कोरोना पर रिपोर्टिंग ही बनी ‘त्रासदी’, संक्रमण से जीतने के जज्बे को मार रही ‘भय’ की ये पत्रकारिता

भारत में कोरोना त्रासदी की रिपोर्टिंग ही बनी 'त्रासदी' (साभार: द वीक)

घटना, दुर्घटना या त्रासदी को रिपोर्ट करने की कुछ स्थापित मान्यताएँ हैं जो रिपोर्टिंग के लिखित या अलिखित नियमों के साथ-साथ एक लंबे समय में मीडिया के क्रमिक विकास की गवाही भी देती हैं। साथ ही ये मान्यताएँ देश, समाज या काल के अनुसार अलग-अलग जगहों के लिए लागू होती हैं।

यदि रिपोर्टिंग अपने आप में एक त्रासदी बन जाए तो?

राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टिंग की विवेचना हो तो ऐसे निष्कर्ष सामने आते हैं जिनसे पता चलता है कि ये स्थापित मान्यताएँ किसी बिंदु पर या तो नहीं मानी जातीं या फिर जान-बूझकर ध्वस्त कर दी जा रही हैं। कम्युनिकेशन में अधिकतर विज्ञापन एजेन्सियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले अपराध बोध, भय और शर्मिंदगी एक समय के बाद मीडिया में रिपोर्टिंग तक पहुँचे और अब मीडिया इसका इस्तेमाल केवल रिपोर्टिंग के लिए ही नहीं, बल्कि अपने या किसी और के उद्देश्यों के लिए कर रहा है। पिछले लगभग ढाई-तीन दशकों में त्रासदी की रिपोर्टिंग में कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनसे यह बात साबित होती है कि मान्यताएँ बदल चुकी हैं।

तस्वीरों के सहारे एक बहुत बड़े वर्ग के भीतर अपराध बोध पैदा करने का काम मीडिया के लिए कुछ नया नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की बात करें तो द ग्रेट डिप्रेशन से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध तक ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं। पर मीडिया के इस पहलू की सबसे अधिक चर्चा उस तस्वीर से हुई थी जो केविन कॉर्टर ने खींची थी। सूडान के एक सूखा-ग्रस्त गाँव में उसने एक बच्चे की तस्वीर खींची जिसके पीछे एक बड़ा सा गिद्ध बैठा था। वैसे तो कहा जाता है कि कॉर्टर ने वहाँ रूक कर उस गिद्ध के उड़ जाने का इन्तज़ार किया था या उसने गिद्ध को भगाने की कोशिश भी की थी, पर प्रकाशित हुई तस्वीर के परिप्रेक्ष्य में गिद्ध के उड़ने का इन्तज़ार शायद कोई मायने नहीं रखता। कॉर्टर को इस तस्वीर के लिए भले ही पुरस्कार मिला पर खुद अपराध बोध से परेशान कॉर्टर ने आत्महत्या कर ली थी।

उसके बाद जो सबसे बड़ा उदाहरण मिलता है वह है अलयान कुर्दी का। 2015 में सीरिया के गृहयुद्ध से बचकर अवैध रूप से यूरोप में घुसने की कोशिश करने वाले लगभग चार हजार अवैध शरणार्थी मरे। पर पूरी दुनिया को केवल एक नाम याद रहा और वह था, तीन वर्षीय बच्चा अलयान कुर्दी। इसका कारण बनी वह प्रसिद्ध तस्वीर जिसने विश्व समुदाय को ‘झकझोर’ कर रख दिया था और उससे उपजने वाले अपराध बोध ने तमाम यूरोपीय देशों को एशिया और अफ़्रीका के अलग-अलग देशों से आए अवैध शरणार्थियों को शरण देने के लिए बाध्य कर दिया।

राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत में फोटो को आगे रखकर अपराध बोध या भय फैलाने का सबसे बड़ा उदाहरण 2002 के गुजरात दंगे रहे हैं। मीडिया ने गुजरात दंगों के जिन दो चेहरों को लेकर अपराध बोध और भय का माहौल बनाया वे चेहरे क्रमशः कुतुबुद्दीन अंसारी और अशोक परमार के थे। जिस अंसारी की हाथ जोड़कर रोते हुए ली गई फोटो ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि धूमिल की, बाद में पता चला कि वो तस्वीर बड़ी प्लानिंग के बाद ली गई थी। जिस अशोक परमार को सिर पर लाल कपड़े बाँधकर हाथ में तलवार लेकर हमला करने की तैयारी के साथ दिखाया गया, उससे भी कैमरा के सामने पोज देने के लिए तैयार किया गया था।

अपराध बोध या भय पैदा करके अपनी बात मनवा लेने की इस सोच ने अंतराष्ट्रीय मीडिया के लिए नए-नए रास्ते खोल दिए हैं। इस समय भारत में चल रही कोरोना की दूसरी लहर से पैदा होने वाली परिस्थिति को ही देखा जाए तो कभी तस्वीरों के सहारे अपराध बोध पैदा करने की तो कभी विशेषज्ञों से अपने मतलब की बात कोट करवा, भय पैदा करने की लगातार कोशिश की जा रही है।

पिछले वर्ष जब कोरोना को भारत में घुसे हुए महीना भर ही हुआ था तभी किसी तथाकथित विशेषज्ञ को अपने चैनल पर लाकर बरखा दत्त ने ऐसी भविष्यवाणियाँ प्रसारित की जिन्हें सुनकर किसी भी आम भारतीय का भयग्रस्त हो जाना साधारण बात थी। यह अलग बात है। फिर इस रिपोर्ट को आधार बनाकर बार-बार यह प्रश्न पूछा गया कि संक्रमण और उससे होनेवाली मृत्यु के भारत सरकार के आँकड़े सच हैं या नहीं? उन्हीं भविष्यवाणियों को आधार बनाकर अंतराष्ट्रीय मीडिया और उनके प्रतिनिधियों ने यहाँ तक प्रश्न कर डाला कि भारत में लोग मर क्यों नहीं रहे?

यह बात अलग है कि बाद में पता चला कि वह तथाकथित विशेषज्ञ कोरोना या ऐसी वैश्विक स्तर की महामारी पर एक विशेषज्ञ की तरह वक्तव्य देने के योग्य नहीं था।

जबसे दूसरी लहर आई है अस्वाभाविक रूप से बढ़ते संक्रमण, अचानक दबाव में आई स्वास्थ्य व्यवस्था और उससे परिणाम स्वरूप बनी परिस्थिति को राज्यों द्वारा सही तरीके से मैनेज न कर पाने के साथ तमाम और समस्याओं पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया की रिपोर्टिंग अधिकतर श्मशान और लाशों तक सीमित रह गई है। कहीं कोई श्मशान में जलती लाशों की तस्वीरें दिखा रहा है तो कहीं कोई श्मशान में पड़ी बाल्टी के ऊपर लैपटॉप रख कर रिपोर्टिंग कर रहा है ताकि वैश्विक स्तर पर एक लहर बनाई जाए और भारतीयों के मन में एक तरह का अपराध बोध पैदा किया जाए। ऐसा करने के पीछे उद्देश्य चाहे जो हो पर यह अवश्य है कि अपराध बोध और भय ग्रसित एक पूरा देश सामान्य प्रतिक्रिया नहीं देगा।

यह भय का ही असर है जो एक आम भारतीय को संक्रमण होते ही अस्पताल में बेड पर कब्जा कर लेने के लिए मजबूर कर रहा है। यह भय का ही असर है जो भारतीयों को आवश्यकता न होने के बावजूद ऑक्सीजन सिलेंडर और इंजेक्शन रखने के लिए उकसा रहा है। यह रिपोर्टिंग से उपजे उस भय का ही परिणाम है कि लगातार श्मशान और जलती लाशें देखने वाला आम भारतीय किसी भी स्थिति में संक्रमण होने पर स्वस्थ होने की उम्मीद को कम कर आँक रहा है।

ऐसे में आवश्यक है कि इन उद्देश्यों के साथ की जाने वाली ऐसी रिपोर्टिंग को लेकर बहस हो और मीडिया खुद इस पर अंकुश लगाए।