जब नेहरू-इंदिरा खुद ले रहे थे भारत-रत्न… तब उनके शोध से बची थी लाखों जिंदगियाँ, जो मर गए गुमनामी में

वैज्ञानिक शम्भूनाथ डे के योगदान को नहीं मिला उचित सम्मान

भारत में एक से बढ़ कर एक प्रतिभाओं का जन्म हुआ है और उन्होंने अपने बलबूते बड़े से बड़ा मुकाम भी हासिल किया है लेकिन उनमें से अधिकतर को शासन-सत्ता का सहयोग तो दूर की बात, उनसे उचित सम्मान तक नहीं मिला। वर्ष 1884 में रॉबर्ट कॉख ने हैजा के जीवाणु की खोज की थी। इसके लगभग 75 वर्षों बाद बंगाल के शंभूनाथ डे ने पता लगाया कि हैजा के जीवाणु द्वारा पैदा किए गए ज़हर से शरीर में पानी की कमी हो जाती है और खून गाढ़ा हो जाता है।

कलकत्ता मेडिकल कॉलेज के पैथॉलजी विभाग के पूर्व निदेशक और शोधकर्ता शम्भूनाथ डे ने कई मुसीबतों और परेशानियों का सामना करने के बाद अपनी लगन, अध्ययन और शोध से हैजा के जीवाणु द्वारा पैदा किए जाने वाले खतरनाक व जानलेवा टॉक्सिन के बारे में कोलकाता के बोस शोध संस्थान में पता लगाया था। उनके पास साधनों की कमी थी क्योंकि विदेशों में इन्हीं विषयों पर पूरी सुविधा व साधन के साथ विशेषज्ञों की टीम रिसर्च में लगी हुई थी।

उनके ही गहन शोध से निकले परिणामों का प्रभाव था कि हैजा के कई मरीजों के शरीर में पानी की पर्याप्त व्यवस्था कर के उनकी जान बचाई गई। हैजा पहले महामारी का रूप ले लेता था और गाँव के गाँव इसकी चपेट में आने के बाद ख़त्म हो जाते थे। आज हैजा की दवा उपलब्ध है, इससे बचाव के लिए तमाम साधन हैं लेकिन हमें पता होना चाहिए कि बंगाल के शम्भूनाथ डे की खोज के कारण ही ये सब संभव हो पाया।

1985 में शम्भूनाथ डे की मृत्यु हो गई लेकिन आज भी शायद ही कोई उनका नाम भी जानता हो। भारत का एक महान वैज्ञानिक गुमनामी के अँधेरे में कहीं खो गया, करोड़ों लोगों की जान बचाने की जुगत कर के भी उसे उचित सम्मान नहीं मिल पाया। उनके परिवार की ये इच्छा भी अधूरी रह गई कि कलकत्ता यूनिवर्सिटी में उनकी याद में कम से कम सालाना लेक्चर आयोजित की जाए। हालाँकि, दिल्ली में उनकी जन्म शताब्दी के मौके पर ज़रूर कुछ भाषण-आयोजन वगैरह हुए थे। नवम्बर 2015 में ‘नवभारत टाइम्स’ से उनके बेटे ने कहा था:

“उनके योगदान को अंतरराष्ट्रीय विज्ञान समुदाय ने उनकी खोज करने के कई वर्षों बाद महत्व देना शुरू किया। 60 के दशक के अंतिम दौर में विदेशी वैज्ञानिक व शोधकर्ता उनके काम का संदर्भ इस्तेमाल करने लगे। 1978 में नोबेल फाउंडेशन ने उनसे संपर्क साधा और उन्हें हैजा पर आयोजित एक संगोष्ठी में भाग लेने का आमंत्रण दिया। 1990 में ‘साइंस टुडे’ पत्रिका ने उनके ऊपर एक विशेष अंक छापा, लेकिन उनके काम को भारत में कभी ज्यादा महत्व नहीं दिया गया। बहुत कम लोगों ने उनके शोध और अध्ययन को अपने शोध में संदर्भ की तरह इस्तेमाल किया। हालाँकि, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था। वह अपनी खोजों और प्रयोगों के साथ खुश रहते थे।”

दरअसल, वो ब्रिटिश राज का दौर था, जब 40 के दशक में भारत में हैजा ने अपना भयंकर रूप बार-बार दिखाना शुरू कर दिया था। शम्भूनाथ डे हैजा के बढ़ते प्रकोप से दुःखी रहते थे और उन्होंने इससे निपटने के लिए बृहद रिसर्च आरम्भ किया। हैजा से होने वाली मौतों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ रही थी। आधिकारिक रूप से तो वो लंदन स्थित यूनिवर्सिटी कॉलेज हॉस्पिटल के मेडिकल स्कूल के एक शोध में व्यस्त थे, लेकिन उनके लिए उनकी मातृभूमि के संकट का निदान पहली प्राथमिकता थी।

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अन्य बीमारी पर हो रहे रिसर्च के कई ऑफरों को छोड़ कर वो 1949 में भारत लौट आए। तब तक देश स्वतंत्र हो चुका था और जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे। उन्होंने हैजा के किडनी पर दुष्प्रभावों पर शोध शुरू किया। 1949 से 1955 के बीच एक बाद एक इस विषय पर कई शोधपत्र प्रकाशित हुए। 1955 ही वो साल था, जब पंडित जवाहर लाल नेहरू ने ख़ुद को भारत रत्न दिया और लगभग इसी दौर में शम्भूनाथ डे ने पाया कि हैजा से शरीर में एक प्रकार के टॉक्सिन का निर्माण होता है।

इस बीमारी से मरीज की मौत कैसे हो जाती है, डे ने इसका पता लगा लिया था। लेकिन, विदेशी वैज्ञानिक भी उनके शोध व उससे निकले निष्कर्षों को लेकर संतुष्ट नहीं थे। शम्भूनाथ डे के पुत्र श्यामल डे के अनुसार, उनके पिता को विश्वास था कि उन्होंने जो निष्कर्ष निकाला है, वह एक नई खोज है। हर रात वह बोस संस्थान के फिजिकल व प्रोटीन रसायन प्रयोगशाला जाया करते थे। उनके उपकरण वहीं पर थे। वो खरगोशों पर अपना शोध कर रहे थे।

उस समय मेडिकल कॉलेज में ज़हर को अलग-थलग कर देने तक की भी कोई तकनीक नहीं थी। शम्भूनाथ डे घंटों शोध करते, अध्ययन करते और अपने निष्कर्षों को नोट किया करते थे। उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। यहाँ तक कि उन्हें नोबेल पुरष्कार के लिए भी नामांकित किया गया। चिकित्सा क्षेत्र के लिए नोबेल ले चुके वैज्ञानिक जोशुहा लेडरबर्ग ने उन्हें नामांकित किया था, जो अमेरिकी अंतरिक्ष प्रोग्राम के बड़े नामों में से एक रहे हैं। वो मॉलिक्यूलर बायोलॉजिस्ट थे, जिन्होंने आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस और माइक्रोबियल जेनेटिक्स पर दक्षता हासिल की थी।

70-80 के दशक में नेहरू युग के बाद भी उन्हें भारत सरकार द्वारा कोई सम्मान नहीं दिया गया। इंदिरा गाँधी की सरकार में भी उन्हें कोई सम्मान नहीं मिला। यहाँ तक कि देश की जनता भी उन्हें भूल चुकी थी। हालात आज भी वही है क्योंकि मशहूर गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण के साथ क्या हुआ, वो किसी से छिपा नहीं है। उनकी तरह शम्भूनाथ डे का जन्म भी हुगली के गरीबटी गाँव में हुआ था। शम्भूनाथ के चाचा परिवार में एकमात्र शिक्षित व्यक्ति थे, जिनसे वो प्रेरित हुए।

आपको याद दिलाते चलें कि पटना यूनिवर्सिटी में लोग वशिष्ठ नारायण सिंह को देखने व छूने के लिए इतने लालायित रहते थे कि उनसे जानबूझ कर टकरा जाते थे। अमेरिका ने उन्हें ‘जीनियसों का जीनियस’ कहा था। जब वो अमेरिका से लौट कर आए थे, तब पटना यूनिवर्सिटी में अपना कमरा देखने गए थे। वहाँ उन्हें ये देख कर आश्चर्य हुआ कि उस कमरे के बाहर अभी भी उनका ही नाम लिखा हुआ था। लेकिन, सरकारों की बेरुखी के कारण उनका जीवन नरक बन गया।

फरवरी 1, 1915 को जन्मे शम्भूनाथ डे के पिता दशरथी डे ने अपने पिता की मृत्यु के बाद दुकान में सहायक के रूप में काम रकना शुरू कर दिया था क्योंकि परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर थी। हालाँकि, बाद में उन्होंने अपना छोटा सा व्यवसाय शुरू कर दिया। शम्भूनाथ के रिश्तेदारों में से ही किसी ने उनकी पढ़ाई का ख़र्च उठाया था और उन्हें स्कॉलरशिप भी मिली थी। उन्होंने लंदन में पीएचडी की थी।

शम्भूनाथ डे का लगन इतना था कि वो रोज अपनी ड्यूटी ख़त्म होने के बाद हैजा पर शोध किया करते थे। उन्होंने ही पता लगाया था कि वाइब्रियो कॉलेरी खून के रास्ते नहीं बल्कि छोटी आंत में जाकर एक टॉक्सिन, अर्थात जहरीला पदार्थ छोड़ता है। ऑरल डिहाइड्रेशन सॉल्यूशन (ORS) का विचार भी उनके शोध के बाद ही आया। 1973 में वो रिटायर हो गए। 1978 में नोबेल फाउंडेशन ने उन्हें लेक्चर के लिए बुलाया था।

जिस डायरिया ने उस समय तक 2 करोड़ लोगों की ज़िंदगी छीन ली थी, उस बीमारी से निपटने के लिए किए गए उनके खोजों को विदेश से सम्मान मिला लेकिन अपने ही देश की सरकारों का सहयोग और सम्मान के लिए वो तरस गए। शम्भूनाथ डे के कारण आज हैजा असाध्य नहीं है और हम इससे उबर जाते हैं। हैजा 1817 में ही अस्तित्व में आया था। जिस महान वैज्ञानिक ने इसका निदान निकाला, देश उसे ही भूल गया।

अनुपम कुमार सिंह: चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.