महाभारत में ‘बलात्कार’ की क्या सजा थी? इसे स्त्री की ‘इज्जत लुटने’ जैसी बेहूदी बात से किसने जोड़ा?

लाक्षागृह में पांडवों को जलाकर मारने का षड्यंत्र भी तो द्रौपदी के विवाह से पहले ही किया गया था (प्रतीकात्मक चित्र, साभार: टीवी सीरियल)

महाभारत की द्रौपदी आम तौर पर असहाय सी “मान ली” जाती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग अपने समय और परिवेश के हिसाब से पूर्वग्रहों से ग्रस्त होकर ही व्याख्या करने बैठते हैं। हाल ही में एक बार जब विख्यात लेखक नरेन्द्र कोहली से श्री राम के विषय में कोई प्रश्न पूछा जाने लगा तो उन्होंने बीच में ही टोककर कहा, ठहरो पहले ये बताओ कि किसके राम? वाल्मीकि के राम अलग है और तुलसी के राम अलग। द्रौपदी को असहाय मानने के पीछे एक बड़ी वजह “गुनाहों के देवता” को कहा जा सकता है। अपने एक नाटक में इस उपन्यास के लेखक ने द्रौपदी के पात्र से “अंधे का पुत्र अँधा” कहलवाया। उनका ये “अँधा युग” नाटक 1954 में भारत के विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया था।

प्रयागराज (तब इलाहबाद) रेडियो स्टेशन से इसके प्रसारण के बाद इसे वाम मजहब के लोगों ने “युद्ध विरोधी” क्रन्तिकारी नाटक बताया और 1962 से तो सत्यदेव दूबे और इब्राहीम अल्काजी जैसे रंगमंच से जुड़े लोगों ने इसका मंचन भी शुरू कर दिया था। सन 1963 में खुद नेहरू इसका मंचन देखने पहुँचे। इस नाटक के मंचन के लिए फिरोजशाह कोटला और पुराना किला जैसी जगहें चुनी जाती थी। इतिहास से जोड़ देने के चलते इसने खूब धूम मचाई। इस नाटक से “अँधे का पुत्र अँधा” कहकर द्रौपदी द्वारा दुर्योधन को नीचा दिखाए जाने को महाभारत के युद्ध की वजह बताया गया।

जाहिर है जैसे अंगूठा चूसने वाले बच्चों ने इससे व्याख्या करने की कोशिश की थी उनसे इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। कुछ ऐसे भी थे जो धूर्त बुद्धि-पिशाच थे और उन्हें इसके जरिये समाज में स्त्रियों को कलह के कारण के तौर पर स्थापित करने में सुविधा हो रही थी। खुद इस नाटक के लेखक भी अपनी पहली पत्नी को पीटने के लिए जाने जाते थे, इसलिए उनकी निजी कुंठा भी ऐसे विचार का कारण रही होगी। सवाल ये है कि अगर द्रौपदी का ऐसा कहना युद्ध का कारण होता तो भला इससे काफी पहले बचपन में ही भीम को विष देकर नदी में फेंक देने जैसा कृत्य दुर्योधन ने क्यों किया होता? फिर ये भी कि लाक्षागृह में पांडवों को जलाकर मारने का षड्यंत्र भी तो द्रौपदी के विवाह से पहले ही किया गया था!

तो ये माना जा सकता है कि महाभारत की द्रौपदी वैसी नहीं थी जैसा उसे पूर्वग्रहों से ग्रस्त कुछ लोग दर्शाना चाहते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वो फैसले लेती नजर आती है? जवाब है हाँ। जैसे आज के भारत में राष्ट्रपति के पास मृत्युदंड को क्षमा करने के अधिकार होते हैं, लगभग वैसे ही द्रौपदी भी मृत्युदंड माफ़ करती नजर आती है। जब पांडव वनवास में थे तो वो ऋषि तृणबिंदु के आश्रम के क्षेत्र में रहते थे। एक दिन जब पांडव समिधा और द्रुवा इकट्ठी करने वन में रवाना हुए तो ऋषि के आश्रम से धात्रेयिका द्रौपदी के पास जा बैठी। थोड़ी देर में उधर से जयद्रथ गुजरा। इतनी सुन्दर स्त्री को आश्रम में देख के उसकी नियत डोली। पहले तो उसने मंत्री से पता करवाया कि स्त्री है कौन, फिर उस से मिलने पहुँचा।

जयद्रथ दुस्शला का पति था यानि कौरव पांडवों की इकलौती बहन का पति। बहनोई का यथासंभव सत्कार हुआ। लेकिन जब द्रौपदी को जयद्रथ के इरादों का पता चला तो वो भड़कीं। अब जो जयद्रथ था वो आज कल के लुच्चों से ज्यादा अलग नहीं सोचता था। जब पाँच पति हैं, तो मुझमें क्या कमी? वो द्रौपदी को उठा ले चला! धात्रेयिका भागी और जंगल में जा रहे पांडवों को सूचित कर दिया। नतीजा क्या हुआ होगा वो अंदाजा लगाना तो मुश्किल नहीं है। भीम और अर्जुन थोड़ी ही देर में जयद्रध के मंत्री-अंगरक्षकों को मार गिराते हैं। वो द्रौपदी को छुड़ाते हैं और जयद्रथ को बाँध कर, घसीटते हुए आश्रम ले आए।

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अब द्रौपदी को बलात्कार के प्रयास करने वाले का दंड चुनना था। उस समय की स्थापित नीति के हिसाब से इस अपराध का दंड सीधा मृत्युदंड होता लेकिन द्रौपदी ने कहा इकलौता बहनोई है! मारोगे कैसे? इसका सर मूंड कर छोड़ दो, बेइज्जती मौत के बराबर ही है। कुल जमा पाँच पांडवों ने जयद्रथ की अच्छी खासी सेना ख़त्म करके उसका सर मूंड दिया था। इसी बेइज्जती का बदला लेने के लिए जयद्रथ ने पांडवों को युद्ध में एक दिन रोक लेने का वरदान लिया था। ये वो वरदान था जिस से महाभारत के युद्ध में जयद्रथ ने पांडवों को चक्रव्यूह के बाहर रोका और अभिमन्यु मारा गया था। इस पीढ़ी में आपके दरियादिल होने का नतीजा अगली पीढ़ी में आपके बच्चे झेलेंगे। ऐसा हमेशा होता है, ये भी बिलकुल सीधा हिसाब है।

इसके विपरीत द्रौपदी किसी का मृत्युदंड जारी करती भी आसानी से नजर आ जाती है। ये महाभारत के विराटपर्व में तब दिखता है जब पांडव अज्ञातवास में थे। वहाँ राजा विराट के साले कीचक की नजर द्रौपदी पर होती है और उसके मना करने पर भी जब कीचक नहीं मानता तो द्रौपदी वल्लभ नाम रखकर रसोइया बने हुए भीम के पास जाती है। मल्लयुद्ध में कीचक को हराना उस दौर में नामुमकिन था। भीम के द्वारा कीचक का वध ही वो कारण था, जिसकी वजह से कौरवों को पांडवों के मत्स्य देश में होने का अंदाजा होता है और वो हमला करने वहां पहुँच जाते हैं। यानी जितनी बार भी महाभारत में देखिए, बलात्कार या इसकी कोशिश का नतीजा मृत्युदंड ही दिखेगा।

सिर्फ शब्द पर आएँ तो बलात्कार शब्द में एक और चीज़ भी नजर आती है। ये बलात्कार जहाँ अपराध को स्त्री की अस्मिता से नहीं जोड़ता, वहीँ आज के दौर का “इज्जत लूटना” इसे सीधे अस्मिता, या सम्मान से जोड़ता है। उर्दू जबान में भी इसके लिए “अस्मत-दारी” लफ्ज़ इस्तेमाल होता है। अरबी या फारसी में संभवतः इसे कोई अपराध नहीं माना जाता होगा, इसलिए इसके लिए सिर्फ “जिना” जो अनैतिक यौन संबंधों के लिए प्रयुक्त होता है, सिर्फ वही शब्द याद आता है। समय के साथ आये बदलावों में से एक है भाषा के बदलने से पीड़ित को ही बलात्कार जैसे अपराध में शर्मिंदगी महसूस करवाया जाना।

बाकी रहा सवाल बलात्कार में मृत्युदंड का तो वो उचित तो लगता है, लेकिन फांसी या बिजली के झटके जैसे आसान तरीके नहीं होने चाहिए। बलात्कारी को अंग-भंग के जरिये नपुंसक बनाया जाना चाहिए, उसे कुछ साल जेल में डाला जाए और बुढ़ापे में छोड़ा जाए, ताकि घिसटकर बुढ़ापे, गरीबी, भूख, बीमारी की वजह से मरे। मुकदमा चलाए बिना गोली मारना तो आसान मौत है, इससे तो सिर्फ न्यायिक व्यवस्था में अविश्वास का पता चला!

Anand Kumar: Tread cautiously, here sentiments may get hurt!