राष्ट्रपति और PM के पद पर मुस्लिमों को देखना चाहते हैं ‘जय श्री राम’ से घृणा करने वाले ये लिबरल पत्रकार: जैन-पारसी अल्पसंख्यक नहीं? लोकतंत्र से नहीं चलेगा देश?

प्रीतिश नंदी की इच्छा जगजाहिर

भारत में एक ओर जहाँ कट्टरपंथियों द्वारा देश को इस्लामी मुल्क बनाने की कोशिशें चल रही हैं, आए दिन बयान और दस्तावेज बरामद हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सेकुलर गिरोह इस चिंता में डूब रखा है कि क्या भारत में कभी कोई मुस्लिम दोबारा से राज कर पाएगा! 

पत्रकार प्रीतिश नंदी ने आज (17 जुलाई 2022) इस संबंध में एक ट्वीट किया है। इस ट्वीट में उन्होंने अपने फॉलोवर्स को समझाया है कि देखो विदेशों में भारतीयों को राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक बनाया जा रहा है जबकि भारत में भारतीय मुसलमानों को इन पदों के लिए कोई पूछ भी नहीं रहा।

प्रीतिश नंदी का दुख जाहिरतौर पर भारत में मुस्लिमों के भविष्य को लेकर है या कह सकते हैं कि उनके लिए भारतीयों का अर्थ ही मुस्लिम होना है।

अगर ऐसा नहीं होता तो शायद उनके ट्वीट में विदेश के साथ भारत की तुलना इतनी अटपटे ढंग से नहीं होती और तुलना का आधार ‘समान मानक’ होते। इसके अलावा उनके ट्वीट में अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की भी चिंता दिखती।

लेकिन नहीं! ट्वीट को पढ़िए। इसमें खासतौर पर सिर्फ ‘मुस्लिम’ शब्द लिखा गया है। इसमें न पारसी है, न जैन है, न ईसाई है और न ही सिख हैं। जबकि इन लोगों की संख्या देश में मुस्लिमों से कम है।

अगर कोई वाकई अल्पसंख्यक समुदाय को लेकर चिंतित है तो पहले तो इन समुदायों के अधिकार की बात उठाई जानी चाहिए। मगर, एक समय में जय श्रीराम पर सवाल उठाने वाले प्रीतिश या उनके गिरोह वाले ऐसा नहीं करेंगे। वो जानते हैं कि उन्हें समााजिक कल्याण नहीं, एक तय एजेंडा को लेकर आगे बढ़ना है और ये तभी पूरा हो पाएगा जब विदेशों से भारत की तुलना गलत ढंग से करेंगे।

डॉ एपीजे अब्दुल कलाम से लेकर रामनाथ कोविंद तक

प्रीतिश ने अपने ट्वीट में लिखा है, “भारतीय मूल की महिला अमेरिका में उप-राष्ट्रपति है। एक भारतीय मूल का व्यक्ति ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने जा रहा है। लेकिन क्या कभी भारत में दोबारा भारतीय मुस्लिम प्रधानमंत्री बन या राष्ट्रपति दोबारा बन पाएगा?”

लिबरल बुद्धिजीवी के इस ट्वीट में ‘मूल’ को आधार बनाकर विदेश की तारीफ की गई है और दूसरी ओर ‘मजहब’ को आधार बनाकर भारत को बदनाम किया गया है।

ये तुलना वाजिब कैसे हो सकती है जब न स्थिति एक जैसी है, न राजनीति और न ही मानक। नंदी की तुलना उचित तो तब होती न जब उन्होंने ये बताया होता कि भारतीय मुस्लिमों को अमेरिका और ब्रिटेन में राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री बनाया जा रहा है जबकि भारत में ऐसा नहीं हो रहा है।

प्रीतिश भूल चुके हैं कि जिस मजहब के बूते वह देश को बदनाम करने की साजिश रच रहे हैं। उसी मजहब के डॉ एपीजे अब्दुल कलाम का नाम देश के सबसे पॉपुलर राष्ट्रपतियों की लिस्ट में शुमार है। अगर भारत की रणनीति भेदभाव वाली होती तो क्या कभी ऐसा संभव होता कि देश में वह राष्ट्रपति बनते या मनमोहन सिंह के तौर पर एक सिख को प्रधानमंत्री चुना जाता या फिर दलित रामनाथ कोविंद को देश के सर्वोच्च पद पर बिठाकर पूरे समुदाय का सम्मान किया जाता।

आज द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति पद की सशक्त उम्मीदवार हैं। पूरा देश उन्हें समर्थन दे रहा है। इसकी वजह यही है कि जाति-धर्म से उठकर देश में पिछड़े तबकों का कल्याण प्राथमिकता है। मगर प्रीतिश जैसे लोगों का क्या किया जाए तो रह-रहकर देश को एक सिरे पर बाँधना चाहते हैं और सोचते हैं कि उसी सिरे से देश की चाल तय हो।

हिंदू बहुल देश में मुस्लिम समुदाय के व्यक्ति को पीएम और राष्ट्रपति बनाने की जो इच्छा जाहिर की जा रही है। वैसे इच्छाएँ कभी दूसरे देश जहाँ हिंदू अल्पसंख्यक हैं उन्हें लेकर क्यों नहीं होती?

आखिर क्यों जब आम आदमी पार्टी को पंजाब में राजनीति करनी होती है तो वो चेहरा भगवंत मान को बनाते हैं। क्यों गुजरात में जाकर कहा जाता है कि आखिर कोई मराठी गुजरातियों पर राज कैसे कर सकता है… क्या इन स्थितियों में भेदभाव की गंध नहीं आती। क्या तब सवाल नहीं बनता जब कॉन्ग्रेस दसियों पार्टी मीटिंग के बाद भी अध्यक्ष के तौर पर या तो सोनिया गाँधी को चुनती है या फिर राहुल गाँधी को अगला अध्यक्ष चाहती है।

लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुने जाते हैं राष्ट्रपति और पीएम

परिवारवाद पर सवाल न उठा पाने वाले पत्रकार ही हैं जिन्होंने देश का अर्थ केवल मुस्लिम समुदाय को आँक लिया है। वो भूल चुके हैं उस लोकतांत्रिक प्रक्रिया को, जिसके तहत देश में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का चुनाव होता है। ये सीधा इल्जाम देश की बहुसंख्यक जनता पर लगाते हैं। ऐसे दिखाया जाता है कि जैसे हिंदुओं ने किसी को पीएम और राष्ट्रपति बनने से रोक दिया हो।

संवैधानिक प्रक्रिया कहती है कि अगर किसी को प्रधानमंत्री बनना है तो उनके दल की लोकसभा चुनावों में जीत होनी चाहिए। इसी तरह अगर कोई दल चाहता है कि उनका प्रत्याशी राष्ट्रपति बने तो उसके साथ अन्य पार्टियों का समर्थन होना चाहिए। जैसे कल राष्ट्रपति चुनाव हैं और द्रौपदी मुर्मू के पास अभी से 60 फीसद से ज्यादा समर्थन आ गया है। लोग उन्हें इसलिए सपोर्ट नहीं कर रहे कि उन्हें एनडीए ने मैदान में उतारा है। उनका साथ इसलिए दिया जा रहा है क्योंकि वो जनजाति समुदाय से आती हैं और इस तरह उनके पद पर बैठने से संदेश समाज में जाएगा कि किसी समुदाय के साथ देश में भेदभाव नहीं हो रहा।