मधुबनी: दलित महिला के हत्यारों को बचाने के लिए सरपंच फकरे आलम ने की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट बदलवाने की कोशिश

मैसूर में 19 साल की भाग्यश्री की पति हामिद ने की हत्या (प्रतीकात्मक तस्वीर)

बिहार के मधुबनी में 5 अप्रैल की रात एक 70 वर्षीय दलित महिला काला देवी (उर्फ कैली देवी) की हत्या कर दी जाती है। हत्या को अंजाम देने के बाद सुलेमान नदाफ, मलील नदाफ और शरीफ नदाफ फरार हैं। फरार होने से पहले और उसके बाद भी आरोपित लगातार गाँव के सरपंच फकरे आलम के संपर्क में है। वो उनसे मुलाकात भी करते हैं और अब पता चला है कि फकरे आलम हत्यारों को बचाने की पूरी कोशिश में जुट भी गए हैं। उन्होंने हत्यारों को बचाने के लिए पूर्व मुखिया को फोन करके पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट को बदलवाने की कोशिश की।

इन सारी बातों का खुलासा किया है खुद मृतक महिला के बेटे सुरेंद्र मंडल ने। उन्होंने बताया कि फकरे आलम ने जिस व्यक्ति को फोन करके रिपोर्ट बदलवाने की कोशिश की, उन्होंने खुद आकर उनको बताया। सुरेंद्र ने बताया कि फकरे आलम रिपोर्ट बदलवाने के लिए उस व्यक्ति से मिलने भी गया था। हालाँकि, फिलहाल सुरेंद्र उस शख्स का नाम उजागर नहीं करना चाहते हैं। उन्होंने हमसे फिलहाल उनके नाम को गुप्त रखने के लिए कहा है। मगर उन्होंने इतना जरूर कहा है कि समय आने पर वो उनके नाम का भी खुलासा करेंगे।

इतना ही नहीं, सुरेंद्र ने तो हमें यह भी बताया कि न सिर्फ हत्यारों को बचाने की कोशिश की जा रही है, बल्कि उनके परिवार को बदनाम भी किया जा रहा है। सुरेंद्र ने कहा, “गाँव में लोगों ने अफवाह उड़ा दी है कि हमने दूसरे मजहब के परिवार से 2 लाख रुपए लेकर मामले को रफा-दफा कर दिया है। ये बिल्कुल गलत बात है। हमने ऐसा कुछ भी नहीं किया है और न ही करेंगे। हम तो कहते हैं कि 1 लाख रुपया मेरे से और ले लो और दोषियों को सजा दो। हमें पैसे नहीं, इंसाफ चाहिए। हमारी माँ चली गई, उनकी मौत नहीं हुई, उनकी हत्या की गई। हमारा एक जान चला गया। हम पैसा लेकर क्या करेंगे? हमें तो बस इंसाफ चाहिए।”

ऑपइंडिया से बात करने के दौरान उन्होंने प्रशासन से भी नाराजगी जताई। उनका कहना है कि उन्हें लोगों से पता चल रहा है कि तीनों आरोपित लगातार सरपंच फकरे आलम से मिलने आते हैं, तो फिर पुलिस उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं कर पा रही है। इस पर उन्होंने आगे कहा, “प्रशासन ने हमसे कहा था कि आरोपितों को गुरुवार (अप्रैल 9, 2020) तक पकड़ लिया जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। अब हम और यहाँ के स्थानीय नागरिक चाहते हैं कि आरोपितों को जिस किसी ने भी अपने यहाँ शरण दिया है, अपने यहाँ छुपाया है, उसे भी दोषी माना जाए और कठोर से कठोर सजा दी जाए।” वैसे ये तो कानून भी है कि गुनाह में साथ देने वालों को भी गुनहगार माना जाएगा।

जैसा कि हमने अपनी पिछली रिपोर्ट में बताया था कि दोषियों को बचाने में राष्ट्रीय जनता दल के विधायक फैयाज अहमद का भी हाथ माना जा रहा है। हालाँकि, इसकी अभी पुष्टि नहीं हो पाई है, लेकिन सुरेंद्र ने बताया कि सरपंच फकरे आलम, फैयाज का रिश्तेदार है और दोनों एक ही समुदाय और एक ही जगह के रहने वाले हैं। ऐसे में उन्होंने आशंका जताई है कि हो न हो इसमें फैयाज अहमद की भी मिलीभगत है। वरना कथित अल्पसंख्यकों के दो घरों में छोटी से छोटी समस्या में दौड़कर आने वाले विधायक जी इतनी बड़ी घटना होने के बाद भी गाँव में क्यों नहीं आए? क्या वो हिंदुओं के विधायक नहीं हैं?

अब सोचने वाली बात यह है कि एक बुजुर्ग दलित महिला की गला दबाकर हत्या कर दी जाती है, लेकिन असहिष्णुता का राग अलापने वाले ये झंडाबरदारों ने एक शब्द तक नहीं कहा। आखिर क्यों? इस हत्या पर न तो तथाकथित सेक्युलर बोल रहे और न ही असहिष्णुता के पैरोकार। इस हत्या पर असहिष्णुता के पैरोकारों ने क्यों चुप्पी साध रखी है? हम आपको बताते हैं कि इस घटना पर कोई सेक्युलर पैरोकार आगे क्यों नहीं आया, क्योंकि यहाँ पर एक हिंदू मारा गया था। आखिर क्यों इन बुद्धिजीवी लोगों को सिर्फ मजहब विशेष के लोगों मरने पर देश में असहिष्णुता नजर आती है? अवार्ड वापसी इन्हें तब ही क्यों याद आती है?

मगर जैसे ही किसी दूसरे मजहब के व्यक्ति की मौत होती है, मामले को तूल देकर ऐसा रंग दिया जाता है, जिससे लगे कि देश में ‘मजहब विशेष पर अत्याचार’ हो रहे हैं। दरअसल सच्चाई तो यह है कि इनकी इस समुदाय के लोगों के साथ भी कोई सहानुभूति नहीं है। ये तो अपने पेशे को चमकाने और राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए ये लोग ऐसा करते हैं। ये लोग किसी एक घटना को इस तरीके से दुनिया को बताने और जताने का प्रयास करते हैं मानो पूरे भारतवर्ष का यही माहौल हो। जबकि इसके उलट जो मामले इनको ‘फायदे वाले’ नहीं लगते उन पर चुप्पी साध लेते हैं।  

यदि कोई हिंदू की हत्या की जाती है, तो चुप्पी साध ली जाती है। स्क्रीन काली कर डालने वाले, हर चीज में ‘मजहब पर अत्याचार’ ढूँढ़ने वाले मीडिया के एक खास वर्ग के लिए यह खबर नहीं होती। सेकुलरिज्म का चश्मा लगाए चैनलों पर बहस करने वाले पत्रकार ऐसी घटनाओं पर खामोश हो जाते हैं। कथित बुद्धिजीवी दलीलें देते हैं कि मामले को मजहब के नजरिए से न देखा जाए।

‘सेलेक्टिव जर्नलिज्म’ (मजहब, जात, सुविधा देखकर होने वाली पत्रकारिता) और ‘सेलेक्टिव क्रिटिसिज्म’ (सुविधा के हिसाब से मुद्दों को आलोचना के लिए चुनना) वाला एक तबका लंबे समय से देश के मीडिया पर काबिज है। ये वही लोग हैं, जिनके लिए अपराध में जहाँ मजहब विशेष के लोग शामिल हों, इनकी परिभाषा बहुत सरल है- अपराध का और अपराधियों का कोई मजहब नहीं होता। पूरी दुनिया में फैले मजहबी आतंकवाद का इनकी निगाह में ‘कोई मजहब नहीं’ है।