SatyaHindi की एजेंडा पत्रकारिता… जहाँ सत्य एवं तथ्य को नजरअंदाज करते हैं आशुतोष

आशुतोष कभी TV पर रोए थे, लोग उसे घड़ियाली आँसू कहते हैं (तस्वीर साभार: अज्ञात फोटोशॉप कलाकर)

देश में वेब पोर्टल की बाढ़ सी आ गई है। उनमें से कुछ के लिए मीडिया जगत में जगह बनाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करना अपने आप को प्रचारित करने का सबसे आसान माध्यम बन गया है। इसी सिद्धांत के आधार पर उनमें से कुछ बड़ा ब्रांड बनने का ख्वाब भी देखते हैं।

‘सत्य हिंदी’ के सह संस्थापक आशुतोष भी कुछ इसी तरह का स्वप्न पाले हुए हैं। उन्होंने ‘कारवाँ’ मैगजीन में छपे लेख में नीति आयोग के दो अधिकारियों के अनाधिकारिक बयानों के इर्द-गिर्द एक कहानी गढ़ने की कोशिश की है कि कोरोना वायरस से बचने के लिए लागू किए गए लॉकडाउन का न तो कोई वैज्ञानिक आधार था और न ही यह इस समस्या का समाधान।

कोविड-19 से निपटने और आर्थिक गतिविधियों को फिर से शुरू करने के लिए केंद्र सरकार ने 11 टास्क फोर्स का गठन किया है। लेकिन, आशुतोष द्वारा इस टास्क फोर्स के दो अज्ञात लोगों के द्वारा किसी और को दिए गए अनाधिकारिक बयान का उपयोग कर अपनी बात रखने की कोशिश करना अपने आप को पत्रकार के रूप में जीवित रखने का एक असफल प्रयास है। इनके पक्षपातपूर्ण विचार और सच पर आँख बंद करने वाली मनोवृत्ति को इनके पोर्टल में जाकर देखा जा सकता है।

वास्तव में कॉन्ग्रेस के प्रति उनकी आशक्ति तब से शुरू हुई, जब वे आम आदमी पार्टी से कुछ पाने में असफल रहे और अब यह प्रश्न कर रहे हैं कि 21 दिनों के पहले लॉकडाउन से क्या हासिल हुआ? क्या बीमारी गायब हो गई? क्या अभी हम 24 मार्च से ज्यादा सुरक्षित स्थिति में हैं? और यदि मरीजों की संख्या बढ़ी है तो इसका जिम्मेदार कौन है?

विश्व स्वास्थ्य संगठन की क्षेत्रीय निदेशक पूनम खेत्रपाल सिंह ने अप्रैल के दूसरे सप्ताह में ही कहा था,

“विश्व स्वास्थ्य संगठन कोविड-19 को रोकने के लिए भारत सरकार द्वारा समय पर लिए गए सख्त निर्णय की सराहना करता है। कोविड मरीजों की संख्या को लेकर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन 6 हफ्ते के राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन से लोगों को एक-दूसरे के संपर्क में आने से दूर रखा जा सका। इसके साथ ही स्वास्थ्य सेवा की तैयारियों को बेहतर बनाया जा सका, जैसे जाँच, मरीजों को अलग रखना और जहाँ से संक्रमण शुरू हुआ वहाँ तक पहुँचना। निश्चित रूप से ये कदम कोरोना के संक्रमण को फैलने से रोकने की दिशा में मील का पत्थर साबित होंगे।”

अगर पत्रकारों को कुछ स्वतंत्रता है, तो पत्रकारिता की अपनी एक नैतिकता भी होती है, साथ ही कुछ अलिखित मानदंड भी। उन्हें किसी भी सरकार की किसी भी नीति को लेकर प्रश्न करने का पूरा अधिकार प्राप्त है, लेकिन प्रधानमंत्री या किसी अन्य राजनेता के समर्थकों को ‘भक्त’ या ऐसे ही किसी अन्य नाम से संबोधित करना किसी पत्रकार का काम नहीं हो सकता, यह विरोधी दल के राजनीतिक कार्यकर्ता का जरूर हो सकता है।

तो क्या आशुतोष छद्म रूप से पत्रकार के वेश में कॉन्ग्रेस के कार्यकर्ता के रूप में काम कर रहे है? क्योंकि वह पहले ही कह चुके हैं कि अब आम आदमी पार्टी से उनका कोई लेना-देना नहीं है। क्या आशुतोष अब कॉन्ग्रेस से आदेश ले रहे हैं?

अब अगले प्रश्न पर आते हैं कि इस लॉकडाउन से हम क्या हासिल कर सके हैं। नीति आयोग के सदस्य (स्वास्थ्य) और एम्पावर्ड ग्रुप संख्या-1 के अध्यक्ष डॉ वीके पॉल ने बताया कि दो महीनों में भारत ने कोविड-19 से लड़ने की क्षमता को विकसित किया है और 1,093 कोविड फैसिलिटीज, जिनमें 3.4 लाख अस्पताल बेड और 6.5 लाख बेड कोविड केयर केंद्रों पर तैयार किए गए हैं। देश ने एक दिन में एक लाख से ज्यादा जाँच के लक्ष्य को भी प्राप्त कर लिया है और ऐसा कई दिनों से लगातार किया भी जा रहा है।

प्रधानमंत्री ने 12 मई को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में भी कहा था कि पीपीई किट और एन95 मास्क, जिनका उत्पादन भारत में न के बराबर था, अब प्रतिदिन दो लाख से ज्यादा निर्मित किए जा रहे हैं। इसलिए आशुतोष का प्रश्न न केवल उनकी अज्ञानता, बल्कि उनका पूर्वग्रह भी दर्शाता है।

डॉ पॉल ने आगे बताया कि पहले चरण के लॉकडाउन के 8 दिनों के बाद कोविड-19 के मामलों में, यानी अप्रैल 3, 2020 के बाद, लगातार गिरावट आई है। लॉकडाउन न किए जाने की सूरत में कोविड-19 के मरीजों की संख्या बहुत ज्यादा होने वाली थी।

जनवरी 30, 2020 को पहला मामला प्रकाश में आने के बाद से मई 23 तक भारत में यह संख्या 1,25,101 तक पहुँच गई है और 3,720 लोगों की मौत हो चुकी है, लेकिन भारत में अभी भी मृत्यु दर 3.07 प्रतिशत पर है, जबकि विश्व में यह 6.57 प्रतिशत है। दुनिया में मामलों की संख्या 52,98,207 पर पहुँच गई है और मरने वालों की संख्या 3,39,425 से अधिक हो गई है।

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने सूचित किया है कि भारत में संक्रमण को 100 से एक लाख पहुँचने में 64 दिन लगे, जबकि अमेरिका में 25 दिन, इटली में 36 दिन, इंग्लैंड में 42 दिन, फ्रांस में 39 दिन, जर्मनी में 35 दिन और स्पेन में 30 दिन लगे।

ये सभी देश भारत की तुलना में न केवल आर्थिक रूप से मजबूत हैं, बल्कि बेहतर स्वस्थ्य सेवाएँ भी इनके पास हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इनके पास भारत जितनी बड़ी जनसँख्या (1.3 अरब) से निपटने का दबाव भी नहीं है। वास्तव में भारत ने इस दौरान जो भी हासिल किया वह किसी भी चमत्कार से कम नहीं है।

आशुतोष का तर्क है कि भारत में स्थितियाँ बदतर हुई हैं और प्रधानमंत्री कोविड-19 के खतरे को आँकने में असफल रहे हैं, अन्यथा 30 जनवरी को जब पहला मामला सामने आया था तब से वे युद्ध स्तर पर काम करते। लगता है आशुतोष को ‘युद्ध स्तर पर काम करने’ की परिभाषा एक बार फिर से समझनी होगी।

अगर समय रहते सोशल डिस्टेंसिंग, कोविड से मुकाबला करने के लिए नई सुविधाओं को तैयार करना, जिसमें अस्पताल भी शामिल हैं, पीपीई किट तैयार करने वाले संयंत्र की स्थापना, जहाँ 2 लाख प्रतिदिन उत्पादन संभव हो पा रहा है, टेस्ट किट बनाने के संयंत्र लगा कर एक लाख प्रतिदिन तक टेस्ट किया जाना और जनता को 20 लाख करोड़ रुपए का आर्थिक पैकेज उपलब्ध करना, गरीबों के खातों में पैसे पहुँचाना- ये सब युद्धस्तर पर काम नहीं हैं तो क्या है? यही वे जनोन्मुखी कारगर कदम हैं, जो केंद्र सरकार ने 30 जनवरी से 24 मार्च के बीच उठाए हैं।

आशुतोष ने दक्षिण कोरिया का उदाहरण देते हुए कहा कि वहाँ बिना लॉकडाउन के सब कुछ नियंत्रण में कर लिया गया। लेकिन यह बेर और तरबूज की तुलना है, क्योंकि 5.12 करोड़ जनसंख्या वाले देश की तुलना 130 करोड़ वाले देश से नहीं की जा सकती। क्या आशुतोष के पास इस बात का कोई जवाब है कि भारत इन दो महीनों में टेस्ट किट, मास्क और पीपीई किट के उत्पादन में स्वावलंबी हो चुका है और वेंटिलेटर्स का भी उत्पादन करने लगा है। उनके हिसाब से सिर्फ केरल की सरकार सही निर्णय कर रही है, लेकिन केरल सरकार को भी केंद्र से कोई दिक्कत नहीं है।

दिल्ली चुनावों और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अहमदाबाद के कार्यक्रम के चलते भी कोविड नियंत्रण में देरी का आरोप आशुतोष ने केंद्र सरकार पर लगाया है। दिल्ली के चुनाव 8 फरवरी को हुए और ट्रंप का कार्यक्रम 24 फ़रवरी को हुआ, लेकिन आशुतोष तथ्यों से दूर हो गए हैं, क्योकि विश्व स्वास्थ संगठन ने इसे महामारी 11 मार्च को घोषित किया था और उसके पहले तक किसी को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि यह नई बीमारी क्या है!

भारत में 2015 में स्वाइन फ़्लू से 2,500 लोगों की मौत हुई थी और देश ने पहले भी कई वायरस का मुकाबला किया है, लेकिन कोरोना वायरस अपने आप में अभूतपूर्व संकट है। भारत में कोविड-19 से पहली मौत 12 मार्च को हुई थी और तब तक संक्रमित मामलों की संख्या 74 थी। अगर पूरे विश्व में किसी को भी मानवता के इस अज्ञात शत्रु के बारे कोई जानकारी नहीं थी, तो आशुतोष ऐसे किन निर्णयों की बात कर रहे थे जो नहीं लिए गए, सिवाय इसके कि एक-दूसरे से दूरी बना कर रखी जाए और इसके इलाज की संभावनाएँ तलाशी जाएँ।

बेहतर होता कि आशुतोष एकाध ऐसी सलाह सरकार के सामने रखते, जिसे सरकार उपयोग में ला पाती। उन्होंने कहा कि 24 मार्च तक भारत वेंटिलेटर्स का आयात करता रहा, तो क्या वे चाहते थे कि सरकार सारे इलाज को रोक कर पहले वेंटिलेटर्स बनाने की क्षमता विकसित करती, उसके बाद इस आपदा से प्रभावित लोगों का इलाज करती? क्या वे यही कहना चाह रहे हैं?

जिस तरह से नीति आयोग ने बताया था कि इस बीमारी से लगभग 10.22 लाख लोग संक्रमित हो सकते थे, अगर संक्रमित होने की रफ़्तार 3 दिन में दोगुना होने से बढ़ कर 12.53 नहीं हुए होते। सरकार के थिंक टैंक ने और भी अनुमानों पर चर्चा की और कहा कि अगर लॉकडाउन नहीं हुआ होता, तो कुल संक्रमित लोगों की संख्या भारत में वर्तमान संख्या की 44 गुना होती।

जब आशुतोष नीति आयोग के उस कथित दावे की बात करते हैं, जिसमें ऐसा कहा गया कि 16 मई के बाद भारत में कोविड का कोई नया मामला नहीं आएगा! इस पर नीति आयोग का जवाब पहले ही आ चुका था, जिसे आशुतोष ने नजरअंदाज किया।

नीति आयोग ने कहा था कि विश्व के वैज्ञानिक इस तरह का आकलन करते रहते हैं और उन्हें उसी परिप्रेक्ष में समझने की जरूरत है न कि शब्दशः। जिस ग्राफिक्स कि चर्चा की जा रही है (पहले राहुल गाँधी और अभी आशुतोष के द्वारा) वह अब तक के वास्तविक मामलों पर एक धारणा बनाता है। इस तरह का कोई दावा नहीं किया गया कि 16 मई के बाद कोई नया मामला नहीं आएगा। बयान का निष्कर्ष गलत निकाला गया है। लेकिन इस तरह की चीजों को समझने के लिए थोड़े अध्ययन की जरूरत होती है, न कि सुनी-सुनाई बातों पर भरोसा करने की।

मोदी की आलोचना से पहले इसे समझना भी जरूरी है कि दिल्ली सरकार ने भीड़ जमा होने पर 12 मार्च से ही प्रतिबंध लगा दिया था, जबकि केंद्र सरकार ने 25 मार्च को पूरा लॉकडाउन घोषित किया था। केरल ने 10 मार्च को भीड़ पर रोक लगाया था और 15 मार्च से कड़ी तोड़ने का अभियान शुरू किया था। मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार ने लोगों के जमा होने पर 14 मार्च से रोक लगा दी थी।

महाराष्ट्र में EDA-1897 (Epidemic Diseases Act, 1897) को 13 मार्च से ही प्रभावी कर दिया गया था और 18 मार्च से किराना की दुकानों को छोड़ कर सब कुछ बंद कर दिया गया था। इसी तरह से ओडिशा ने ईडीए 13 मार्च को पूरी सख्ती के साथ लागू कर दिया था। पंजाब ने भी लॉकडाउन की शुरुआत 13 मार्च से की थी और 22 मार्च से पूरी सख्ती हो गई थी। राजस्थान ने 19 मार्च से प्रदेश में धारा 144 लागू कर दी थी, जबकि तेलंगाना 22 मार्च से ही लॉकडाउन कर दिया था। क्या इन सभी सरकारों के निर्णय गलत थे?

जहाँ तक प्रवासी मजदूरों का प्रश्न है, इसमें प्रदेश सरकारों की भी असफलता है कि वे मजदूरों को रोक पाने में असफल रहे हैं और इनके पलायन के समाचार जंगल की आग की तरह काम किया और लोग अपने घरों की तरफ निकल पड़े।

आशुतोष जैसे पत्रकार इस वैश्विक महामारी में भी अपने एजेंडा पत्रकारिता से बाज नहीं आ रहे हैं, जबकि अगर पहले के श्रमिकों को, जिन्हें बस से घर पहुँचाया गया था, न भी जोड़ा जाए, तो 2,600 श्रमिक एक्सप्रेस के माध्यम से 35 लाख श्रमिकों को अब तक घर पहुँचाया जा चुका है। लेकिन, इस तरह की चीजों को एजेंडा पत्रकारिता में नजरअंदाज किए जाने का फैशन है शायद।

Ashish Sood: Incharge, Publicity dept & Ex General Secretary, BJP Delhi