क्या हिन्दू गौमांस खाते थे? वामपंथी कारवाँ मैग्जीन ने संस्कृत के अज्ञान के कारण फिर दिखाई मूर्खता

हिन्दुओं को गौमांस के साथ जोड़कर किसका फायदा?

ततश्चानुदिनं धर्मः सत्यं शौचं क्षमा दया। कालेन बलिना राजन् नङ्‌क्ष्यत्यायुर्बलं स्मृतिः॥

भगवान कृष्ण द्वारा द्वापर युग के अंतिम दिनों में कलियुग के विषय में बोला गया ये श्लोक आज भी अंतिम सत्य है। इस श्लोक में कहा गया है कि कलियुग में धर्म, सत्यवादिता, स्वच्छता और सहिष्णुता के घटने के साथ-साथ असत्य का अत्यंत बोलबाला बढ़ेगा। मनुष्य केवल स्वयं के गलत विचारों को भी सच सिद्ध करने के लिए झूठ का इतना और इस तरह प्रयोग करेगा कि बहुसंख्य लोग उस झूठ को सच मानने के लिए विवश हो जाएँगे।

ऐसे ही कुछ प्रयास कुछ समय से वामपंथी विचारधारा वाले इतिहासकार और प्रकाशक कर रहे हैं। मार्क्सवादी इतिहासकार रोमिला थापर ने यह अवधारणा सिद्ध करने की कोशिश की कि प्राचीन हिंदू ऋषि-मुनियों ने न केवल मांस खाया, बल्कि अतिथियों को मांस परोसना भी सम्मानजनक माना गया।

स्क्रॉल और कारवाँ जैसे प्रकाशकों ने और आगे बढ़ते हुए ये प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया कि वैदिक काल में भारतवर्ष में ब्राह्मणों और ऋषियों द्वारा गौमांस खाना एक बहुत ही स्वीकार्य वस्तु थी और अपनी इस कुचेष्टा को साबित करने के लिए ऋग्वेद और सनातन धर्म के दूसरे ग्रंथों के श्लोक और ऋचाओं के अर्थ को तोड़-मरोड़कर कुछ इस तरह प्रस्तुत किया कि कोई भी सामान्य व्यक्ति उस पर भरोसा कर ले।

ये सब सोचे-समझे प्रयास उस एक बड़े इकोसिस्टम का भाग है, जो एक साधारण भारतीय को सदैव हीन भावना से ग्रसित ही रखना चाहती है। इन्हीं कुटिल प्रयासों ने वेदों के विषय में सबसे अधिक प्रचलित एक शंका उत्पन्न कर दी है कि क्या वेदों में पशुबलि, मांसासाहार और गौमांस के सेवन आदि का विधान और उल्लेख है?

हमारे देश में वेद और वैदिक ज्ञान की दुर्दशा का कारण हमारे ही ऐसे अध्येता हैं, जो संस्कृत भाषा और व्याकरण को तो समझते थे, किंतु वेद और शास्त्रों के यथार्थ ज्ञान से कोसों दूर रहे। ऐसे लोगों ने जब वेद, पुराण और उपनिषदों का भाष्य किया तो केवल शाब्दिक अर्थ निकाले, किंतु उसमें छिपे गूढ़ भावार्थ को ये लोग समझ नहीं पाए, और जब ये खुद नहीं समझ पाए तो सही व्याख्या का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

इन्हीं भारतीय अध्येताओं से इन ग्रंथों का सीमित अर्थ पश्चिमी भाष्यकारों के पास गया और इन्हीं पश्चिमी भाष्यकारों का अनुकरण कर थापर जैसे कितने ही तथाकथित इतिहासकार और कारवाँ जैसे प्रकाशन हमारी सभ्यता और हमारे ग्रंथों का उपहास उड़ाने में सक्षम बन गए हैं।

वेदों की व्याख्या करना एक अत्यधिक जटिल गतिविधि है और ये केवल संस्कृत भाषा के ज्ञान से बहुत परे है। इसके लिए न केवल ज्ञान, बल्कि शिखा (ध्वनि-विज्ञान), व्याकरण, निरुक्त (दर्शन), निघंटु (शब्दावली), छंद (अधिकार), ज्योतिष (खगोल विज्ञान), और कल्प (समय अवधि या युग) की गहरी समझ की आवश्यकता होती है। साथ ही और कई अन्य पहलुओं की, जो केवल सनातन संस्कृति के भीतर रहने और समझने से जाना जा सकता है।

कारवाँ के लेख में इच्छानुरूप दिए गए कुछ ऋचाओं और श्लोकों के अशुद्ध और अपकार प्रयोगों का खंडन करने से पहले आइए कुछ ऐसे शब्द देखते हैं, जिससे लोगो को भ्रमित किया जाता है कि वेदों में पशुबलि, मांसाहार आदि का विधान है।

‘मेध’

मेध शब्द का अर्थ केवल हिंसा नहीं है। मेध शब्द के तीन अर्थ हैं- 1. मेधा अथवा शुद्ध बुद्धि को बढ़ाना, 2. लोगो में एकता अथवा प्रेम को बढ़ाना 3. हिंसा।

इसलिए मेध से केवल हिंसा शब्द का अर्थ ग्रहण करना उचित नहीं है। अश्वमेध शब्द का अर्थ यज्ञ में अश्व की बलि देना नहीं है अपितु शतपथ 13.1.6.3 और 13.2.2.3 के अनुसार राष्ट्र के गौरव, कल्याण और विकास के लिए किए जाने वाले सभी कार्य “अश्वमेध” हैं। गौ मेध का अर्थ यज्ञ में गौ की बलि देना नहीं है अपितु अन्न को दूषित होने से बचाना, अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, सूर्य की किरणों से उचित उपयोग लेना, पृथ्वी को पवित्र या साफ रखना -‘गोमेध‘ यज्ञ है।

‘गौ’ शब्द का एक और अर्थ है- पृथ्वी। पृथ्वी और उसके पर्यावरण को स्वच्छ रखना ‘गोमेध’ कहलाता है। नरमेध का अर्थ मनुष्य की बलि देना नहीं है अपितु मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके शरीर का वैदिक रीति से दाह संस्कार करना नरमेध यज्ञ है।

मनुष्यों को उत्तम कार्यों के लिए प्रशिक्षित एवं संगठित करना नरमेध या पुरुषमेध या नृमेध यज्ञ कहलाता है। अजमेध का अर्थ बकरी आदि की यज्ञ में बलि देना नहीं है, अपितु अज कहते है बीज,अनाज या धान को। अजमेध का अर्थ कृषि की पैदावार बढ़ाना है। अजमेध का सीमित अर्थ अग्निहोत्र में धान आदि की आहुति देना है।

‘आलम्भ’

लभ्’ धातु से बनने वाला आलम्भ शब्द का अर्थ मारना नहीं अपितु अच्छी प्रकार से प्राप्त करना, स्पर्श करना या देना होता है। पारस्कर सूत्र 2 /2 /16 में कहा गया है कि आचार्य ब्रह्मचारी का आलम्भ अर्थात हृदय का स्पर्श करता है। यहाँ पर आलम्भ का अर्थ स्पर्श आया है। पारस्कर सूत्र 1 /8 /8 में भी कहा गया है कि वर-वधू के दाहिने कंधे के ऊपर हाथ ले जाकर उसके ह्रदय का स्पर्श करे। यहाँ पर भी आलम्भ का अर्थ स्पर्श आया है। अगर यहाँ पर आलम्भ शब्द का अर्थ मरना मानें तो यह कैसे युक्तिसंगत एवं तर्क संगत सिद्ध होगा? इससे सिद्ध होता है कि आलम्भ शब्द का अर्थ ग्रहण करना, प्राप्त करना अथवा स्पर्श करना है।

‘संज्ञपन’

संज्ञपन शब्द का अर्थ ज्ञान देना, दिलाना एवं मेल कराना है। अथर्ववेद 6/10/14-15 में लिखा है कि तुम्हारे मन का ज्ञानपूर्वक अच्छी प्रकार (संज्ञपन) मेल हो, तुम्हारे हृदयों का ज्ञान पूर्वक अच्छी प्रकार (संज्ञपन) मेल हो। इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण 1/4 में एक आख्यानिका है जिसका अर्थ है, “मैं वाणी तुझ मन से अधिक अच्छी हूँ, तू जो कुछ मन में चिंतन करता है मैं उसे प्रकट करती हूँ। मैं उसे अच्छी प्रकार से दूसरों को बतलाती हूँ (संज्ञपयामी) संज्ञपन शब्द का मेल के स्थान पर हिंसापरक अर्थ करना अज्ञानता का परिचायक है।”

‘गोघ्न’

गोघ्न शब्द में हन धातु का प्रयोग है, जिसके दो अर्थ बनते हैं- हिंसा और गति। गोघ्न में उसका गति अथवा ज्ञान, गमन, प्राप्ति विषयक अर्थ है। मुख्य भाव यहाँ प्राप्ति का है, अर्थात जिसे उत्तम गौ प्राप्त कराई जाए। हिंसा के प्रकरण में वेद का उपदेश गौ कि हत्या करने वाले से दूर रहने का है। ऋग्वेद 114 /10 में लिखा है, जो गोघ्न – गौ कि हत्या करनेवाला है – वह नीच पुरुष है, वह तुमसे दूर रहे।

वेदों के कई उदाहरणों से पता चलता है कि ‘हन्’ का प्रयोग किसी के निकट जाने या पास पहुँचने के लिए भी किया जाता है। उदहारण के लिए अथर्ववेद 6 /101 /1 में पति को पत्नी के पास जाने का उपदेश है। इस मंत्र का यह अर्थ है कि पति पत्नी के पास जाए उचित प्रतीत होता है ना कि पति द्वारा पत्नी को मारना उचित सिद्ध होता है। इसलिए हनन का केवल हिंसा अर्थ गलत परिपेक्ष में प्रयोग करना भ्रम फैलाने के समान है।

‘अतिथिनीर्गा’

कारवाँ मैग्जीन के लेख के अनुसार, ऋग्वेद के मंत्र 10 /68 /3 में अतिथिनीर्गा: का अर्थ अतिथियों के लिए गौओं का वध किया गया है। जिसका तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के आने पर गौ को मारकर उसके मांस से उसे तृप्त किया जाता था। यहाँ पर जो भ्रम हुआ है, उसका मुख्य कारण अतिथिनी शब्द को समझने की गलती के कारण हुआ है।

यहाँ पर उचित अर्थ बनता है ऐसी गायें जो अतिथियों के पास दानार्थ लाई जाएँ, उन्हें दान की जाए। Monier Williams ने भी अपनी संस्कृत इंग्लिश शब्दकोश में अतिथिग्व का अर्थ “To whom guests should go” अर्थात जिसके पास अतिथि प्रेमवश जाए। Bloomfield ने भी इसका अर्थ “Presenting cows to guests” अर्थात अतिथियों को गौ भेंट करने वाला ही बताया है। अतिथि को गौमांस परोसना कपोलकल्पित है।

‘माष’

माष शब्द का प्रयोग ‘माषौदनम्‘ के रूप में हुआ है। इसे बदल कर किसी मांसभक्षी ने मांसौदनम् अर्थ कर दिया है। यहाँ पर माष एक दाल के समान वर्णित है। इसलिए यहाँ मांस का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आयुर्वेद (सुश्रुत संहिता शरीर अध्याय 2) गर्भवती स्त्रियों के लिए मांसाहार को सख्त मना करता है और उत्तम संतान पाने के लिए माष सेवन को हितकारी कहता है। इससे क्या स्पष्ट होता है। यही कि माष शब्द का अर्थ मांसाहार नहीं अपितु दाल आदि को खाने का आदेश है। फिर भी अगर कोई माष को मांस ही कहना चाहे, तब भी मांस को निरुक्त 4/1/3 के अनुसार मनन साधक, बुद्धि वर्धक और मन को अच्छी लगने वाली वस्तु जैसे फलका गूदा, खीर आदि कहा गया है।

प्राचीन ग्रंथों में मांस अर्थात गूदा खाने के अनेक प्रमाण मिलते हैं जैसे चरक संहिता में देखें आम्रमांसं (आम का गूदा), खजूरमांसं (खजूर का गूदा), तैत्तरीय संहिता 2.32.8 (दही, शहद और धान) को मांस कहा गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि वेदादि शास्त्रों में जहाँ पर माष शब्द आता है अथवा मांस के रूप में भी जिसका प्रयोग हुआ है उसका अर्थ दाल अथवा फलों का मध्य भाग अर्थात गूदा है।

वाजिनम्

वाजिनम् का अश्व के साथ-साथ अन्य अर्थ है शूर, बलवान, गतिशील और तेज। यजुर्वेद के 25/34 मंत्र का अर्थ करते हुए सायण लिखते हैं कि अग्नि से पकाए, मरे हुए तेरे अवयवों से जो मांस- रस उठता है वह वह भूमि या तृण पर न गिरे, वह चाहते हुए देवों को प्राप्त हो। अश्व की हिंसा के विरुद्ध यजुर्वेद 13/47 मंत्र का शतपथकार ने पृष्ठ 668 पर अर्थ लिखा है कि अश्व कि हिंसा न करें।

उदाहरण:-

यजुर्वेद 25/44 के यज्ञ में घोड़े की बलि के समर्थन में अर्थ निकालते हुए लिखा गया है कि हे अश्व! तू अन्य अश्वों कि तरह मरता नहीं क्योंकि तुझे देवत्व प्राप्ति होगी और न हिंसित होता है कि व्यर्थ हिंसा का यहाँ अभाव है। प्रत्यक्ष रूप में अवयव नाश होते हुए ऐसा कैसे कहते हो? इसका उत्तर देते हैं कि सुंदर देवयान मार्गों से देवों को तू प्राप्त होता है, इसलिए यह हमारा कथन सत्य है। इस मंत्र का सही अर्थ है कि जैसे विद्या से अच्छे प्रकार प्रयुक्त अग्नि, जल, वायु इत्यादि से युक्त रथ में स्थित हो कि मार्गों से सुख से जाते हैं, वैसे ही आत्मज्ञान से अपने स्वरुप को नित्य जान के मरण और हिंसा के डर को छोड़कर दिव्य सुखों को प्राप्त हो।

अब चलते हैं उस श्लोक की ओर, जिसमें कारवाँ का लेख यह बताने का प्रयत्न कर रहा है कि इंद्र को प्रसन्न करने के लिए बैल का मांस पकाया जाता था।

उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम्। उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः।।” (ऋ.10.86.14)

इस लेख को लिखने वाले भद्रपुरुष ने इस ऋचा के केवल तीन शब्दों को उठाया – “उक्ष्णो” (जिसका अर्थ उसने उक्ष (बैल) निकाला, दूसरा शब्द था “पञ्चदश” (जिसका अर्थ था पंद्रह) और तीसरा शब्द था “विंशतिम्” (जिसका अर्थ है बीस) और शब्दकोश से शाब्दिक अर्थ निकाल कर अनर्थ लिखा “At one place Indra states, “they cook for me fifteen plus twenty oxen”. अब इन सज्जन को कौन समझाए कि यहाँ पर उक्षण का अर्थ बैल नहीं किंतु थोड़ा गूढ़ है। 

आर्य विद्वान आचार्य वैधनाथ शास्त्री का ये भाष्य देखिए- पदार्थ- (पंचदश) दश प्राण और पंचभूत ये पन्द्रह पदार्थ, (मे) मेरे द्वारा बनाए गए (उक्ष्णः) सुखों के वर्षक शरीरों के (विंशतिम्) 20 अंगों या इंद्रियों को (साकम् हि) साथ ही (पचन्ति) पका कर पुष्ट करते हैं (उत) और (मे) मेरे द्वारा प्रदत्त शरीर के (उभाकुक्षी) दोनों पाश्र्वों को (पृणन्ति) पूर्ण करते हैं। (अहम्) मैं (पीव इत्) सर्वदा परिपुष्ट इस सबको प्रलयकाल में (अद्मि) अपने अन्दर समा लेता हूँ, (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् प्रभु (विश्वस्मात्) सब पदार्थों से सूक्ष्म और उत्कृष्ट है।   

भावार्थ- दश प्राण और पंचभूत परमेश्वर द्वारा बनाए गए शरीरों के बीस अंगों को साथ ही परिपक्व करके पुष्ट करते हैं और मेरे द्वारा प्रदत्त दोनों पाश्र्वों को भी परिपूर्ण करते हैं। मैं सर्वदा परिपुष्ट इन्द्र = परमेश्वर इन सबको प्रलयकाल में अपने अन्दर समेट लेता हूँ। परमैश्ववर्यवान् प्रभू सब पदार्थों से सूक्ष्म और उत्कृष्ट है। अर्थात् इंद्र मनुष्य की सभी इंद्रियों, प्राण, पंचभूत और अंतः करण को पुष्ट करते हैं। इस ऋचा का बैल के वध से कोई लेना-देना नहीं है।

ऋग्वेद की एक दूसरी ऋचा है – 

“हे इन्द्र ! त्वं यथा प्रातर्धानावन्तं करम्भिणमपूपवन्तमुक्थिनं प्रातर्जुषस्व तथा नोऽस्मान् जुषस्व ॥१॥“

हे (इन्द्र) ऐश्वर्य के धारण करने वाले! इस भूंने हुए जौ और दधि के मिश्र को मंत्रों के साथ हम इसे आपको समर्पित करते हैं, इसे स्वीकार कीजिए।

तो अगर कोई अपने अज्ञान और अक्षमता के कारण इन वैदिक ऋचाओं का सही अर्थ नहीं कर सकता है, इस कारण केवल शब्दकोश से अर्थ उठाता है और वेदों में इंद्र के सोम का सेवन करने के बारे लिखा हुआ होने के बाद भी बैल के मांस को इंद्र द्वारा स्वीकारा हुआ बताता है तो यह अवश्य उस व्यक्ति विशेष के इसमें निहित स्वार्थ के कारण होगा।

लेख में इंगित दूसरी ऋचा “अग्निदेव” को समर्पित है।

उक्षान्नाय वशान्नाय सोमपृष्ठाय वेधसे । स्तोमैर्विधेमाग्नये ॥

लेख के अनुसार – Second in importance to Indra is Agni… his main food being ghee. Protector of all men, he is, nevertheless, described in the Rigveda as “one whose food is the ox and the barren cow”. 

यहाँ पर भी लेखक का मत पक्षपात वाला है। यह ऋचा यज्ञ से सम्बंधित है और यज्ञ में जलती हुई अग्नि में घी की आहुति दी जाती है इसलिए अग्नि का मुख्य खाद्य घी होना सही है। लेखक ने “ उक्षान्नाय वशान्नाय” को अग्नि द्वारा गौ और बैल को खाया जाना बताया है, जो सरासर अनुचित है। ऊपर दी गई ऋचा का भावार्थ है – “हम उपासक (अग्नये) उस सर्वव्यापी जगदीश्वर की (स्तोमैः) विविध स्तोत्रों और मन से (विधेम) उपासना करें, जो ईश्वर (उक्षान्नाय) धनवर्षक सूर्य्यादिकों के भी अन्नवत् पोषक है, पुनः (वशान्नाय) स्ववशीभूत समस्त जगतों का भी अन्नवत् धारक और पोषक है, पुनः (वेधसे) सबके रचयिता भी हैं। ऐसे जगदीश्वर की उपासना करें ॥११॥”

अब आते हैं “गौ” शब्द पर। कारवाँ के लेख का लेखक लिखता है -The Taittiriya Brahmana unambiguously refers to the sacrificial killing of the cow which “is verily food” (atho annam vai gauh)”

यहाँ पर पुनः लेखक ने अपनी सीमित क्षमता का उपयोग कर गौ को गाय समझा और गाय को खाने की वस्तु बता दिया। वास्तव में वेदों में “गौ” शब्द का सम्बोधन पोषण प्रदायक दिव्य शक्तियों के लिए हुआ है। पशुरूप में भी “गौ” पर ये परिभाषा भली भाँति लागू होती है किंतु वेद के “गौ” सम्बोधन को व्यापक अर्थ में लेना ही सही होगा।

जैसे – “इमे लौका गौ” – ये लोक गौ कहे जाते हैं, “अंतरिक्षम गौ”- अंतरिक्ष को गौ कहा गया है, “गावो वा आदित्या”- गौ ही आदित्य है, “अन्नम वै गौ: – अन्न ही गौ है, “आग्नेयो वै गौ: – अग्नि ही गौ है”। तो उपरोक्त उदाहरण में क्योंकि अन्न हमें पोषण प्रदायक ऊर्जा देता है इसलिए उसे “गौ” कहा गया है ना कि “गौ” को खाने की वस्तु बताया गया।

आइए अब देखें कुछ उदाहरण वेदों से जिसमें “गौ वध” को जघन्य अपराध कहा गया है-

आचार्य सोमेश परसाई बताते हैं कि ऋग्वेद में गौ-वध को जघन्य अपराध घोषित करते हुए इसे मानव-वध के तुल्य माना गया है। ऐसा महापाप करने वाले के लिए ऋग्वेद दण्ड का विधान भी करता है।

सूयवसाद  भगवती  हि  भूया  अथो  वयं  भगवन्त:  स्याम अद्धि  तर्णमघ्न्ये  विश्वदानीं  पिब  शुद्धमुदकमाचरन्ती – ऋग्वेद 1/164/40
इसी तरह यजुर्वेद में गाय को जीवनदायी पोषण दाता मानते हुए गौ हत्या को वर्जित किया गया है।

घृतं दुहानामदितिं जनायाग्ने  मा हिंसी: यजुर्वेद 13/49
सदा ही रक्षा के पात्र गाय और बैल को मत मारो।

आरे  गोहा नृहा  वधो  वो  अस्तु ऋग्वेद  7 /56/17
आचार्य परसाई के मुताबिक वेदों मेंं गाय को अघ्न्या कहा गया है। अघ्न्या अर्थात् जो किसी भी अवस्था में नहीं मारने योग्य हैं।

ऋग्वेद 10/87/16 में वर्णित है – 

य:  पौरुषेयेण  क्रविषा  समङ्क्ते  यो  अश्व्येन  पशुना  यातुधान:
यो  अघ्न्याया  भरति  क्षीरमग्ने  तेषां  शीषाज़्णि  हरसापि  वृश्च
मनुष्य, अश्व या अन्य पशुओं के मांस से पेट भरने वाले तथा दूध देने वाली अघ्न्या गायों का विनाश करने वालों को कठोरतम दण्ड देना चाहिए। 

सूयवसाद  भगवती  हि  भूया  अथो  वयं  भगवन्त:  स्याम अद्धि  तर्णमघ्न्ये  विश्वदानीं  पिब  शुद्धमुदकमाचरन्ती – ऋग्वेद 1/164/40
इसी तरह यजुर्वेद में गाय को जीवनदायी पोषण दाता मानते हुए गौ हत्या को वर्जित किया गया है-

घृतं दुहानामदितिं जनायाग्ने मा हिंसी: यजुर्वेद 13/49
सदा ही रक्षा के पात्र गाय और बैल को मत मार-

आरे  गोहा नृहा  वधो  वो  अस्तु ऋग्वेद  7 /56/17
आचार्य परसाई के मुताबिक वेदों मेंं गाय को अघ्न्या कहा गया है। अघ्न्या अर्थात् जो किसी भी अवस्था में नहीं मारने योग्य हैं।

ऋग्वेद 10/87/16 में वर्णित है –
य:  पौरुषेयेण  क्रविषा  समङ्क्ते  यो  अश्व्येन  पशुना  यातुधान:
यो  अघ्न्याया  भरति  क्षीरमग्ने  तेषां  शीषाज़्णि  हरसापि  वृश्च

मनुष्य, अश्व या अन्य पशुओं के मांस से पेट भरने वाले तथा दूध देने वाली अघ्न्या गायों का विनाश करने वालों को कठोरतम दण्ड देना चाहिए।
अन्तकाय गोघातं – यजुवेज़्द 30/18 अर्थात गौ हत्यारे का संहार किया जाए। 

मनुस्मृति में भी बार-बार मांसाहार को निषेध बताया गया है-

नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्व चित् ।
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ॥ ५.४८ ॥

समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम् ।
प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात् ॥ ५.४९ ॥

न भक्षयति यो मांसं विधिं हित्वा पिशाचवत् ।
न लोके प्रियतां याति व्याधिभिश्च न पीड्यते  ॥ ५.५० ॥

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ॥ ५.५१ ॥

स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति ।
अनभ्यर्च्य पितॄन् देवांस्ततोऽन्यो नास्त्यपुण्यकृत् ॥

सनातन धर्म के पाँचवे वेद महाभारत में भी मांसाहार के परित्याग और निषेध का बहुत बार उल्लेख मिलता है। महाभारत के अनुशासन पर्व के 115वें अध्याय में पितामह भीष्म बाणों की शैय्या पर सोए हुए युधिष्ठिर को कहते हैं-

“यो यजेताश्वमेधेन मासि मासि यतव्रत:।
वर्जयेनमधु मांसं च सममेतद युधिष्ठिर।।

“हे युधिष्ठिर, जो पुरुष नियमपूर्वक व्रत का पालन करते हुए प्रतिमास अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करता है तथा जो केवल मद्य और मांस का त्याग करता है, उन दोनो को एक जैसा ही फल मिलता है।”

भीष्म आगे कहते हैं-

 “न हि मांसं तृणात काष्ठादुपलाद वापि जायते।
हत्वा जन्तुं ततॊ मांसं तस्माद दॊषस्तु भक्षणे।।”

अर्थात् तृण से, काठ से या पत्थर से मांस उत्पन्न नहीं होता, वह केवल जीव की हत्या करने पर ही उपलब्ध होता है, अतः उसके खाने में महान दोष है।

“Repeat a lie often enough and it becomes the truth”, is a law of propaganda often attributed to the Nazi Joseph Goebbels.

ऊपर उल्लेखित एक विशेष वर्ग वर्तमान समय में इस नियम का अक्षरशः पालन कर प्रयत्नशील है कि वो एक साधारण भारतीय को भ्रमित कर उसे उसकी जड़ों से पूरी तरह काट दे। ये “स्वयंभू विद्वान” वैदिक साहित्य के बुरे पश्चिमी अनुवादों के संदर्भ उद्धरणों का उपयोग करते हैं और उन्हें अपने व्यवसाय के एजेंडे में फिट करते हैं।

दुःख इस बात का है कि बहुधा प्राचीन शास्त्रों का उनका भ्रामक विश्लेषण निर्विरोध स्वीकार लिया जाता है। दुर्भाग्य यह है कि कथित हिन्दू समाज इन भाष्यकारों को छोड़ने तथा महर्षि दयानन्द सरस्वती एवं आर्य विद्वानों के भाष्यों को स्वीकार करने को आज भी उद्यत नहीं है वरना यह स्थिति नहीं आती।

सनातन धर्म के मानने वालों के मन में पुनर्जन्म और विभिन्न योनियों में अटूट विश्वास रहा है और अभी भी है। इसका अर्थ है कि मनुष्य अलग-अलग पशुओं के रूप में जन्म लेता रहता है जब तक कि मोक्ष ना मिल जाए। इसलिए दुर्घटना से भी, क्या आप पशु वध करना चाहेंगे और अपने पूर्वजों में से सम्भवतः किसी एक को भक्षण के लिए मार देंगे? नहीं ना? इसीलिए जो लोग खाने के लिए पशुओं को मारते थे, उन्हें राक्षस और पिशाच कहा जाता था।

अब्रहामिक धर्मों के विपरीत, हिंदू सोचते और मानते हैं कि इस पृथ्वी पर रहने वाले प्रत्येक जीव की आत्मा होती है, इसलिए संस्कृति के रूप से सिर्फ खाने में उपभोग के लिए किसी पशु को मारना हमारे यहाँ पर वेदों द्वारा स्वीकार्य होने का प्रश्न ही नहीं उठता।

लेखक: कृष्णानंद गौर

कृष्णानन्द गौड़: A man in search of meaning. Love to have multi-disciplinary reading. Got inspired by a special personality on Twitter to delve deeper into Indian culture, Vedic literature and our ancient civilisation to learn more & more and spread knowledge about Sanatana by writing and translating.