोचा होगा कि बेटे की प्रतिभा को पंख लगेंगे। ऐसा हो न सका। वो इसलिए क्योंकि दिलीप मंडल के पुरखे बंगाल में वामपंथ की पढ़ाई करने गए थे और अब वहीं से पूरी दुनिया में लाल सलाम को एक्सपोर्ट करते थे। मंडल और बंगाल ने लक्षेंद्र मिश्रा को उसके ही देश में विदेशी बना डाला।

लक्षेंद्र मिश्रा योद्धा था। हार उस पर हावी हो, यह उसने सीखा ही नहीं था। अंडल-मंडल के सारे षड्यंत्रों को किक मार वो चल दिया पूरे परिवार सहित अर्जेंटीना। नई पहचान के लिए जोगेंद्र बन गए जॉर्ज (Jorge Messi) और सिलिया (Celia Cuccittini) नाम रख लिया माता शैली ने।

फुटबॉल विश्व कप का 22वाँ संस्करण अर्जेंटीना ने जीता। कप्तानी लियोनेल मेसी (Lionel Messi) की। दुनिया भर की मीडिया मेसी के गुनगान कर रही है। उसके खेल की तारीफ की जा रही है। वो कितने पैसे कमाता है, इस पर लेख लिखे जा रहे… लेकिन कोई यह नहीं बता रहा कि लक्षेंद्र मिश्रा किन कठिनाइयों में लियोनेल मेसी बना, भारत और असम से कितना घना रिश्ता है उसका… मीडिया वाले ये भी छिपा ले रहे कि अगर दिलीप मंडल और वामपंथियों की नहीं चलती तो फुटबॉल विश्व कप आज भारत में होता!

लक्षेंद्र मिश्रा का एक कनेक्शन दक्षिण भारत से भी है, वो कहानी फिर कभी। फिलहाल ऊपर के चित्र से कहानी का मूल समझ सकते हैं।

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