विरोध प्रदर्शन की आड़ में JNU के नक्सलियों द्वारा कुलपति की पत्नी पर हमला कहाँ तक उचित है?

जेएनयू कैंपस में उग्र छात्रों का हंगामा

देश के सबसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में से एक नाम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का भी आता है। यहाँ से हर साल बड़ी तादाद में छात्र उच्च शिक्षा हासिल करके निकलते हैं। जेएनयू के क्लासरूम से लेकर वहाँ के परिसर स्थित ढाबों तक में आपको कई बुद्धिजीवियों का समूह सही और गलत पर फैसला करते दिख जाएँगे। साल 2016 में  नेशनल इंस्टीट्यूशल रैंकिंग फ्रेमवर्क, भारत सरकार द्वारा इस विश्वविद्यालय का नाम देश के टॉप 3 विश्वविद्यालयों की सूची में शामिल किया गया था और साल 2017 में जेएनयू इस सूची में दूसरे नंबर पर पहुँच गया था।

इतनी बड़ी उपलब्धि के बावजूद बीते कुछ सालों में जेएनयू की छवि को देश-विरोधी पाया गया। यहाँ बीते सालों में भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारे भी लगे और आतंकवादियों के समर्थन में आवाज़ें भी उठीं। आखिर क्या कारण है कि इन बीते सालों ने जेएनयू की छवि को पूरे देश के सामने बदल कर रख दिया? जहाँ की शिक्षा स्तर की गुणवत्ता का बखान करते कभी लोगों का मुँह नहीं थकता था, वही लोग अब इसे राजनीति का केंद्र मानने लगे हैं। आखिर क्यों?

क्योंकि एक तरफ जहाँ देशविरोधी नारे लगाने के बाद राजनीति में करियर बनाने वाले कन्हैया कुमार के उदय की वजह जेएनयू है, तो वहीं कल रात वहाँ के कुलपति की पत्नी पर हुए हमले का कारण भी जेएनयू ही है। जी हाँ, कल जेएनयू में इन तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक भयानक चेहरा देखने को मिला। जिसने साफ़ कर दिया कि जेएनयू की विचारधारा पर लगते सवालिया निशान गलत नहीं हैं।

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लोकतंत्र बचाने के नाम पर हो-हल्ला मचाने वाले इन बुद्धिजीवियों की भीड़ ने कल (मार्च 25, 2019) को जेएनयू कैंपस में चल रहे विरोध प्रदर्शन के चलते कुलपति के घर का घेराव किया। ताले, खिड़कियाँ, शीशे तोड़ डाले गए और सुरक्षाकर्मियों से मारपीट भी की गई। यहाँ कुलपति प्रो.जगदीश कुमार के घर पर न होने पर इस भीड़ ने अपना गुस्सा उनकी पत्नी पर निकाला। हालाँकि, सुरक्षाकर्मियों ने कुलपति की पत्नी को किसी तरह से उनके निवास से बाहर निकाला, मगर इस बीच वो घायल हो गई।

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यहाँ जब ‘नक्सली’ शब्द का इस्तेमाल जेएनयू के इन बुद्धिजीवियों के लिए हो रहा है, तो बता दिया जाए कि ऐसा सिर्फ़ इसलिए क्योंकि इस हरकत के बाद नक्सलियों की नीतियों में और इनकी नीतियों में कोई फर्क़ नहीं रह गया है। उनकी लड़ाई की धरातल में भी अधिकारों और न्याय की माँग हैं, और यहाँ पर भी बुद्धिजीवियों के अनुसार वही स्थिति है। फर्क़ है तो सिर्फ़ इतना कि वह लोग घोषित रूप से नक्सलवादी है, जो शिक्षा को हथियार न मान कर उग्रता को विकल्प समझते हैं। लेकिन जेएनयू के यह बुद्धिजीवी, शिक्षा की आड़ में वह नक्सली नस्ल हैं जो एक शैक्षणिक संस्थान में उग्र विचारधारा को अपने अधिकार बताकर मज़बूत कर रहे हैं।

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समाज का इतना प्रोग्रेसिव एजुकेशनल इंस्टीट्यूट, शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती तकनीक के इस्तेमाल पर इतनी नाराज़गी और गुस्सा कैसे दिखा सकता है। अगर मकसद सिर्फ़ शिक्षा का विस्तार है तो शायद कंप्यूटर आधारित प्रवेश परीक्षा से किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। आज देश की बड़ी-बड़ी परीक्षाएँ भी कम्प्यूटर के माध्यम से होती हैं। ऐसे में इस कदम का विरोध करना केवल मूर्खता को दर्शाता है। लेकिन अगर इसके बावजूद किसी पढ़े- लिखे समुदाय की ‘भीड़’ को इससे शिक्षा व्यवस्था में खतरा नज़र आता है, तो हर विरोध प्रदर्शन का एक तरीका होता है। जिसका अनुसरण करना इंसान की माँग की गंभीरता को दर्शाता है। बड़े-बुजुर्गों के मुँह से हमेशा सुना है कि एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति अगर झाड़ू भी लगाएगा तो उसमें भी उसकी सभ्यता दिखेगी।

वैसे हैरानी वाली बात तो ये भी है कि घर में 400-500 छात्रों द्वारा तोड़-फोड़ करने और पत्नी के घायल होने के बावजूद कुलपति का कहना है कि बतौर शिक्षक उन उत्पाती छात्रों को माफ़ करते हुए उनके ख़िलाफ़ कोई कानूनी एक्शन नहीं लेंगे। प्रो.जगदीश कुमार का यह फैसला उनके आचरण में अपने छात्रों की फिक्र को झलकाता है। जबकि जेएनयू कैंपस में छात्रसंघ समेत अन्य छात्रों का आचरण किसी हमलावर भीड़ का चेहरा दिखाती है, जो जब चाहे उग्रता की किसी भी हद को पार सकती है।

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इस पूरी घटना को जानकर ऐसा लगता है मानो जेएनयू ने अब हर चीज का विकल्प विवादों में तलाशने की ही ठान ली है। जिन चीजों में आपसी सहमति और सिस्टम के बनाए नियमों को आधार बनाकर प्रश्न उठाया जा सकता है, उस पर इतना विवाद… आखिर क्यों? विश्वविद्यालय प्रबंधन का कहना है कि कंप्यूटर आधारित प्रवेश परीक्षा का फैसला शैक्षिक और कार्यकारिणी परिषद में हुआ था। प्रवेश परीक्षा में बहुविकल्पीय प्रश्न पूछे जाएँगे। जिससे छात्रों को ज्यादा परेशानी नहीं होगी। अब इसमें विरोध की आवाजों का क्या औचित्य है, समझ नहीं आ रहा। अगर शिकायत है तो उसे मेज्योरिटी की इच्छा के अनुसार सवाल लायक बनाया जा सकता है। बेवजह माहौल को बिगाड़ना, शिक्षा और तकनीक में खाई बनाए रखने का समर्थन करना, कहाँ की समझदारी है, इसे तो जेएनयू वाले ही जान सकते हैं, जिनके लिए क्लासरूम की शिक्षा से ज्यादा हर धरनास्थल पर धरना देना नैतिक दायित्व बन चुका है।